raas lila

नृत्यत लाल गोपाल रास में सकल व्रजवधू संगे।
गिड गिड तक थुंग ततथेइ ततथेइ भामिन रति रस रंगे।।
शरद विमान नभ उडुपति राजत गावत तान तरंग।
ताल मृदंग झांझ ओर झालरि बाजत सरस सुधग।।
शिव विरंचि मोहे सुरनर मुनि रतिपति गति मति भंगे।
गोविंद प्रभु रस राज रसिक मनि भामिनी लेत उछंग।।

रासलीला का वर्णन श्रीमद्भागवत में दशम स्कन्ध के अध्याय २९ से ३३ तक में है। ये पांच अध्याय ’श्रीरासपंचाध्यायी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। ये श्रीमद्भागवतरूपी शरीर के ‘पांच प्राण’ या ‘हृदय’ माने जाते हैं। पंच प्राणों का ईश्वर के साथ रमण ही ‘रास’ है। इस रासलीला के श्रोता हैं–धर्म-ज्ञान, विवेक, वैराग्य से पूर्ण व मरण की प्रतीक्षा करने वाले राजा परीक्षित और वक्ता हैं–ब्रह्मनिष्ठ परम योगी जीवन्मुक्त श्रीशुकदेवजी। इसलिए यह लौकिक श्रृंगारलीला नहीं वरन् भगवान श्रीकृष्ण की अपनी ह्लादिनी शक्ति श्रीराधा और उनकी  अन्तरंग शक्तियां कायव्यूहरूपा गोपांगनाओं के साथ होने वाली परम दिव्य रसमयी लीला का वर्णन है। भगवान श्रीकृष्ण ने शरद् पूर्णिमा की धवल रात्रि में व्रजगोपियों के संग रासलीला की थी और अपनी योगमाया से इस रात्रि को छ: माह के बराबर कर दिया था अर्थात् यह रासलीला लौकिक सृष्टि के स्तर से ऊपर थी। इस लीला में जीव और ईश्वर का मिलन वर्णित है।

थीं वे विकसित शारदीय मल्लिका-सुमन शोभित रजनी।
देख उन्हें कर प्रकट ‘योगमाया’–’अचिन्त्य निज शक्ति’ धनी।।
षडैश्वर्य भगवान पूर्ण ने किया तुरत संकल्प महान।
रमण–’रसास्वादन, स्वरूप वितरण’ का, कर सबको रस दान।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

रास क्या है?

रास क्या है? यह है श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के स्वरूपानन्द का वितरण। ‘रास’ शब्द का मूल ‘रस’ है। ‘रस’ स्वयं भगवान श्रीकृष्ण हैं। परन्तु बिना योगमाया के रास नहीं हो सकता क्योंकि रस को अनेक बनाकर ही रास हो सकता है। रस के समूह को रास कहते हैं।

जिस दिव्य लीला में एक ही रस अनेक रसों के रूप में प्रकट होकर अनन्त-अनन्त रस का वितरण करे, उसी का नाम ‘रास’ है। रास चिदानन्दमय भगवान के स्व-स्वरूप-वितरण की मधुर लीला है, जिसके भोक्ता-भोग्य दोनों स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ही होते हैं।

आस्वादक आस्वाद्य न दो थे, था मधुमय लीला-संचार।
था यह एक विलक्षण पावन परम प्रेमरस का विस्तार।।
मधुर परम इस रस-सागर में गोपीजन का ही अधिकार।
परम त्याग का मूर्त रूप लख जिन्हें किया हरि ने स्वीकार।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

गोपियां कौन थीं?

जब ऋषि मुनि हजारों वर्षों तक तपस्या और ब्रह्म चिंतन करते रहने पर भी मन में बसे काम को न मार सके तो उस काम को भी ‘श्रीकृष्णार्पण’ करने की इच्छा से गोपियां का अवतार लेकर गोकुल में आ बसे। इनमें साधन सिद्धा, ऋषि रूपा, श्रुति रूपा, स्वयं सिद्धा, अन्य पूर्वा, अनन्य पूर्वा आदि कई प्रकार की गोपियां थीं। सांसारिक भोगों का उपभोग करने के पहले ही जिसे वैराग्य आ जाता है, वह अनन्यपूर्वा गोपी है। संसार के सभी सुखों का मन से त्याग करके ईश्वर से मिलने के लिए गोपी की भांति निकल पड़ने वाले को ही ईश्वर का सांनिध्य प्राप्त होता है। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण भी गोपियों का स्वागत कर उन्हें ‘महाभागा’ कहते हैं–‘स्वागतं वो महाभागा:’।

