vishnu bhagwan lying on shehsnaag

द्वापर युग की समाप्ति और कलियुग के आरम्भ होने पर एक बार ब्रह्मा जी ने नारद जी से कहा—‘कलियुग में सारा संसार अशांति और असत्य में डूब जाएगा । कलियुग में भगवान नारायण ने अवतार धारण नहीं किया है; इसलिए तुम अपने कौशल से ऐसा कोई उपाय करो जिससे भगवान भूलोक में अवतार धारण करें । तब मानव भक्ति-युक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करेगा ।’

पिता की बात सुन कर नारद जी भूलोक में गंगा किनारे आए जहां समस्त ऋषि-गण एकत्रित होकर जन-कल्याण के लिए एक विशाल यज्ञ कर रहे थे । 

नारद जी ने मुनियों से पूछा—‘संसार की भलाई के लिए किया जाने वाला यज्ञ साधारण नहीं होता; इसलिए इसका फल पाने वाला भी साधारण नहीं होना चाहिए । इस यज्ञ का फल आप किसे दे रहे हैं ? सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न कीजिए कि त्रिमूर्तियों में से कौन सत्वगुण-संपन्न है और कौन मोक्ष फल का दाता है, अत: यज्ञ का फल उनमें से किसे देना चाहिए ?’

मुनियों ने कहा—‘नारद ! तुम बहुत बुद्धिशाली हो, अत: तुम ही बताओ, ब्रह्मा, विष्णु और महेश में से किसको यज्ञ का फल देना चाहिए ? एक सृष्टि करता है, दूसरा पालन करता है और तीसरा रुद्रमूर्ति है । तीनों ही एक-दूसरे से कम नहीं है । अत: इनकी परीक्षा कर लेनी चाहिए । इस कार्य के लिए भृगु ऋषि ही श्रेष्ठ हैं; क्योंकि जैसे भगवान शिव का तीसरा नेत्र ललाट पर है, इनका तीसरा तपोनेत्र चरण में है ।’ 

त्रिमूर्ति में कौन श्रेष्ठ है ?—इसकी परीक्षा करने के लिए भृगु ऋषि मान गए ।

भृगु ऋषि द्वारा ब्रह्मा, शिव और विष्णु की परीक्षा

सर्वप्रथम भृगु ऋषि सत्यलोक गए, जहां ब्रह्मा जी वरुण, अग्नि आदि दिक्पालकों से सृष्टि के सम्बन्ध में चर्चा कर रहे थे । भृगु ऋषि काफी देर तक ब्रह्मसभा में खड़े रहे; परन्तु किसी ने भी उनकी ओर ध्यान नहीं दिया । क्रोधित होकर भृगु ऋषि ने कहा—‘ब्रह्मदेव ! तुम स्रष्टा होने के गर्व में इतने अंधे हो रहे हो कि चार सिर और आठ आंखों के होते हुए भी तुम्हें अतिथि दिखाई नहीं देता । तुममें रजोगुण की प्रधानता है । अतिथि के अपमान के लिए मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि ‘पृथ्वी पर कहीं भी न तो तुम्हारी पूजा होगी और न ही मंदिर होगा ।’

इसके बाद भृगु ऋषि कैलास गए, जहां भगवान शिव अपनी पत्नी पार्वती जी के साथ अंत:पुर में भोगानुभव कर रहे थे । बाहर गणेश, कार्तिकेय और समस्त शिवगण कोई उत्सव मना रहे थे । किसी ने भी भृगु ऋषि को नहीं पहचाना । 

क्रोधित होकर भृगु ऋषि सीधे अंत:पुर में प्रवेश कर गए । अंत:पुर में भृगु ऋषि को देख कर शिव जी उन पर क्रोधित हो उठे । भृगु ऋषि ने सोचा इनमें तामस गुण ही हैं; इसलिए शिव जी को शाप देते हुए कहा—‘किसी भी मंदिर में तुम्हारी मूर्ति नहीं होगी, सब जगह तुम लिग रूप में स्थित हो जाओ ।’ 

अब भृगु ऋषि वैकुण्ठ लोक में पहुंचे, जहां भगवान विष्णु शेषशय्या पर शयन कर रहे थे और लक्ष्मी जी उनकी पाद सेवा कर रही थीं । यह देखकर भृगु ऋषि का पारा और चढ़ गया । सोचने लगे कि ये तो सारा दिन सोते ही रहते हैं ।

उन्होंने भगवान विष्णु के वक्ष पर पदाघात करते हुए कहा—‘हमारे आने पर भी तुम सोते हो, उठो !’ 

