भगवान के स्वरूप का ध्यान क्यों करना चाहिए ? यह जानने से पहले यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि भगवान का स्वरूप कैसा होता है ? क्या वह केवल सुंदर होता है या फिर सुंदरता की सीमा से परे लोकोत्तर (divine) होता है ।
भगवान का स्वरूप
भगवान का अवतारी शरीर सच्चिदानंदमय होता है । ‘सच्चिदानंद’ में तीन शब्द हैं—सत्, चित् और आनंद । ‘सत्’ से भगवान का अवतारी शरीर बनता है, ‘चित्’ से उनके शरीर में प्रकाश होता है और ‘आनन्द’ से उनके शरीर में आकर्षण होता है । भगवान का ऐसा सच्चिदानंद श्रीविग्रह भक्त और अभक्त दोनों को ही प्रिय लगता है ।
महर्षि वाल्मीकि भगवान श्रीराम के सच्चिदानंदमय स्वरूप के बारे में उनसे कहते हैं—
‘चिदानंदमय देह तुम्हारी ।
बिगत बिकार जान अधिकारी ।। (राचमा २।१२७।५)
अर्थात्—आपकी देह चिदानन्दमय है । यह प्रकृतिजन्य पंच महाभूतों की बनी हुई नहीं है और उत्पत्ति-नाश, वृद्धि-क्षय आदि सब विकारों से रहित है, इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं ।
भगवान का जैसा रूप है, वैसा रूप संसार में किसी का नहीं है । हमारा, आपका, समस्त संसार का ऐसा रूप क्यों नहीं है ?
मनुष्य का जो रूप है वह सामान्य पंचभूतों व पंचतन्मात्राओं से पैदा होता है; लेकिन भगवान अपने शरीर को धारण करने के लिए लीलाशक्ति से दिव्यातिदिव्य सत्त्वगुणी तन्मात्राओं को उत्पन्न करते हैं । उन्हीं से भगवान अपने श्रीविग्रह को प्रकट करते हैं । मानो अनन्त आनन्द व साक्षात् दिव्य प्रेम ही मूर्तिमान होकर प्रकट हो गया हो; इसलिए उस स्वरूप का लावण्य भी अलौकिक होता है ।
भगवान के दिव्य स्वरूप में इतना आकर्षण होता है कि देवों, दानवों, ज्ञानियों, भक्तों, साधारण मनुष्यों, पशु-पक्षियों आदि समस्त आँख वालों को अपने अप्रतिम सौंदर्य से अपनी ओर खींच लेता है ।
भगवान श्रीराम के दूल्हा-वेष की रमणीयता (सुंदरता) देख कर जनकपुर में देवता ही नहीं; वरन् रमा (लक्ष्मी) के सहित रमापति (विष्णु) भी मोहित हो गए । ब्रह्माजी अपनी आठ आंखों से, जबकि भगवान शंकर अपनी पंद्रह आंखों से श्रीराम की रूपमाधुरी का पान कर रहे थे । भगवान शंकर अपनी अधिक आंखें होने पर अति प्रसन्न हो रहे थे; क्योंकि इससे वे श्रीराम की रूपसुधा का ज्यादा पान कर पा रहे थे—
संकरु राम रूप अनुरागे ।
नयन पंचदस अति प्रिय लागे ।। (राचमा १।३१७।२)
देवता और मनुष्य ही नहीं; पशु-पक्षी, जलचर भी श्रीराम के रूप-लावण्य को देख कर मोहित हो गए । समुद्र पर पुल बंधवा कर भगवान राम अपनी वानरी सेना के साथ लंका पर आक्रमण करने के लिए जा रहे थे तो उनकी मनोहारिणी सुंदरता को देखने के लिए समुद्र में रहने वाले जलचर पानी से ऊपर आ गए । सभी अपनी सुध-बुध खो बैठे और हटाने से भी हटते नहीं थे ।
भगवान श्रीराम के चिदानंदमय रूप से मोहित होकर राक्षस (शूपर्णखा और खर-दूषण की राक्षसी सेना) भी अपना वैरभाव भूल कर उनसे प्रेमभाव बनाना चाहते थे । खर-दूषण कहते हैं—‘हमने जीवन भर में ऐसी मनोहरता कहीं नहीं देखी । यद्यपि इन्होंने हमारी बहिन को बिना नाक-कान का कुरुप बना दिया, तो भी ये बेजोड़ पुरुष वध के योग्य नहीं हैं ।’
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई ।
देखी नहिं असि सुंदरताई ।।
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरुपा ।
बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ।। (राचमा ३।१९। २-५)
भगवान के स्वरूप का ध्यान क्यों करना चाहिए ?
भगवान के लिए श्रुति में कहा गया है—‘रसो वै स:’, वे सब रसों के झरने हैं, रसमय हैं, रसस्वरूप हैं, आनन्द हैं, ब्रह्मानंद हैं । मानव जीवन का लक्ष्य भी आनन्द है ।
हमारे दर्शनशास्त्र कहते हैं–जगत् की सृष्टि आनन्द से हुई है और वह घूम-घामकर आनन्द की ओर जा रहा है । रस ग्रहण करने की इच्छा मानव मन का स्वभाव है । मन को यदि किसी उत्तम दिव्य रस का पता लग जाए तो वह निम्न कामोपभोग जैसे विषयों की ओर दौड़ेगा ही नहीं । एक बार यदि मन भगवद्-रस का स्वाद पा ले तो फिर विषय-कामना पर सहज ही विजय प्राप्त की जा सकती है ।
अत: विषयों की ओर आसक्त मन को भगवान के चरणकमलों की ओर घुमाने का एक सहज उपाय है–उनके स्वरूप-सौन्दर्य की उपासना ।
मनुष्य स्वाभाविक ही सौन्दर्य की ओर खिंचता है । अत: मनुष्य नित्य भगवान के सुंदर स्वरूप की सौन्दर्योपासना से सहज ही उनकी ओर खिंच सकता है और असीम शांति प्राप्त कर सकता है ।
भगवान के स्वरूप का ध्यान उन्हीं की प्राप्ति करा देने की सामर्थ्य रखता है । यदि मनुष्य अपने आराध्य के स्वरूप का जीवन भर नित्य ध्यान करने का नियम ले ले, तो अंतकाल में, चाहे वह होश में हो या बेहोश हो, अंत:चक्षु में वही तस्वीर प्रकट हो जाएगी और उस समय जिस में मति रहेगी उसकी वही गति होगी । इसलिए कहा गया है—‘अंत मति सो गति’ ।
किसी संत की कितनी सुंदर अंतिमेच्छा है—
गिरे गर्दन ढुलक कर पीत पट पर,
खुली रह जायें ये आंखें मुकुट पर ।
गर ऐसा हो अन्जाम मेरा,
तो मेरा काम हो औ’ नाम तेरा ।।