‘श्रीकृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’–भगवान श्रीकृष्ण साक्षात् भगवान हैं, पूर्ण परब्रह्म के अवतार हैं और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप हैं। भगवान के समान गोपियां भी सच्चिदानन्दमयी हैं। उनके हृदय में श्रीकृष्ण को तृप्त करने वाला प्रेमामृत है। ब्रह्मा, शंकर, उद्धव और अर्जुन–जिन्होंने गोपियों को पहिचाना है, उन्होंने गोपियों की चरणधूलि प्राप्त करने की अभिलाषा की व गोपियों की उपासना करके भगवान के चरणों में प्रेम का वरदान प्राप्त किया। देव, गन्धर्व, किन्नर तथा नारद आदि ने भी आकाश से एवं महादेवजी ने स्वयं गोपी बनकर गोपीश्वर महादेव के रूप में वंशीवट पर वृन्दावन में रासलीला में प्रवेशकर महारास को अपने तीनों नेत्रों से निहारा है। आज भी श्रीगोपीश्वर महादेव के रूप में निहार रहे हैं।

विभिन्न विद्वानों ने श्रीकृष्ण को वेद-पुरुष एवं व्रजगोपियों को उनकी ऋचाओं के रूप में स्वीकारते हुए रासलीला को वेद के विस्ताररूप में देखा है।

रासलीला का आध्यात्मिक रहस्य

माया के आवरण से रहित शुद्ध जीव का ब्रह्म के साथ विलास ही ‘रास’ है। गोपियों के वासना और अज्ञान के आवरण को हटाने के लिए श्रीकृष्ण ने महारास से पूर्व ‘चीरहरण’ लीला की थी। चीरहरण लीला द्वारा श्रीकृष्ण ने गोपियों के वासना और अज्ञान रूपी वस्त्रों के आवरण को हटा दिया और शुद्ध-बुद्ध गोपियों के साथ महारास किया। पति के वियोग में छटपटाती पत्नी की भांति जब जीव ईश्वर के वियोग में छटपटाता है, तभी जीव को ईश्वर मिलते हैं।

भगवान श्रीकृष्ण ने व्रज में जो वेणुवादन किया तो उसकी ध्वनि दिव्य लोकों में पहुंचकर वहां के देवताओं को भी स्तम्भित कर देती है किन्तु रासलीला की बांसुरी तो ईश्वर से मिलनातुर अधिकारी जीव गोपी को ही सुनाई देती है। वंशी-ध्वनि क्या थी? यह भगवान का आह्वान था। जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे, वही गोपी है। ‘स्त्रीत्व’ तथा ‘पुरुषत्व’ की विस्मृति होने के बाद ही गोपीभाव जागता है। शुद्ध गोपीभाव जागने के बाद ही रास की वंशी का स्वर कानों में सुनाई देने लगता है। इसी कारण वेणुनाद एवं रास की अधिकारिणी गोपियाँ ही हुईं। गोपियों ने अपना मन श्रीकृष्ण में मिला दिया था। अत: भगवान श्रीकृष्ण की योगमाया ने रासलीला के लिए गोपियों के दिव्य मन, दिव्य स्थल की सृष्टि की।

अगर रासलीला लौकिक श्रृंगारलीला होती को गोपियां सज-धज कर जातीं परन्तु यहां तो भगवान का आह्वान सुनकर उन्हें जगत भूल गया। उन्होंने उल्टे-सीधे वस्त्र पहन लिए। उनका विचित्र श्रृंगार हो गया। गोविन्द ने उनके मन को हर लिया था।

भगवान हैं बड़े लीलामय। उन्हीं की इच्छा से, उन्हीं की वंशी के प्रेमाह्वान पर देह का भान भूली गोपियां जब भगवान के पास पहुंचती हैं तो उन्होंने ऐसी भाव-भंगिमा प्रकट की मानो उन्हें गोपियों के आने का कुछ पता ही न हो और वे उनसे पूछते हैं–’गोपियो! व्रज में कोई विपत्ति तो नहीं आई, घोर रात्रि में यहां आने का कारण क्या है? मेरे पास क्यों आयी हो? पतिसेवा और संतानसेवा करो, वहीं तुम्हें सुख मिलेगा। मैं सुख नहीं केवल आनन्द ही दे सकता हूँ।’ भगवान जीव को संसार में लौटाते हैं, प्रलोभन देते हैं, मायाजाल में फंसाते हैं।

रास-शिरोमणि श्रीकृष्ण गोपियों को स्त्री धर्म समझाते हैं। गोपियां जानतीं थीं कि श्रीकृष्ण योगेश्वर, अन्तर्यामी, पूर्णब्रह्म हैं। गोपियां उसका उत्तर देती हैं–’आप ही हमारे सच्चे पति हैं। जब हमें साक्षात् परमात्मा मिल गए तो लौकिक पति से क्या लेना-देना? अब हमारे लिए स्त्री-धर्म पालन करने की आवश्यकता ही नहीं है।’