भृगु ऋषि के पदाघात से विष्णु जी ने शेषशय्या से उतर कर उनके चरण पकड़ लिए और लक्ष्मी जी को उनके लिए पाद्य-अर्घ्य आदि लाने के लिए कहा । 

भगवान विष्णु ने भृगु ऋषि से कहा—‘क्षमा करो महात्मन् ! कौस्तुभ आदि से युक्त हारों को पहनने से मेरी छाती बहुत कठोर है । इस पर पदाघात से आपके सुकुमार चरण को कितना कष्ट हुआ होगा ? मुझे अपना दास समझ कर क्षमा करना । मैं आपके चरण छूता हूँ ।’ भगवान ने भृगु-लांछन-चिह्न छाती में धारण कर लिया । 

भगवान विष्णु ने भृगु ऋषि का पांव हाथ में लेकर उनके तपोनेत्र को अपनी ऊंगलियों से खींच कर सागर में फेंक दिया जिससे भृगु ऋषि का सारा गर्व जाता रहा । 

भृगु ऋषि ने कहा—‘प्रभो ! आपको लात मार कर मैंने बड़ा पाप किया, मेरे दोष को क्षमा करें ।’ 

भगवान विष्णु ने कहा—‘तुम दु:खी मत हो, तुम्हारे मन की बात और आने का कारण मैं जानता हूँ । तुम्हारे कारण हमारा महत्व संसार में विदित होगा ।’

भृगु ऋषि ने भगवान विष्णु से यज्ञ का फल स्वीकार करने की प्रार्थना की, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया । 

भृगु ऋषि के कार्य से भगवान विष्णु के वक्ष:स्थल में रहने वाली लक्ष्मी जी क्रुद्ध हो गईं और बोलीं—‘चौदह भुवनों के स्वामी और समस्त देवताओं से पूजित आप को लात मारने का उस ब्राह्मण का साहस ! विद्या बढ़ती है तो साथ में अभिमान भी बढ़ता है जिससे विद्या और तप का विनाश हो जाता है; यह वक्ष:स्थल मेरा निवासस्थान है । इस पर लात मारने का मतलब है, मुझे लात मारना । उसे दण्ड देने की जगह आपने उनसे क्षमा मांगी, यह देखकर मेरा तो दिल जल रहा है । पर-पुरुष से अपमानित होकर जीवित रहने की अपेक्षा नाक बंद करके तपस्या कर लेना अच्छा है ।’

लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु से कहा—‘इन्हें सजा दीजिए ।’ 

भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को बहुत समझाया कि ‘भक्तों के मन की बात को जानना बहुत कठिन है । वे किसी महान कार्य के लिए यहां आए थे । संतान के कार्य से माता-पिता क्यों नाराज होंगे ? तुमको शांत हो जाना चाहिए ।’ 

परन्तु लक्ष्मी जी ने कहा—‘मैं उसे क्षमा नहीं कर सकती । अगर आप उसे दण्ड नहीं दे सकते तो मैं वैकुण्ठ में नहीं रहूंगी । उस दुष्ट ने हम दोनों को अलग किया है; इसलिए मैं समस्त ब्राह्मण जाति को शाप देती हूँ कि ‘ब्राह्मण भूलोक में वेदोक्त कर्मों से हीन और दरिद्र बन कर विद्याओं को बेचते हुए जीवन यापन करेंगे ।’

लक्ष्मी जी भूलोक में आकर गोदावरी नदी के किनारे कोल्हापुर में एक पर्णकुटी बनाकर तपस्या करने लगीं ।

यहां वे अकेली हैं, नारायण साथ में नहीं हैं । कोल्हापुर में उनका उग्र स्वरूप है । आंखें बहुत बड़ी हैं । तब से उन्होंने निश्चय किया कि ब्राह्मण बहुत अभिमानी होते हैं; अत: मुझे ब्राह्मणों के घर नहीं जाना है । परन्तु भगवान ने ब्राह्मणों को क्षमा कर दिया ।

छिमा बड़न को चाहिये, छोटन को उतपात ।
कह रहीम हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात ।।

इस प्रसंग से भगवान ने यही शिक्षा दी कि किसी ने तुम्हें दु:ख दिया, गाली दी, अपमान किया तो उसे सह लो । इतना ही नहीं उस पर करुणा करो, उसे क्षमा करो । यदि संसार के सभी जीवों में मनुष्य इस तरह की समता रखेगा तो उससे परमात्मा और भी प्रसन्न होंगे ।

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