नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न च।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।। (पद्मपुराण)

‘नारद ! न तो मैं वैकुण्ठ में निवास करता हूँ और न योगियों के हृदय में; अपितु मेरे भक्त जहां मेरा गुणगान करते हैं, मैं वहीं रहता हूँ।’

महाराष्ट्र की संत कवियत्री जनाबाई

जनाबाई ‘नामयाकी दासी’ अर्थात ‘संत नामदेवजी की दासी’ के रूप में प्रसिद्ध हैं। संत जनाबाई को महाराष्ट्र में एक भक्त कवयित्री के रूप में भी जाना जाता है। उनका जन्म गोदावरी तट पर गंगाखेड़ में एक शूद्रकुल में हुआ था। इनके पिता का नाम दमा और माता का नाम करुंड था। बचपन में ही मां की मृत्यु के बाद पिता संग जनाबाई पंढरपुर की यात्रा पर आई। पंढरपुर में श्रीविट्ठल के दर्शन का सात वर्ष की जना पर ऐसा असर हुआ कि भगवन्नमिलन की सच्ची प्यास लग गयी। पंढरपुर के श्रीविट्ठल मंदिर के सामने नामदेवजी के पिता दामाशेट का घर था। जना के पिता ने विठ्ठलभक्त ‘दामाशेट’ के हाथों में जना को सौंप दिया और स्वयं संसार से विदा ली । इस प्रकार ६-७ वर्ष की आयु में ही जनाबाई अनाथ होकर दामाशेट के घर में दासी के रूप में रहने लगी । उनके घर में आने के उपरांत दामाशेट को पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, वही आगे चलकर संत नामदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए। जनाबाई ने आजीवन उनकी सेवा की । नामदेव के घर में सभी लोग भगवान का भजन करने वाले थे। नामदेवजी के घर में पन्द्रह प्राणी थे–नामदेव के माता-पिता, स्वयं नामदेव, बहिन, पत्नी, बेटी, चार पुत्र और चार पुत्रवधुएं और पन्द्रहवीं जनाबाई। जनाबाई ने अपने एक अभंग (महाराष्ट्र में दोहे, चौपाई, पद को अभंग कहते हैं) में इन चौदह जनों का नाम लेकर पन्द्रहवीं ‘मैं जनीं’ कहकर अपने-आपको नामदेव के परिवार में शामिल किया है। जनाबाई के लगभग ३५० अभंग मिलते हैं। इनमें कहीं भगवान के सगुणरूप का ध्यान है तो कहीं निर्गुण निराकार का, तो कहीं परमात्मा के प्रेम का परम माधुर्य दिखाई देता है।

जनाबाई ने चखा भगवत्प्रेम का स्वाद

जिस प्रकार अपने पूर्व जन्म में ऋषि-मुनियों की सेवा में रहकर देवर्षि नारद भगवान के परम प्रेमी बन गए उसी प्रकार भक्तों में श्रेष्ठ नामदेवजी के घर में काम करने वाली जनाबाई के हृदय में संतों की संगति और भगवच्चर्चा से भगवत्प्रेम का बीज अंकुरित हो गया और वही अंकुर पल्लवित होकर वृक्ष के रूप में परिणत हो गया। जनाबाई भगवान विट्ठल की अनन्य भक्त थीं। उन्होंने भगवान को गोमाता और स्वयं को बछड़ा माना है।

जनाबाई को जब भी काम से फुर्सत मिलती, वह घर के सामने मन्दिर में जाकर भगवान का रूप निहार आती। रात को मन्दिर से जब सब लोग चले जाते तब एकान्त में मन्दिर में भगवान के साथ हंसती, बात करती, गाती और भावावेश में आकर नृत्य करने लगती।

अाठों याम (हर समय) भगवन्नाम

जनाबाई नामदेवजी के घर में झाड़ू देते, बरतन मांजते, कपड़े धोते, जल भरते, चक्की पीसते आदि सभी कार्य करते समय भगवान्नाम का कीर्तन करती रहती थी। भगवान के भक्त के घर का कार्य करने से उसकी भगवत्सेवा स्वयं होती जाती थी। वह गीता-ज्ञानेश्वरी का नित्य पाठ करती थी। भगवन्नाम का निरन्तर स्मरण करने से उसके पापपुंज जलने लगे।

