आदिनाथो गुरुर्यस्य गोरक्षस्य च यो गुरु:।
मत्स्येन्द्रं तमहं वन्दे महासिद्धं जगद्गुरुम्।। (योगमौक्तिकविचारसागर)
गुरु गोरक्षनाथ (गोरखनाथ) कौन हैं?
महायोगी गुरु गोरखनाथ या गोरक्षनाथ ‘शिवावतार’ कहे जाते हैं। ‘महाकालयोगशास्त्रकल्पद्रुम’ में देवताओं ने भगवान शंकर से पूछा कि गोरक्षनाथ कौन हैं? तब भगवान शंकर ने कहा–
अहमेवास्मि गोरक्षो मद्रूपं तन्निबोधत।
योगमार्गप्रचाराय मया रूपमिदं धृतम्।।
आदिनाथ शिव और गोरक्षनाथ तत्त्वत: एक ही हैं। भारतीय संस्कृति में भगवान शिव ही सभी प्रकार के ज्ञान के आदिस्तोत्र माने जाते हैं। ये ही शिव योगमार्ग के प्रचार के लिए ‘गोरक्ष’ के रूप में अवतरित होते हैं। भगवान शिव ने गोरक्षरूप में अवतरित होकर योगशास्त्र की रक्षा की और उसी योगशास्त्र को योगाचार्यों ने यम-नियम आदि योग के अंगों के रूप में बताया है।
‘गोरक्ष’ शब्द के दो अर्थ हैं–इन्द्रिय-रक्षक और गो-रक्षक। गोरखनाथजी का अपनी इन्द्रियों पर पूर्ण नियन्त्रण था, साथ ही वे गो-रक्षक और गो-सेवक के रूप में जाने जाते हैं। नाथमठों और मन्दिरों में गौ के लिए नियमित ग्रास निकालकर आदर के साथ ग्रहण कराया जाता है। नाथयोगी संत गायों को माता के समान सम्मान देते हैं। गुरु गोरक्षनाथजी की तप:स्थली गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में भी देशी गायों के वंश के संवर्धन और संरक्षण की परम्परा है।
योगिराज गोरखनाथजी का अयोनिज शिवगोरक्ष के रूप में अवतरण
महासिद्ध हठयोगी गुरु गोरखनाथजी के जन्म, माता-पिता आदि के सम्बन्ध में अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं। एक बार गुरु मत्स्येन्द्रनाथ भिक्षा मांगने के लिए अयोध्या के पास जयश्री नगर में एक ब्राह्मण के घर पहुंचे। भिक्षा देती हुई ब्राह्मणी के मुख पर उदासी देखकर उन्होंने इसका कारण पूछा। ब्राह्मणी ने बताया कि नि:संतान होने से उसे संसार फीका जान पड़ता है। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने झोली से भभूत निकालकर ब्राह्मणी को देते हुए कहा–’इसे खा लो, तुम्हें पुत्र प्राप्त होगा।’ ब्राह्मणी की पड़ोसन को जब यह बात पता चली को उसने ब्राह्मणी को कई तरह के डर दिखाकर भभूत खाने से मना कर दिया। ब्राह्मणी ने भभूत गड्डे में फेंक दी।
बारह वर्ष बाद गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ने पुन: उस घर के द्वार पर आकर ‘अलख’ जगाया। ब्राह्मणी के बाहर आने पर उन्होंने कहा कि अब तो तेरा बेटा बारह वर्ष का हो गया होगा, देखूं तो, वह कहां है? ब्राह्मणी ने घबराकर उन्हें सारी बात बता दी। गुरु मत्स्येन्द्रनाथ ब्राह्मणी को साथ लेकर उस गड्डे के पास गए जहां उन्होंने ‘अलख’ शब्द का उच्चारण किया था। उसे सुनते ही बारह वर्ष का एक तेजस्वी बालक वहां प्रकट हो गया और गुरु मत्स्येन्द्रनाथ के चरणों में बैठ गया। मत्स्येन्द्रनाथ ने बालक को अपने साथ रखा और योग की पूरी शिक्षा दी। यही बालक आगे चलकर गुरु गोरक्षनाथ कहलाया। योगसाधना और वैराग्य में वे अपने गुरु से भी आगे बढ़ गये और योगबल से उन्होंने चिरंजीव स्थिति को प्राप्त किया। सत्य है कि उनकी उत्पत्ति किसी गर्भ से नहीं हुई थी। वे अयोनिज शिवगोरक्ष के रुप में स्वयं अवतरित हुए थे।
गुरु गोरखनाथजी चारों युगों में विद्यमान
