पूर्वकाल में एक राम-नामी संत हुए । वे अपने सत्संग में लोगों से कहते—
राम जपु, राम जपु, राम जपु बावरे ।
घोर भव-नीर-निधि नाम निजु नाव, रे ।। (विनयपत्रिका ६६)
तुम राजा राम का नाम जपो; क्योंकि यही निर्बल का बल है, असहाय का मित्र है, अभागे का भाग्य है, अंधे की लाठी है, पंगु का हाथ-पांव है, निराधार का आधार और भूखे का मां-बाप है । इस कलिकाल में राम-नाम ही मनुष्य का सच्चा साथी और हाथ पकड़ने वाला गुरु है । यही ‘तारक ब्रह्म’ है—
कलिजुग केवल हरि गुन गाहा ।
गावत नर पावहिं भव थाहा ।।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना ।
एक अधार राम गुन गाना ।। (राचमा ७।१०३।४-५)
एक दिन उस संत के पास कलियुग ब्राह्मण-वेश में पधारे । कलिपुरुष ने संत को अपना परिचय देकर आदेश दिया कि—‘तुम सत्संग करते हो, उसमें लोगों से आत्मा-परमात्मा की चर्चा करते हो । तुम राम-नाम जप करने पर बल देते हो । इससे लोगों का मनोबल बढ़ता है । भगवन्नाम में प्रीति बढ़ने से लोगों पर मेरी दाल नहीं गलती और मेरा प्रभाव व्यर्थ चला जाता है ।’
संत ने हाथ जोड़ कर विनय-पूर्वक कहा—‘लोगों की भीड़ इकट्ठा करना मेरा उद्देश्य नहीं है । मैं तो सत्संग इसलिए करता हूँ कि लोगों को भगवान पर विश्वास बढ़े, उनके नाम से प्रीति हो; ताकि वे अपना लोक-परलोक सुधार सकें ।’
कलियुग ने कहा—‘इस समय मेरा शासन है । बुद्धिमानी इसी में है कि जिसका राज्य हो, उसी के पक्ष में रहना चाहिए ।’
संत ने उत्तर दिया—‘भाई । मैं तेरे राज्य में नहीं, राम-राज्य में रहता हूँ । मेरे राजा श्रीराम हैं, तू नहीं । युग तो आते-जाते रहते हैं ।’
कलिपुरुष संत को धमकी देकर बोला—‘आपको मेरी अवज्ञा बहुत मंहगी पड़ेगी ।’
अगले दिन संत के पास एक व्यक्ति आया और कहने लगा—‘महाराज ! आपने मदिरा (शराब) मंगवाई थी, उसके पैसे अभी तक नहीं पहुंचे हैं ।’
संत समझ गए कि यह कलिपुरुष का ही खेल है । संत द्वारा मदिरा मंगवाने की बात जंगल में आग की तरह चारों तरफ फैल गई । जो संत के शिष्य व सत्संगी थे, वे सब उनके निंदक हो गए । धीरे-धीरे संत का आश्रम खाली हो गया ।
अब कलिपुरुष पुन: संत के सामने प्रकट होकर बोला—‘कैसा चल रहा है तुम्हारा राम-राज्य, कैसी है तुम्हारी भक्ति और कैसा है तुम्हारा आश्रम ? तुमको संत मानने वाले अब तुम्हें ही शैतान मानने लगे हैं । अब भी संभल जाओ, मेरे राज्य में लोगों को भगवन्नाम लेने की सीख देकर मेरे विरुद्ध न चलो । यदि तुम मेरी बात मान लेते हो तो कल से ही तुम्हारे आश्रम में भक्तों की भीड़ लग जाएगी ।’
संत ने पूछा—‘यह कैसे करोगे ?’
कलिपुरुष ने उत्तर दिया—‘कल ही दिखा दूंगा ।’
दूसरे दिन संत के आश्रम के बाहर मार्ग में एक वृद्ध कोढ़ी लेटे हुए चिल्ला रहा था—‘अरे, कोई मुझे संत के पास ले चलो । यदि वह कृपा करके अपने हाथ से मेरे ऊपर पानी छिड़केगा तो मेरा कोढ़ दूर हो जाएगा । भगवान ने रात को सपने में मुझे ऐसा बताया है ।’
लोग कोढ़ी की बात सुनकर कहते—‘अरे, वह संत नहीं है, शराबी है ।’
तो कोढ़ी तुरंत कहता—‘नहीं, वह तो उच्च कोटि के महात्मा हैं ।’
कोढ़ी द्वारा लगातार जिद करने पर लोगों ने संत की परीक्षा करनी चाही । वे कोढ़ी को उठाकर संत के पास ले गए और उस पर जल छिड़कने को कहा । संत ने जैसे ही जल छिड़का, उसका कोढ़ ठीक हो गया और वह वृद्ध से एक सुन्दर नौजवान बन गया । यह देखकर सभी लोग संत से क्षमा मांगने लगे । संत के आश्रम में पुन: पहले जैसी भीड़ होने लगी ।
कलिपुरुष फिर संत के पास आकर बोला—‘देखा मेरा प्रताप; इसलिए अब तुम मुझसे मिल कर रहो ।’
संत ने तुरंत कहा—‘नहीं, हम तो प्रभु श्रीराम से ही मिल कर रहेंगे । हमारा सत्संग जारी रहेगा ताकि लोग विषयों के, धन के दास न बनें; प्रभु श्रीराम के ही दास बनें ।’
कलिपुरुष ने संत को धमकाते हुए कहा—‘तुमने मेरा प्रताप तो देख ही लिया है, अब मेरी बात न मानना तुमको बहुत भारी पड़ेगा ।’
संत ने उपेक्षा भाव से कहा—‘हां, देख लिया तुम्हारा प्रताप । हमने अपनी निंदा-स्तुति दोनों करवा ली । तूने भी देख लिया राम-नाम का प्रभाव । मैं दोनों ही परिस्थितियों में सम रहा । अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही परिस्थितियों को मैंने अपने रामजी की इच्छा माना; इसलिए वे मुझे प्रभावित न कर सकीं । राम-नाम पर विश्वास से मुझे सब कुछ अच्छा ही लगा ।
राम भरोसो, राम बल, राम नाम बिस्वास ।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल माँगत तुलसीदास ।।
राम-नाम रति, राम गति, राम-नाम बिस्वास ।
सुमिरत सुभ मंगल कुसल, दुहुँ दिसि तुलसीदास ।।
यही भगवान के नाम का प्रताप है । नाम के सहारे ही मुझे तुमसे कोई भय नहीं लगा; क्योंकि—
राम राम धुन गूंज से भव भय जाते भाग ।
राम नाम धुन ध्यान से सब शुभ जाते जाग ।।
राम-नाम पर संत के अटूट विश्वास से कलिपुरुष समझ गए कि यहां अपनी दाल नहीं गलेगी । वे किसी और को अपना शिकार बनाने के लिए चले गए ।
इस घोर कलिकाल में हमारे जीवन में बाहर और भीतर जो गहन अंधकार छाया हुआ है, उसे हटाने का एक ही रामबाण तरीका है—
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार ।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजियार ।। (पाचमा बालकाण्ड)
जैसे द्वार की देहरी पर रखा दीपक कमरे में और कमरे के बाहर भी प्रकाश फैला देता है, वैसे ही यदि तुम अपने बाहर और भीतर प्रकाश चाहते हो तो जीभ की देहरी पर राम-नाम का मणिद्वीप रख दो ।