एकादशी की रात्रि में श्रीनामदेवजी के घर होता था अखण्ड कीर्तन

एकादशी की रात्रि में श्रीनामदेवजी के घर अखण्ड कीर्तन होता था। भगवान सूर्य के अस्ताचलगामी होते ही जनाबाई वहां आ जाती और एक कोने में बैठकर रात भर जागरण व कीर्तन करती। उसकी आंखों से प्रेमाश्रु बहते रहते।

कबीर हंसना दूर कर, रोने से कर प्रीत।
बिन रोये क्यों पाइये, प्रेम पियारा मीत।।

भगवान को रोना ही भाता है। जो उसके लिए जितना ही अधिक व्याकुल होकर रोता है, भगवान उससे उतना ही अधिक प्रसन्न होते हैं। आज तक भगवान के जितने भी प्रेमी हुए हैं सब भगवत्प्रेम में रोते ही रहे हैं।

एक बार एकादशी की रात्रि नामदेवजी के घर में भक्तमण्डली कीर्तन कर रही थी। कोई मृदंग बजा रहा था, तो कोई करताल तो कोई झांझ बजा रहा था। कोई नाच रहा था, तो कोई गाते-गाते अश्रु बहा रहा था, कोई आनन्दमग्न होकर हंस रहा था–सभी भगवत्प्रेम में तन्मय, न किसी को तन-मन की सुधि है, न इस बात का ख्याल की कितनी रात बीत गयी। जनाबाई भी एक कोने में खड़ी प्रेममग्न होकर झूम रही थी।

यही भक्तियोग है जिसके प्रभाव से मनुष्य के सारे बंधन कट जाते हैं और उसके जन्म-मृत्यु के बीजों का खजाना ही जल जाता है।

संकीर्तन के आनन्दसागर में डूबे लोगों को पता ही नहीं चला कि कब उषाकाल हो गया। सभी लोग अपने-अपने घर चले गए। जनाबाई भी अपने घर आकर आराम करने लगी। भगवत्प्रेम की मादकता अभी उतरी नहीं थी, वह उसी में डूबी लेटी रह गई और उसकी आंख लग गई। जैसे ही आंख खुली, उसने देखा कि सूर्यदेव उदय हो गए हैं। वह स्वामी के गृहकार्य में देरी होने से घबराती हुई नामदेवजी के घर पहुंची और जल्दी-जल्दी हाथ का काम पूरा करने में लग गई। परन्तु बिलम्ब हो जाने से सभी कार्यों में हड़बड़ाहट होने लगी। काम कितने पड़े हैं–झाड़ू देना, बरतन साफ करना, कपड़े धोना, पानी भरना–ऐसा सोचते हुए जल्दी-जल्दी कपड़े धोने के लिए चन्द्रभागा नदी के किनारे गयी। वस्त्र पानी में डुबा भी नहीं पायी थी कि नामदेवजी का दूसरा काम याद आ गया और कपड़े छोड़कर भागती हुई नामदेवजी के घर की ओर चली।

रास्ते में एक अपरिचित वृद्धा ने प्रेम से उसका आंचल पकड़ कर कहा–’कहां जा रही हो बेटी?’ जल्दी में वृद्धा से आंचल छुड़ाते हुए जनाबाई ने कहा–’आज मुझे देर हो रही है, स्वामी की सेवा बाकी है।’ बुढ़िया ने प्रेम से कहा–’चिन्ता न कर, बेटी। कपड़े मैं साफ कर देती हूँ।’ जनाबाई को नामदेवजी के घर पहुंचने की जल्दी थी पर न जाने क्यों बार-बार उसका मन बुढ़िया को याद कर रहा था। मां की तरह स्नेह उसे जीवन में पहली बार मिला था।

