भगवान श्रीकृष्ण और कमल का सम्बन्ध अटूट है । कुंती जी भगवान श्रीकृष्ण की बहुत सुंदर वंदना करते हुए कहती हैं—
नम: पंकजनाभाय नम: पंकजमालिने ।
नम: पंकजनेत्राय नमस्ते पंकजाड़्घ्रये ।। (श्रीमद्भागवत)
अर्थात्—जिनकी नाभि से कमल उत्पन्न हुआ है, उनको नमस्कार है; जो कमल की माला धारण किए हुए हैं, उन परमात्मा को नमस्कार है; जिनके कमल के समान सुंदर नेत्र और चरण हैं, उन श्रीकृष्णचंद्र को नमस्कार है ।
भगवान श्रीकृष्ण के नेत्र, मुख, कर (हाथ) और चरणों की शोभा कमल की तरह हैं, और वक्ष:स्थल पर माला भी कमल की है ।
भगवान श्रीकृष्ण कमल रूपी योगपीठ पर विराजते हैं और कमल उनके मस्तक पर विराजता है
गोलोक में दिव्य निकुंज में हजार दल वाला एक बहुत बड़ा कमल है, उसके ऊपर एक सोलह दल का कमल है तथा उसके ऊपर भी एक आठ दल वाला कमल है, उसके ऊपर कौस्तुभमणियों से जड़ित तीन सीढ़ियों वाला एक सिंहासन है, उसी पर भगवान श्रीकृष्ण श्रीराधा जी के साथ विराजमान रहते हैं ।
मणि-निर्मित जगमग अति प्रांगण, पुष्प-परागों से उज्जवल ।
छहों उर्मियों से विरहित वह वेदी अतिशय पुण्यस्थल ।।
वेदी के मणिमय आंगन पर योगपीठ है एक महान ।
अष्टदलों के अरुण कमल का उस पर करिये सुन्दर ध्यान ।।
उसके मध्य विराजित सस्मित नन्द-तनय श्रीहरि सानन्द ।
दीप्तिमान निज दिव्य प्रभा से सविता-सम जो करुणा-कंद ।। (श्रीहनुमानप्रसादजी पोद्दार)
पृथ्वी पर श्रीधाम वृन्दावन भगवान श्रीराधाकृष्ण की रसमयी लीलाभूमि है । पुराणों में इसे व्रजमण्डल रूपी कमल की अत्यन्त सुन्दर कर्णिका (मध्य भाग) कहा गया है ।
संसार में अन्य किसी को यह सौभाग्य नहीं मिला, जिसकी उपमा श्रीकृष्ण के सभी अंगों से दी जा सके और जिस पर स्वयं श्रीयुगल सरकार विराजमान रहें । धन्य है कमल !
भगवान श्रीकृष्ण के विभिन्न अंगों की उपमा कमल से क्यों की जाती है ?
कमल को यह सौभाग्य इसलिए मिला क्योंकि उसका सबसे बड़ा गुण है—निर्लिप्तता । कमल कीचड़ में रह कर भी सबको सुकुमारता, मधुरता और सुगंध देता है । सरोवर में रह कर जल की एक बूंद भी अपने ऊपर टिकने नहीं देता है । जैसे-जैसे जल बढ़ता है, कमल अपने-आप ऊपर आ जाता है । कभी अपने आप को जल में डूबने नहीं देता है । इसी तरह भगवान श्रीकृष्ण के जीवन-चरित्र में भी हमें कमल की तरह निर्लिप्तता देखने को मिलती है ।
अद्भुत है भगवान श्रीकृष्ण की अनासक्ति, निर्विकारता और निर्लिप्तता
भगवान श्रीकृष्ण की जीवन को तटस्थ (निर्लिप्त) भाव से देखने की प्रवृति की शुरुआत जन्मकाल से ही हो गयी थी । जन्म से ही माता-पिता की ममता छोड़ गोकुल में नन्द-यशोदा के घर रहे । सहज स्नेह रखने वाली गोपियों से नाता जोड़ा और फिर उन्हें तड़पता छोड़ मथुरा चले गए । फिर मथुरा को छोड़ द्वारका चले आए; परन्तु यदुकुल में कभी आसक्त नहीं रहे । कोई भी स्नेह उन्हें बांध न सका ।
पाण्डवों का साथ हुआ पर पाण्डवों को महाभारत का युद्ध जिताकर उन्हें छोड़कर चले गए । पृथ्वी का उद्धार किया और पृथ्वी पर प्रेमयोग व गीता द्वारा ज्ञानयोग की स्थापना की; परंतु पृथ्वी को भी चुपचाप निर्मोही होकर छोड़कर चले गये ।
ममता के जितने भी प्रतीक हैं, उन सबको उन्होंने तोड़ा । गोरस (दूध, दही, माखन) की मटकी को फोड़ने से शुरु हुआ यह खेल कौरवों की अठारह अक्षौहिणी सेना के विनाश से लेकर यदुकुल के सर्वनाश पर जाकर खत्म हुआ ।
द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया । क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है ?
भगवान की सारी लीलाओं में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । यही अनासक्ति उन्हें कमल की तरह सुकुमारता और मधुरता का प्रतीक बना देती है ।
एक विद्वान श्रीमुकुन्द जी गोस्वामी ने कमल को सम्बोधित करते हुए एक बहुत ही सुन्दर कविता लिखी है, जिसकी कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं–
अहो कमल !
लीलाकमल बने हरिकर में, माला बन हरि-उर में राज ।
भ्रमरगणों के चिरसहचर तुम मँडराते वे सहित समाज ।।
अहो कमल ! तुम अंग-अंग बन, हरितन पर शोभित अभिराम ।
नेत्रकमल, मुखकमल, करकमल, चरणकमल नित छवि के धाम ।।
अर्थात्–हे कमल ! भगवान श्रीकृष्ण के हाथ में लीलाकमल बनकर रहते हो और माला बनकर भगवान के हृदय पर राज करते हो । तुम्हारे सखा भंवरे अपने दल-बल के साथ श्रीकृष्ण के आस-पास ही मंडराते रहते हैं ।
हे कमल तुम धन्य हो ! श्रीकृष्ण के एक-एक अंग की शोभा में तुम्ही हो । सौंदर्य के धाम श्रीकृष्ण के नेत्र भी तुम्ही हो, मुख की शोभा भी तुम्ही हो, हाथों में भी तुम और चरणों की शोभा में भी तुम हो । यानि श्रीकृष्ण के नेत्र भी कमल, मुख भी कमल, हाथ भी कमल सदृश्य और चरण भी कमल की तरह सुकोमल हैं ।