महायोगी गोरखनाथजी मनुष्यों को योग का अमृत प्रदान करने के लिए चारों युगों में विद्यमान हैं। सत्ययुग में वे पंजाब में प्रकट हुए। त्रेतायुग में वे गोरखपुर में, द्वापर में द्वारका (हरभुज) में और कलियुग में उनका प्राकट्य काठियावाड़ के गोरखमढ़ी में हुआ था। ऐसी मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अश्वमेधयज्ञ के समय गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में गुरु गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया था। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए बुलाया था। ऐसा कहा जाता है कि गोरखनाथजी ने श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी का कंगन-बंधन सिद्ध किया था। वे श्रीराम, हनुमान, युधिष्ठिर, भीम आदि के पूज्य थे।
मां ज्वालादेवी ने स्वयं गुरु गोरखनाथ को आतिथ्य-ग्रहण करने का अनुरोध किया
गुरु गोरखनाथ श्रीविद्या के परम आचार्य और भगवती पराम्बा के परम भक्त और कृपापात्र थे। मां पराम्बा की कृपा से उन्हें दुर्लभ सिद्धियां प्राप्त थीं। नाथ-सम्प्रदाय के योगियों में एक लोककथा प्रचलित है। एक बार महायोगी गोरखनाथ हिमालय के अनेक तीर्थों में घूमते हुए कांगड़ा में ज्वालादेवी पहुंचे। उनके स्वागत के लिए ज्वालामुखी पर्वत में ज्वालादेवी प्रकट हो गयीं और उन्होंने गोरखनाथजी से अपने स्थान पर आतिथ्य-ग्रहण करने का अनुरोध किया। वे उन्हें अपने हाथ से भिक्षा कराना चाहती थीं। गोरखनाथजी ने बड़ी विनम्रता से मां से कहा–’मां! आप करुणामयी, कृपामयी और अन्नपूर्णा हैं। सभी प्राणी आपकी कृपा और प्रसाद से ही तृप्त होते हैं, परन्तु आप मुझे क्षमा करें। आपकी इच्छा के विरुद्ध अज्ञानी लोग इस स्थान पर तामसिक पदार्थों की बलि आपको अर्पित करते हैं। फिर भी आप उन्हें क्षमा कर देती हैं। यह आपकी कृपालुता ही है। मेरे लिए यहां आहार-ग्रहण करना संभव नहीं है।’
मां ज्वाला ने कहा–’गोरखनाथ! मैं तुम्हारी रुचि के अनुसार वही सात्विक पदार्थ जो तुम चाहते हो, स्वयं अपने हाथ से बनाकर खिलाऊंगी। तुम्हें मेरा निमन्त्रण स्वीकार करना होगा।’ गोरखनाथजी ने मां का निमन्त्रण स्वीकार कर कहा–’मैं खिचड़ी के लिए चावल की भिक्षा मांगने जा रहा हूँ।’ उन्होंने अपनी झोली में से एक चुटकी भभूत निकालकर उसे खौलते हुए जल पर डाल दिया। वह जल तुरन्त ठण्डा हो गया। वह जल आज भी ठण्डा ही है, पर उबलता प्रतीत होता है। मां ज्वाला की आज्ञा लेकर गोरखनाथजी चावल की भिक्षा के लिए चल दिए और भ्रमण करते हुए गोरखपुर पहुंच गए। यहां पर एक सुन्दर एकान्त स्थान पर तप में लीन हो गए।
महातेजस्वी, अलौकिक, हठयोगी, कवि तथा संस्कृत के विद्वान गुरु गोरखनाथ
मध्यकाल में भारतीय साधना के क्षेत्र में वाममार्गी प्रवृत्तियों के प्रवेश करने से मद्य, मांस, मैथुन आदि साधना के अंग बन गए थे। इन विकृतियों से साधकों को मुक्त करते हुए गोरक्षनाथजी ने नाथयोग को नयी शक्ति प्रदान की। गुरु गोरखनाथ ने श्रीमत्स्येन्द्रनाथ से योग की दीक्षा ग्रहणकर ‘नाथयोग’ का विस्तार किया। परमेश्वर परमशिव ही नाथदेवता के रूप में उपास्य हैं।
शिवरूप गुरु गोरखनाथ देश और काल की सीमा से परे हैं। साधना के क्षेत्र में उनका व्यक्तित्व महिमामय, अलौकिक, महातेजस्वी एवं लोककल्याणकारी माना जाता है। गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य और सिद्धयोगी हैं। उनका जीवन कठोर साधना, अप्रतिम संयम और तपस्या से दीप्तिमान था। योगसाधना के बल पर उन्होंने परब्रह्म का साक्षात्कार किया और शिवरूप हो गए।
वे केवल योगी ही नहीं वरन् कवि भी थे। हिन्दी में उनकी बहुत-सी कविताएं मिलती हैं। गोरक्षकल्प, गोरक्षसंहिता, गोरक्षसहस्त्रनाम, गोरक्षशतक, गोरक्षपिष्टिका, गोरक्षगीता, सिद्धसिद्धान्तपद्धति, दत्तगोरक्षगोष्ठी तथा विवेकमार्तण्ड आदि उनके संस्कृत भाषा के ग्रन्थ हैं। गुरु गोरखनाथ ने अनेक राजा-महाराजाओं को योगदीक्षा देकर परमपद की प्राप्ति का मार्ग दिखाया।
नेपाली ‘गोरखा’ क्यों कहलाते हैं?