गोपियां आगे कहती हैं–’हे गोविन्द! हमारे पांव आपके चरण-कमलों को छोड़कर एक पग भी पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, हम व्रज को लौटें तो कैसे? हमारा मन आपमें ही रमा हुआ है। हम आपके स्वरूप में तदाकार होना चाहती हैं।’  

गोपियों ने अपने हृदय में जिस विशुद्ध प्रेमामृत को भर रखा था, उस प्रेमामृत की चाह पूर्णकाम भगवान को हो गई। भगवान श्रीकृष्ण ने देखा कि गोपियों का प्रेम सच्चा है, ये शुद्ध भाव से मुझसे मिलने आईं हैं, अत: उन्होंने उन्हें अपना लिया।

गोपियों ने भगवान को प्रेमामृत दिया। गोपियों ने भगवान को सुखी देखा तो उनको परम सुख हुआ और भगवान ने गोपियों को सुखी देखा तो भगवान को परम सुख हुआ। ‘एक-दूसरे को सुखी बनाकर सुखी होना’–इसी का नाम ‘रास’ है। यह रासलीला त्याग की पराकाष्ठा का रूप बताने वाली है।

श्रीकृष्ण ने एक साथ अनेक रूप धारण किए। जितनी गोपियां थीं, उतने स्वरूप बना लिए और प्रत्येक गोपी के साथ एक-एक स्वरूप रखकर रासलीला आरम्भ की। हजारों जन्मों की तपस्या के फलस्वरूप विरही जीव आज ईश्वरमय हो गया। गोपियां श्रीकृष्णमय और भगवन्मय हो गयीं। सभी हाथों से हाथ मिलाकर नाचने लगे। रास में साहित्य, संगीत और कला (नृत्य) का समन्वय हुआ है।

गिडगिड तां तां तां धितां धितां मंदिलरा बाजे।
तांधि लांधि लांधि लांधि धिधिकट धिधिकट थनननन थुं गिड गिडथुं गिड गिडथुं घन प्रचंड गाजे।।
थुंग थुंग थुंग थुंग थरथर तनननननन थेई थेई शब्द उघटत नटवर नट राजे।
कृष्णदास प्रभु गिरधर प्यारी संग नृत्य करें अंग अंग कोटि सुलक्षण मन्मथ मन लाजे।।

गोपियां आनन्दातिरेक में नाच रहीं थीं। उन्हें देखकर श्रीकृष्ण ने भी ताल का अनुसरण करते हुए नाचना शुरु कर दिया–

ब्रज वनिता मध्य रसिक राधिका बनी शरद की राति हो।
नृत्यत तत थेइ गिरिधर नागर गौर श्याम अंग कांति हो।।
एक एक गोपी बिचबिच माधो बनी अनूपम भांति।
जय जय शब्द उचारत सुर मुनि कुसुमन बरख अघाती।।
निरख थक्यो शशि आयो शीश पर क्यों हू न होत प्रभात।
परमानन्द मिले यह अवसर बनी है आज की बात।।

ब्रह्म से जीव का मिलन हुआ। जैसे नन्हा-सा शिशु निर्विकार-भाव से अपनी परछाई के साथ खेलता है, वैसे ही रमारमण भगवान श्रीकृष्ण ने व्रजसुन्दरियों के साथ विहार किया। न कोई जड शरीर था और न प्राकृत अंग-संग। भगवान श्रीकृष्ण की इस चिदानन्द रसमयी दिव्य क्रीडा का नाम ही रास है।

ब्रह्माजी, देवर्षि नारद एवं रासलीला

महारास देखते हुए ब्रह्माजी संशकित हुए कि इस प्रकार परायी नारियों से लीला करना शास्त्र-मर्यादा का उल्लंघन है। भगवान श्रीकृष्ण ने एक और लीला रची–श्रीकृष्ण ने सभी गोपियों को अपना स्वरूप दे दिया। अब तो सब जगह कृष्ण-ही-कृष्ण दिखायी दे रहे थे। गोपियां थीं ही नहीं। सभी पीताम्बरधारी कृष्ण हैं और एक-दूसरे से रास खेल रहे हैं। अब श्रीकृष्ण के साथ श्रीकृष्ण की क्रीड़ा हो रही है। शुद्ध जीव अब ब्रह्म बन गया है। ब्रह्म का ब्रह्म के साथ विलास करने का नाम रास है।

ब्रह्माजी ने मान लिया कि यह स्त्री-पुरुष का मिलन नहीं है; यह तो अंश और अंशी का मिलन है। श्रीकृष्ण गोपीरूप हो गए हैं और गोपियां श्रीकृष्णमय हो गयीं। कृष्णरूप (ब्रह्मरूप) हो जाने के बाद गोपी (जीव) का अस्तित्व कहां रहा?

