वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्।। (श्रीमद्भागवत १०।४७।६३)

अर्थात्–हम उन गोकुल की व्रजांगनाओं की चरणरेणु को बार-बार श्रद्धासहित सिर पर चढ़ाते हैं, जिनकी भगवत्सम्बन्धिनी कथाएं तीनों लोकों को पावन करने वाली हैं।

महाभागा गोपियां

समस्त व्रजवासी (गोप-गोपियां) भगवान श्रीकृष्ण के माया से मुक्त परिकर (सहचर, सेवक) हैं। वे भगवान की आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा की अध्यक्षता में भगवान श्रीकृष्ण की मधुरलीला में योग देने के लिए व्रज में प्रकट हुए हैं। गोपियां श्रीकृष्ण की परमानन्दिनी शक्तियां हैं। भगवान से भिन्न उनका कोई स्वरूप ही नहीं है। गोपी का अर्थ है–केवल श्रीकृष्ण की सुखेच्छा। इस प्रकार का जिसका जीवन है, वही गोपी है। श्रीकृष्ण को सुखी देखकर उन गोपियों को अपार सुख होता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों को महाभागा कहा है। श्रीकृष्ण के लिए उन्होंने अपनी सारी कामनाएं, निज-सुख छोड़ दिए हैं। वे सब जगह श्रीकृष्ण का ही अनुभव करती हैं। गोपियों के मन, प्राण–सब कृष्णमय हैं। इस लोक और परलोक में गोपियां श्रीकृष्ण के सिवा अन्य किसी को नहीं जानतीं। कृष्णमयी गोपियां अपना सर्वस्व भगवान में समर्पण करके केवल उन्हीं की स्मृतिरूपी धन को अपने पास रखती हैं। कृष्णानुरागिणी गोपियों के चित्त में निरन्तर भगवान खेल रहे हैं, इसीलिए वे धन्य हैं।

“भगवान के प्रति स्नेह, प्रीति, रति वह अंगार है जो मन के कामबीज को भून डालता है। जैसे भुने हुए बीज में अंकुर उत्पन्न नहीं होता, वैसे ही कृष्णासक्त मन में संसार की वासनाओं को अंकुरित होने का अवसर ही नहीं मिलता।”

नारदजी ने अपने भक्तिसूत्र में गोपियों को परमप्रेम का आदर्श बताया है। उद्धव जैसे ज्ञानी भी उनके अलौकिक-प्रेम को देखकर कह उठे–

‘आसामहो चरणरेणुजुषामहं स्यां
वृन्दावने किमपि गुल्मलतौषधीनाम्।’ (श्रीमद्भागवत १०।४७।६१)

‘मैं यदि वृन्दावन की कोई लता या गुल्म बन जाता तो कृतकृत्य हो जाता।’ क्यों? इसलिए कि ‘इन महाभाग्यवती गोपियों के पावन पादपद्मों की पराग उड़-उड़कर मेरे ऊपर पड़ती।’ भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा उद्धव की इच्छा का सम्मान करते हुए उन्हें गोवर्धन क्षेत्र में कुसुम सरोवर के बांये तट पर विराजमान कर दिया, जहां आज भी दिव्य-नेत्रज्योति प्राप्त भक्तों को उनके साक्षात् दर्शन प्राप्त हो जाते हैं। उद्धवजी को यह दुर्लभ पद गोपियों का शिष्यत्व ग्रहण करने के बाद ही मिला था।

वे गोपरमणियां धन्य हैं, जिनके सामने भगवान ने अपना पूर्ण प्रकाश किया–भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मैं सबके सामने प्रकाशित क्यों नहीं होता हूँ? लोग मुझे क्यों नहीं पहचानते हैं? क्योंकि मैं उनके सामने अपने को योगमाया से ढककर आता हूँ–’नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:’  (गीता ७।२५)। परन्तु गोपांगनाओं के सामने भगवान योगमाया से समावृत नहीं हैं। वहां भगवान ने अपनी योगमाया को पृथक् कर दिया और योगमाया से कहा कि तुम हमारी इस रासलीला का आयोजन करो। इसी योगमाया के प्रभाव से सात वर्ष के बालक श्रीकृष्ण रासमण्डल में क्रीडा करते हुए प्रतीत हुए। इसी योगमाया के बल से प्रत्येक गोपी ने गोपीनाथ को अपने साथ देखा। बालक जैसे दर्पण में अपने प्रतिबिम्ब के साथ खेलता है, उसी प्रकार योगमाया के द्वारा भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छायास्वरूपा गोपियों से विलास किया। यही हमारा और गोपियों का अन्तर है। हम भगवान को नहीं देख पाते और गोपियाँ नख-शिख दर्शन करती हैं क्योंकि वहां योगमाया का परदा नहीं है। जीव और भगवान के बीच माया ही यवनिका (परदा) है। जीव और परमात्मा के मिलन में माया का आवरण ही व्यवधान है।

धन्य हैं वे गोपियां, रास के समय भगवान श्रीकृष्ण ने अपने चरणारविन्दों को जिनके वक्ष:स्थल पर रखा। ऐसा महाभाग्य अन्य किसी का कहां? कहां ये वनचरी, आचार और ज्ञान से रहित गांव की गंवार ग्वालिनें और कहां सच्चिदानन्दघन भगवान श्रीकृष्ण! रासोत्सव के समय भगवान के भुजदण्डों को गले में धारणकर पूर्णकामा व्रजसुन्दरियों को श्रीहरि का जो दुर्लभ प्रसाद प्राप्त हुआ था, वह निरन्तर भगवान के वक्ष:स्थल में निवास करने वाली लक्ष्मीजी को और कमल-की-सी कान्ति तथा सुगन्ध से युक्त सुरसुन्दरियों को भी नहीं मिला, फिर दूसरे की तो बात ही क्या है? ब्रह्मा, शंकर आदि परम समर्थ देवता अपने हृदय में निरन्तर जिनका चिंतन करते रहते हैं, वे सब भी भगवान के इस कृपा-प्रसाद से वंचित रहे। आज भी प्रेमीभक्त भगवान श्रीकृष्ण को ‘गोपीनाथ’, ‘गोपिकानन्दन’ और ‘गोपीजनवल्लभ’ आदि नामों से पुकारते हैं।