नेपाल के काठमाण्डू की मृगस्थली गोरक्षनाथजी की तपोभूमि बतलायी जाती है। मृगस्थली के पास का क्षेत्र ‘गोशाला’ नाम से जाना जाता है। नेपाल में गुरु गोरखनाथजी को श्रीपशुपतिनाथजी का अवतार माना जाता है।नेपाल में पूरे राष्ट्र के गुरुपद पर वे सम्मानित व पूजित हैं। नेपाल की स्वर्णमुद्रा तथा रजतमुद्रा पर, जिसको मुहर भी कहते है, गुरु गोरखनाथजी का पावन नाम अंकित रहता है। गोरखनाथजी के शिष्य होने के कारण ही नेपाली ‘गोरखा’ कहलाते हैं।
महायोगी गुरु गोरखनाथजी की वाणी
गोरखनाथजी की योगदृष्टि में ‘नाथ’ शिवस्वरूप हैं। मनुष्य जीवन की प्राप्ति बार-बार नहीं होती। अत: सिद्ध पुरुष के शरणागत होकर निरंजन-तत्त्व (परमात्मा शिव) का साक्षात्कार कर लेना चाहिए। गुरु गोरखनाथजी ने ‘जैसा करै सो तैसा पाय, झूठ बोले सो महा पापी।’ के द्वारा कार्य की शुद्धता के महत्त्व और झूठ को महापाप बताया है।
ग्यान सरीखा गुरु न मिलिया, चित्त सरीखा चेला।
मन सरीखा मेलू न मिलिया, तीर्थे गोरख फिरै अकेला।।
उनका कहना है कि ज्ञान ही सबसे बड़ा गुरु है। चित्त ही सबसे बड़ा चेला है। ज्ञान और चित्त का योग सिद्ध कर जीव को जगत में अकेला रहना चाहिए। उन्होंने ब्रह्मचर्य पर अत्यधिक बल दिया। उन्होंने मनुष्यों को संयमित जीवन और शीलयुक्त आचरण करने का आदेश दिया। गोरखनाथजी की वाणी है–
‘जो इस शरीर में सुख है, वही स्वर्ग है। जो दु:ख है वही नरक है। वही अशुभ कर्मों की नारकीय यातना है। सकाम कर्म ही बंधन है और संकल्परहित हो जाने पर ही मुक्ति सहज सिद्ध हो जाती है।’
हबकि न बोलिबा ठबकि न चलिबा धीरे धरिबा पावं।
गरब न करिबा सहजै रहिबा भणत गोरष रावं।।
अचानक हबककर नहीं बोलना चाहिए, पांव पटकते हुए नहीं चलना चाहिए। धीरे-धीरे पैर रखना चाहिए। गर्व नहीं करना चाहिए। मन में अन्तर्मुखी वृत्ति से रहना चाहिए। मीठी वाणी बोलें। साधना का भेद किसी से नहीं कहना चाहिए–’मन मैं रहिणां, भेद न कहिणां, बोलिवा अमृत बाणीं।’
यह संसार कांटों की बाड़ी है, यहां देख-देखकर पैर रखना चाहिए। वाद-विवाद के कांटों में पड़ने से साधना भ्रष्ट हो जाती है। न तो खाने पर टूट पड़ना चाहिए और न भूखा रहना चाहिए। ब्रह्मरूप अग्नि में संयमरूप आहुति देनी चाहिए। जो अजपा का जाप करता है, शून्य (ब्रह्मरन्ध्र) में मन को लीन किए रहता है, पांचों इन्द्रियों को अपने वश में रखता है, ब्रह्म अनुभूतिरूपी अग्नि में अपनी काया की आहुति कर डालता है, योगीश्वर महादेव भी उसकी चरण वंदना करते हैं।
शिवावतारी गुरु गोरखनाथजी ने कथनी-करनी की एकता, कनक-कामिनी के भोग का त्याग, वाक्-संयम, अंत-बाह्य शुद्धि, संग्रह प्रवृत्ति की उपेक्षा, क्षमा, दया और दान आदि का उपदेश दिया।
गुरु गोरखनाथजी महासिद्ध हैं और अजर-अमर हैं। कबीरदासजी ने गोरखनाथजी की अमरता का वर्णन करते हुए कहा है–
‘सांषी गोरखनाथ ज्यूँ अमर भये कलि मांहिं।’