नक्षत्र देवताओं का गृह है । ये अपनी जगह स्थिर रहते हैं । अश्विनी, भरणी आदि नाम से 27 नक्षत्र होते हैं । 28वां नक्षत्र अभिजित् है ।
—पुष्य का अर्थ पोषक होता है ।
—इसे अरबी में ‘नसरा’ और अंग्रेजी में ‘Delta Cancri’ कहते हैं ।
—इस नक्षत्र के स्वामी देवगुरु बृहस्पति हैं । ऋग्वेद के अनुसार बृहस्पति ग्रह का उद्भव पुष्य नक्षत्र से हुआ । अत: पुष्य और बृहस्पति का गहरा सम्बन्ध है —‘गुरौ पुष्यसमायोगे सिद्धयोगे प्रकीर्तित: ।’
—शिवपुराण में पुष्य नक्षत्र को भगवान शिव की विभूति बताया गया है ।
—गुरुवार और रविवार को पुष्य नक्षत्र (गुरुपुष्य और रविपुष्य ) होने पर बहुत शुभ होता है । इस दिन यदि किसी कार्य का मुहुर्त न निकलता हो तो भी उस कार्य को किया जा सकता है ।
—गुरुपुष्य के दिन यदि नवमी हो तो ‘विषयोग’ होता है अत: इसमें शुभ कार्य नहीं करना चाहिए ।
—सोमवार, बुधवार तथा शनिवार को पुष्य नक्षत्र मध्यम फल देता है तथा मंगल व शुक्रवार के दिन पुष्य नक्षत्र होने पर ‘उत्पात योग’ होता है । इसमें कोई शुभ कार्य हीं करना चाहिए ।
ज्येष्ठ मास में भी पुष्य नक्षत्र विशेष उपयोगी नहीं होता है ।
पुष्य नक्षत्र में पाणिग्रहणसंस्कार (विवाहकर्म) का निषेध
—कामदेव ने पुष्य नक्षत्र में ब्रह्माजी पर पुष्प बाण छोड़ा था । पुष्य नक्षत्र ने उसमें अपनी पूरी शक्ति लगा कर ब्रह्माजी को व्याकुल कर दिया । अत्यधिक कामुक होने से ब्रह्माजी ने इसे शाप दे दिया इसलिए पुष्य नक्षत्र में विवाह करना शुभ नहीं होता है ।
पुष्य नक्षत्र में जन्म
पुष्य नक्षत्र में जन्म लेने वाला मनुष्य बुद्धिमान, विनम्र, गुरुभक्त, अच्छा वक्ता, कार्यों में कुशल, हृष्ट-पुष्ट (healthy) परोपकारी व क्षमाशील होता है किन्तु उसका जीवन संघर्षमय होता है ।
पुष्य नक्षत्र में श्राद्ध
नारदसंहिता के अनुसार पुष्य नक्षत्र में श्राद्ध करने से पितरों को असीम तृप्ति होती है और वे श्राद्ध करने वाले को धन-पुत्रादि का आशीर्वाद देते हैं । दशमी तिथि को पुष्य नक्षत्र पड़े तो ‘अमृत योग’ होता है इसमें श्राद्ध करने से पितर प्रसन्न रहते हैं ।
गृह निर्माण आरम्भ करते समय और गृह प्रवेश करते समय केवल गुरुपुष्य और रविपुष्य को ही नहीं देखना चाहिए वरन् कुछ अन्य बातों का भी ध्यान रखना चाहिए ।