जब भी हम भगवान श्रीकृष्ण की लीलाओं को पढ़ते हैं तो अक्सर योगमाया का नाम आता है । प्रश्न यह है कि ये योगमाया या महामाया कौन हैं ? इस ब्लॉग में भगवान की योगमाया के बारे में वर्णन किया गया है ।
भगवान की ऐश्वर्य-शक्ति है योगमाया
योगमाया भगवान की अत्यन्त प्रभावशाली वैष्णवी ऐश्वर्य-शक्ति है जिसके वश में सम्पूर्ण जगत रहता है । उसी योगमाया को अपने वश में करके भगवान लीला के लिए दिव्य गुणों के साथ मनुष्य जन्म धारण करते हैं और साधारण मनुष्य से ही प्रतीत होते हैं । इसी मायाशक्ति का नाम योगमाया है ।
भगवान जब मनुष्य के रूप में अवतरित होते हैं तब जैसे बहुरूपिया किसी दूसरे स्वांग में लोगों के सामने आता है, उस समय अपना असली रूप छिपा लेता है; वैसे ही भगवान अपनी योगमाया को चारों ओर फैलाकर स्वयं उसमें छिपे रहते हैं । साधारण मनुष्यों की दृष्टि उस माया के परदे से पार नहीं जा सकती; इसलिए अधिकांश लोग उन्हें अपने जैसा ही साधारण मनुष्य मानते हैं ।
गीता (७।२५) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता, लोग मुझे पहचानते क्यों नहीं ? क्योंकि मैं योगमाया से अपने को ढका रखता हूँ ।’
भगवान की लीला का आयोजन योगमाया ही करती है । भगवान की लीला के लिए पहले से ही मंच, पात्र आदि तैयार कर देना, संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया ही करती हैं ।
यह योगमाया शक्ति वही है, जिसे परमब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में स्वयं अवतरित होने से पूर्व ही अपनी लीला के सम्पादन के लिए भूतल पर भेज दिया था । गोलोक में भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया को आदेश दिया–
‘गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलंकृतम् ।’
अर्थात्—हे देवि ! आप ग्वालों और गौओं से सुशोभित व्रज में जाओ और मेरा कार्य-संपादन करो (श्रीमद्भागवत १०।२।७) ।
तब योगमाया ने पूछा—‘भगवन् ! यह व्रज कहां है और वहां क्या करना है ?’
भगवान ने कहा—‘देवि ! व्रज-भूमि मेरी अपनी निज भूमि है । मैं अजन्मा होते हुए भी व्रज में जन्म लेता हूँ । नित्य तृप्त होते हुए भी व्रजांगनाओं की छछिया भर छाछ पीने के लिए उनके इशारों पर नाचता हूँ । व्रजवासियों की रूखी-सूखी, ‘अरे’, ‘ओरे’ की बोली (भाषा) मुझे वेद की स्तुति से भी अधिक प्रिय है । मैं परमेश्वर, सर्वेश्वर हूँ; परन्तु वात्सल्यमयी मां यशोदा मुझे प्रेम की डोरी से लपेट कर बांध देती हैं । उसी व्रज के व्रजराज श्रीनन्दबाबा के घर में उनकी धर्मपत्नी यशोदा के गर्भ से तुम्हें कन्या के रूप में प्रकट होना हैं और मैं अपने समस्त ज्ञान, बल, आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूंगा ।’
भगवान की आज्ञा पाते ही भगवती योगमाया जब व्रजमण्डल में पधारीं, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें यह वरदान दिया कि—
‘सभी लोग तुम्हें देवी मानकर तुम्हारे नाम और स्थान पर मन्दिर बनाएंगे । व्रज में दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, माया, नारायणी, ईशानी, शारदा, अम्बिका आदि नामों से तुम विख्यात होओगी । तुम लोगों को मुंहमांगे वरदान देने में समर्थ होओगी । तुम्हें अपनी समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली जानकर भक्त घनघोर शब्द करने वाले घण्टों, लम्बी-लम्बी लाल-पीली-केसरिया ध्वजाओं से एवं गन्ध, अक्षत, फल, फूल, धूप-दीप, मिष्ठान्न, श्रीफल नारियल, भेंट आदि विभिन्न सामग्रियों से तुम्हारी पूजा करेंगे क्योंकि आप ही सर्वकाम वरप्रदायिनी हैं ।’ (श्रीमद्भागवत १०।२।१०-१२)
इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी लीलाओं के सृजन और विस्तार के लिए योगमाया को रंगमंच तैयार कराने का आदेश दिया ।
भगवान श्रीकृष्ण की बहन हैं योगमाया