नामदेवजी का काम खत्म करके जनाबाई नदी पर वापिस आई तो देखा कि बुढ़िया ने सारे कपड़े धोकर साफ कर दिए थे। इस वृद्धा ने कपड़ों के साथ ही उन कपड़ों के पहनने व धोने वालों के तन-मन भी निर्मल कर दिए थे। जनाबाई ने वृद्धा से कृतज्ञतापूर्ण स्वर में कहा–’बड़ा कष्ट उठाया आपने। तुम सरीखी परोपकारी माताएं ईश्वर का रूप होती हैं, मैं आपका आभार मानती हूँ।’ ‘इसमें आभार की कौन-सी बात है।’ ऐसा कहकर वृद्धा वहां से चली गयी। कभी आवश्यकता पड़ी तो मैं भी वृद्धा की सेवा करुंगी–ऐसा विचारकर जनाबाई वृद्धा का नाम-पता मालूम करने के लिए उसे ढूंढने लगी पर उसे निराशा ही हाथ लगी।

जनाबाई कपड़े लेकर नामदेवजी के घर पहुंची। पर उसका मन वृद्धा के लिए बहुत व्याकुल था, वृद्धा ने जाते-जाते न मालूम क्या जादू कर दिया, जनाबाई कुछ समझ न सकी। जनाबाई ने गद्गद् कण्ठ से सारा प्रसंग नामदेवजी को सुना दिया। भगवद्भक्त नामदेवजी लीलामय की लीला समझ गए और प्रेम में मग्न होकर बोले–’जना! तू बड़भागिनी है, भगवान ने तुझ पर बड़ा अनुग्रह किया। वह कोई मामूली वृद्धा नहीं थी, वह तो साक्षात् नारायण थे जो तेरे प्रेमवश तेरे बिना बुलाए ही तेरे काम में हाथ बंटाने आए थे। यह सुनकर जनाबाई रोने लगी और भगवान को कष्ट देने के कारण अपने को कोसने लगी।

भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।

स्वयं भगवान मूर्तिमान होकर जनाबाई का हाथ बंटाते थे

इस प्रसंग के बाद भगवान के प्रति जनाबाई का प्रेम बहुत बढ़ गया। भगवान समय-समय पर उसे दर्शन देने लगे। जनाबाई चक्की पीसते समय भगवान के ‘अभंग’ गाया करती थी, गाते-गाते जब वह अपनी सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं चक्की पीसते और जनाबाई के अभंग सुनकर प्रसन्न होते। जनाबाई की काव्य-भाषा सर्वसामान्य लोगों के हृदय को छू लेती है। महाराष्ट्र के गांव-गांव में स्त्रियां चक्की पीसते हुए, ओखली में धान कूटते हुए उन्हीं की रचनाएं गाती हैं।

महाराष्ट्र में कवियों ने लिखा है–जना संगे दलिले’ अर्थात् ‘जना के संग भगवान चक्की पीसते थे’।

भगवान विट्ठलनाथ के दरबार में जनाबाई का क्या स्थान है, यह इससे सिद्ध होता है कि नदी से पानी लाते समय, चक्की से आटा पीसते समय, घर की झाड़ू लगाते समय, और कपड़े धोते समय भगवान स्वयं जनाबाई का हाथ बंटाते थे।

अपने भक्त और अनन्यचिन्तक के योगक्षेम का वहन वह दयामय स्वयं करता है। किसी दूसरे पर वह इसे छोड़ कैसे सकता है। जिसे एक बार भी वह अपना लेते हैं, जिसकी बांह पकड़ लेते हैं, उसे एक क्षण के लिए भी छोड़ते नहीं। भगवान ऊंच-नीच नहीं देखते, जहां भक्ति देखते हैं, वहीं ठहर जाते हैं–

‘जाहाँ जाहाँ नाम ताहाँ ताहाँ कृष्ण स्फुरे।’

जहां कहीं भी कृष्ण नाम का उच्चारण होता है वहां वहां स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं। नाम के साथ स्वयं श्रीहरि सदा रहते हैं।

रैदास के साथ वे चमड़ा रंगा करते थे, कबीर से छिपकर उनके वस्त्र बुन दिया करते थे, धर्मा के घर पानी भरते थे, एकनाथजी के यहां श्रीखंडमा बन-कर चौका-बर्तन करते थे, ज्ञानदेव की दीवार खींचते थे, नरहरि सुनार के साथ सुनारी करते थे और जनाबाई के साथ गोबर बटोरते थे।