महारास के समय नारदजी वहां आए और अंदर जाने लगे तो सखियों ने उन्हें रोक दिया। नारदजी सोचने लगे कि यदि मैं ब्रह्मा का पुत्र न होकर गोपी होता तो मुझे भी आज परमात्मा का आलिंगन प्राप्त होता। वे ‘राधे-राधे’ कहकर रोने लगे। श्रीराधा को उन पर दया आ गई और उन्हें महारास में प्रवेश की आज्ञा मिल गयी। नारदजी ने राधाकुण्ड में स्नान किया तो उनमें अलौकिक गोपीभाव जाग्रत हो गया और नई नारदी गोपी बनकर परमात्मा श्रीकृष्ण की अलौकिक लीला के साक्षी बने।

रासलीला : काम-विजय लीला या मदन मान-भंग लीला

भगवान श्रीकृष्ण ने जिस प्रकार ब्रह्माजी का गर्व ‘गो-वत्स हरण लीला’ करके, अग्नि का गर्व ‘दावानल-पान लीला’ करके और इन्द्र का गर्व ‘गोवर्धन-धारण लीला’ करके नष्ट किया, उसी प्रकार उन्होंने रासलीला करके कामदेव का गर्व नष्ट किया। यह रासलीला काम के पराभव के लिए हुई है।  कामदेव ने जब सब देवताओं को वश में कर लिया तब उसको अभिमान हो गया और उसने भगवान को भी पराजित करने का विचार किया। कामदेव ने भगवान से कहा–’मेरी इच्छा है कि शरद् ऋतु की पूर्णिमा हो, मध्य रात्रि का समय हो उस समय आप स्त्रियों के साथ क्रीडा कीजिए। मैं आकाश में रहकर बाण मारूँ। यदि आपके मन में विकार पैदा हो, तो मैं ईश्वर होऊंगा।’ भगवान तो कन्दर्प-दर्पदलन हैं। श्रीकृष्ण विहार तो गोपियों के साथ कर रहे थे परन्तु उनका मन निर्विकार था। अनेक प्रयत्न करने पर भी कामदेव भगवान श्रीकृष्ण को अपने अधीन न कर सका। भगवान ने मदन का पराभव किया अत: ‘मदनमोहन’ कहलाए। भगवान लौकिक काम को अलौकिक काम से मारते हैं।

रासलीला : कुछ महत्वपूर्ण तथ्य

रासलीला में ब्रह्म ही ऋषियों से, गोपियों से, आह्लादिनी शक्ति से एवं जीवधारियों से मिल रहा है। इस प्रकार रासलीला में

(१) गोपी के शरीर से कुछ लेना-देना नहीं है।
(२) लौकिक काम का अंश भी नहीं है।
(३) रासलीला में किसी स्त्री को प्रवेश नहीं मिला है। उसमें तो शुद्ध जीव ही जा सकता है।
(४) यह जीव और ब्रह्म का मिलन है।
(५) रासलीला एक आनन्द प्रधान लीला है।

रासलीला पठन व श्रवण का महत्व

श्रीशुकदेवजी ने इस रासलीला के श्रवण का अपूर्व फल बतलाया है–’हृद्रोग व काम का नाश और प्रेमाभक्ति की प्राप्ति।’ इस रासलीला का चिन्तन करने से काम वासना नष्ट होती है।

जो इस मधुर शुद्ध रस का किंचित् भी कर पाता आस्वाद।
दृश्य जगत् का मिटता सारा शोक-मोह-भय-लोभ-विषाद।।
होता कामरोग का उसके जीवन में सर्वथा अभाव।
राधा-माधव-चरण-रेणु-कण-करुणा से वह पाता ‘भाव’।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

मानव जीवन का अंतिम लक्ष्य है रासलीला। ईश्वर को प्राप्त किए बिना जीव को शान्ति नहीं मिल सकती। जीव ईश्वर के साथ एक हुआ नहीं कि मुक्त हो गया।

3 COMMENTS

  1. राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा ! सरसइ ब्रम्ह बिचार प्रचारा !! जय सियाराम

  2. * जो भुसुंडि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा॥
    देखहिं हम सो रूप भरि लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन॥
    भावार्थ:-जो काकभुशुण्डि के मन रूपी मान सरोवर में विहार करने वाला हंस है, सगुण और निर्गुण कहकर वेद जिसकी प्रशंसा करते हैं, हे शरणागत के दुःख मिटाने वाले प्रभो! ऐसी कृपा कीजिए कि हम उसी रूप को नेत्र भरकर देखें॥
    जय सियाराम

  3. नमस्कार शुक्लाजी! रामचरितमानस की चौपाइयों से अवगत कराने के लिए आपका धन्यवाद!

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