कंस का कारागार, भाद्रप्रद कृष्ण अष्टमी की अर्धनिशा में जब श्रीकृष्णचन्द्र का प्राकट्य हुआ, तब वह चतुर्भुज रूप माता देवकी की प्रार्थना करने पर देखते-ही-देखते शिशु बन गया, बंदीगृह की बेड़ियां ताले स्वत: खुल गए । वसुदेवजी अपने उस हृदयघन को गोकुल में जाकर नन्दभवन में रख आए और यशोदाजी को जन्मी योगमाया को ले आए । जब कंस उस कन्या का वध करने के लिए शिला पर पटक रहा था, तब वे योगमाया कंस के हाथ से छूट कर गगन में अष्टभुजा हो गईं । उनके हाथ में धनुष, त्रिशूल, बाण, ढाल, तलवार, शंख, चक्र और गदा—ये आठ आयुध थे ।
उस समय योगमाया ने कंस से कहा—‘तेरे पूर्वजन्म का शत्रु तुझे मारने के लिए किसी स्थान पर पैदा हो चुका है ।‘
इस प्रकार कह कर वे वहां से अन्तर्ध्यान हो गईं ।
वे ही परमात्मा श्रीकृष्ण की पराशक्ति योगमाया पवित्र भारतभूमि के चारों ओर अनेक नाम व रूपों से निवास कर रहीं हैं । जैसे—
—उत्तर में जम्मू-कश्मीर में वैष्णवी (वैष्णोदेवी)
—पूर्व में असम में कामाख्यादेवी
—दक्षिण में तमिलनाडु में कन्यका (कन्याकुमारी)
—पश्चिम में गुजरात में अम्बिका (अम्बामाता) ।
ये प्रसिद्ध सिद्ध पीठ आज भी भारतवर्ष की चारों दिशाओं में विद्यमान हैं ।
श्रीमद्भागवत के दशम् स्कन्ध में ‘श्रीरासपंचाध्यायी’ के आरम्भ में ही भगवान श्रीकृष्ण ने योगमाया शक्ति की उपासना की है–
भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चके योगमायामुपाश्रित: ।
वैसे तो भगवान सर्वसमर्थ हैं, परन्तु जब श्रीकृष्ण ने शरद् पूर्णिमा की धवल रात्रि में व्रजगोपियों के संग रास लीला की, तब वे रासेश्वरी श्रीराधारानी रूप योगमाया के पास गए; क्योंकि बिना योगमाया के रास नही हो सकता था । रस के समूह को ‘रास’ कहते हैं । ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं; किन्तु रस को अनेक बनाकर ही रास हो सकता है । योगमाया ने इस रात्रि को छ: माह के बराबर कर दिया था; इसीलिए यह रासलीला लौकिक सृष्टि के स्तर से ऊपर थी । जीव और ईश्वर का मिलन ही रास लीला है ।
विद्वानों ने योगमाया के अनेक अर्थ किए हैं । जैसे—
- भगवान से बिछड़े हुए संसारी जीवों का भगवान के साथ योग कराने, मिलाने के लिए भगवान के हृदय में जो कृपा है, वह योगमाया है ।
- योगमाया है मुरली नाद ।
- योगमाया श्रीराधारानी हैं ।
- व्रज में योगमाया ‘मां कात्यायनी’ के नाम से जानी जाती हैं । व्रज में श्रीधाम वृन्दावन में श्रीराधा बाग स्थित केशवाश्रम में विराजमान मां कात्यायनी श्रीकृष्ण की कृपाशक्ति का ही नाम है । मनुष्य को यदि सौभाग्य, शोभा, सम्पत्ति की कामना हो तो उसे महामाया मां कात्यायनी का दर्शन, सेवा, पूजन, प्रणाम और भजन करना चाहिए । योगमाया मां कात्यायनी ने सभी के मनोरथ पूर्ण किए हैं ।
व्रज गोपियों ने मां कात्यायनी से अपना अभीष्ट वर मांगा—
कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि ।
नन्दगोपसुतं देवी पतिं मे कुरु ते नम: ।। (श्रीमद्भागवत, १०-२२-४)
अर्थात्—हे कात्यायनि ! हे महामाये ! हे महायोगिनि ! हे अधीश्वरि ! हे देवि ! नन्दगोपकुमार श्रीकृष्णचन्द्र को हमारा पति बना दीजिए । हम श्रद्धापूर्वक आपको प्रणाम करती हैं ।
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी ने अपनी ‘सुबोधिनी’ टीका में लिखा है—‘मां कात्यायनी ! आप बड़े भाग वाली हैं, तभी तो भगवान ने आपको व्रज में यशोदाजी के गर्भ में प्रकट होने की आज्ञा दी है । आपको भगवान ने अपनी बहिन बना लिया और वह भी बड़ी बहिन; इसलिए आप महाभागा हैं । आप ही सुयोग बनाने वाली हैं । देवकी के सप्तम गर्भ का आकर्षण करके रोहिणीजी के गर्भ से संकर्षण रूप से प्रकट करने वाली योगिनी आप ही हैं । आप भगवान की अंतरंगा शक्ति है, भगवान पर अधिकार करके आप ही रखती हैं, क्योंकि आप अधीश्वरी हैं । अत: नंदगोपकुमार श्रीकृष्ण को हमारा पति बना दीजिए । कृष्णरूप फल प्रदान करने वाली देवी, हम आपको प्रणाम करती हैं ।’
दु:ख संतप्त मनुष्य का श्रीकृष्ण से अटूट सम्बन्ध कराने में जिनकी कृपा-शक्ति परम आवश्यक है, उन्हीं मां कात्यायनी का आश्रय लेकर मनुष्य परमात्मा श्रीकृष्ण की अविचल भक्ति प्राप्त कर सकता है और जन्म-जन्मान्तरों के कर्म-बंधनों को काटकर भगवान श्रीकृष्ण को प्राप्त कर सकता है ।