जप-कीर्तन के माध्यम से मनुष्य क्या कुछ बन सकता है, परमात्मा के सेवास्वरूप का बखान करते हुए तुलसीदासजी (राचमा १।१४४।७) कहते हैं–‘ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु गहई।’

भगवान के दरबार में जनाबाई का उच्च स्थान

एक दिन भगवान के गले का रत्न-पदक (आभूषण) चोरी हो गया। मन्दिर के पुजारियों को जनाबाई पर संदेह हुआ क्योंकि मन्दिर में सबसे अधिक आना-जाना जनाबाई का लगा रहता था। जनाबाई ने भगवान की शपथ लेकर पुजारियों को विश्वास दिलाया कि आभूषण मैंने नहीं लिया है, पर किसी ने इन पर विश्वास नहीं किया। लोग उसे सूली पर चढ़ाने के लिए चन्द्रभागा नदी के तट पर ले गए। जनाबाई विकल होकर ‘विट्ठल-विट्ठल’ पुकारने लगी। देखते-ही-देखते सूली पिघल कर पानी हो गयी। तब लोगों ने जाना कि भगवान के दरबार में जनाबाई का कितना उच्च स्थान है। यह है भगवान का प्रेमानुबन्ध।

जिस क्षण मनुष्य भगवान का पूर्ण आश्रय ले लेता है, उसी क्षण परमेश्वर उसकी रक्षा का भार अपने ऊपर ले लेते है। भगवान का कथन है–‘अपने भक्तों का एकमात्र आश्रय मैं ही हूँ। इसलिए अपने साधुस्वभाव भक्तों को छोड़कर मैं न तो अपने-आपको चाहता हूँ और न अपनी अर्धांगिनी विनाशरहित लक्ष्मी को।’

‘हौं भक्तन को भक्त हमारे’ भगवान की यह प्रतिज्ञा है। पूर्ण शरणागति और अखण्ड प्रेम से सब कुछ सम्भव है। संसारी मनुष्यों के लिए यह असम्भव लगता है परन्तु भक्तों के लिए बहुत साधारण सी बात है।

जनाबाई के उपले बोले ‘विट्ठल-विट्ठल’

एक बार कबीरदासजी जनाबाई का दर्शन करने पंढरपुर गए। उन्होंने वहां देखा कि दो स्त्रियां गोबर के उपलों के लिए लड़ रहीं थीं। कबीरदासजी वहीं खड़े हो गए और वह दृश्य देखने लगे। फिर उन्होंने एक महिला से पूछा–’आप कौन हैं?’ उसने कहा–’मेरा नाम जनाबाई है।’ कबीरदासजी को बड़ा आश्चर्य हुआ। हम तो परम भक्त जनाबाई का नाम सुनकर उनका दर्शन करने आए हैं और ये गोबर से बने उपलों के लिए झगड़ रही हैं। उन्होंने जनाबाई से पूछा–’आपको अपने उपलों की कोई पहचान है।’ जनाबाई ने उत्तर दिया–’जिन उपलों से ‘विट्ठल-विट्ठल’ की ध्वनि निकलती हो, वे हमारे हैं।’

कबीरदासजी ने उन उपलों को अपने कान के पास ले जाकर देखा तो उन्हें वह ध्वनि सुनाई पड़ी। यह देखकर कबीरदासजी आश्चर्यचकित रह गए और जनाबाई की भक्ति के कायल हो गए।

नामदेवजी के साथ जनाबाई का कुछ पारलौकिक सम्बन्ध था। संवत १४०७ में नामदेवजी ने समाधि ली, उसी दिन उनके पीछे-पीछे कीर्तन करती हुई जनाबाई भी विठ्ठल भगवान में विलीन हो गईं।

भक्त भक्ति भगवंत गुरु चतुर नाम वपु एक।
इन के पद बंदन किएँ नासत विघ्न अनेक।।

1 COMMENT

  1. Radhey Radhey..🙏🙏
    Bhaut uttam katha..jana bai jaisi hi bhakt Thakurji pradaan kar de…har sans sams mey simru tero naam…🙏🙏🌷
    Radhey Radhey…🙏🙏

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