बंदौ गोपी-व्रत परम स्व-सुख-बासना हीन।
सती परम, जिन मन सतत रहत सुसेवा लीन।।
बंदौ गोपी-मन सरस, मिल्यौ जो हरि-मन जाय।
हरि-मन गोपी मन बन्यौ करत नित्य मनभाय।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

मन्त्र-चिन्तामणि

भगवान के अनेक नामों में जितना मधुर, मन को हरने वाला, चित्त को हठात् आकर्षित करने वाला उनका ‘गोपीजनवल्लभ’ नाम है, उतना कोई भी नहीं। गोपीजन के वल्लभ! ये गोपीजन न होते तो इन वल्लभ (श्रीकृष्ण) में इतना माधुर्य आता ही कहां से?  इसलिए वैष्णवों का इष्ट मन्त्र यही है। पद्मपुराण में भगवान श्रीकृष्ण के ‘मन्त्र-चिन्तामणि’ नामक दो अति उत्तम मन्त्र हैं जिनका भगवान शंकर नारदजी को उपदेश देते हैं। पहला मन्त्र पांच पदों का है–‘गोपीजन वल्लभ चरणान् शरणं प्रपद्ये।’ दूसरा मन्त्र दो पदों का है–‘नमो गोपीजनवल्लभाभ्याम्।’

इन मन्त्रों को करने का उन सभी को अधिकार है जिनकी सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण में भक्ति है। इन मन्त्रों को सिद्ध करने के लिए न तो पुरश्चरण की आवश्यकता है और न ही किसी न्यासादि की। प्रियासहित भगवान श्रीकृष्ण के दास्यभाव की प्राप्ति के लिए इन मन्त्रों का जप करना चाहिए। मन्त्र का जप करते समय इस प्रकार ध्यान करना चाहिए–

वृन्दावन में कल्पवृक्ष के नीचे रत्नमय सिंहासन पर भगवान श्रीकृष्ण अपनी प्रिया श्रीराधा के साथ विराजमान हैं। नवीन मेघ के समान श्याम वर्ण, पीताम्बरधारी, द्विभुज, वनमाली, मोरमुकुटी, ललाट पर गोरोचन चंदन और बीच में कुंकुम की बिन्दी, कानों में कनेर-पुष्प के आभूषण, सूर्य के समान तेजस्वी कुण्डल, दर्पण के समान स्वच्छ कपोल, ऊंची नासिका में मोती की बुलाक, पके हुए कुंदरु के समान लाल-लाल होंठ और करोड़ों चन्द्रमाओं के समान कांतिमान मुख पर वे अपने चंचल नेत्रों को इधर-उधर घुमा रहे हैं। केयूर, अंगद, रत्नजटित मुन्दरियों, करधनी व नूपुरों से शोभित श्रीकृष्ण के बांये हाथ में मुरली व दाहिने हाथ में कमल है। उनके चपल नेत्र श्रीराधा को देख रहे हैं। श्रीराधाजी की सखियां चंवर और पंखी लेकर उनकी सेवा में लगी हैं।

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श्रीकृष्णप्रिया श्रीराधा अपनी अन्तरंग विभूतियों से इस प्रपंच का गोपन–संरक्षण करती हैं, इसलिए उन्हें ‘गोपी’ कहते हैं। इनकी सखियां ही ‘गोपीजन’ कहलाती हैं। इन सखियों के प्राणों के स्वामी दो ही हैं–श्रीराधा और श्रीकृष्ण। उन दोनों के चरण ही इस जगत में शरण देने वाले हैं। मैं उन्हीं का आश्रय लेता हूँ। शरण में जाने वाला मैं जो कुछ भी हूँ तथा मेरी कहलाने वाली जो कोई भी वस्तु है, वह सब श्रीराधा और श्रीकृष्ण को ही समर्पित है–सब कुछ उन्हीं के लिए है, उन्हीं की भोग्य वस्तु है। मैं और मेरा कुछ भी नहीं। इस प्रकार इस मन्त्र का संक्षेप में यही अर्थ है।

भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है–’हम दोनों (श्रीराधाकृष्ण) के शरणागत होकर जो गोपीभाव से हमारी उपासना करते हैं, उन्हीं को हमारी प्राप्ति होती है, अन्य किसी को नहीं।’

भगवान श्रीकृष्ण और गोपी-प्रेम

श्रीकृष्ण ने व्रज की प्रशंसा करते हुए कहा है—’मैं गोलोक छोड़कर व्रजगोपियों के अनन्य प्रेम के कारण इस क्षेत्र में अवतरित हुआ हूं। ऐसा दिव्य प्रेम संसार में अन्यत्र कहीं नहीं दिखाई देता।’  गोपियों के इस दिव्य प्रेम की एक ही साध है–नित्य, निरन्तर, प्रतिक्षण अपने जीवनाधार, प्राणाधार श्रीकृष्ण के नित-नये सौन्दर्य और माधुर्य को देखते रहना। यह साध पूरी होने पर भी कभी पूरी नहीं होती। गोपियों में श्रीकृष्ण-दर्शन की चाह, तड़प, छटपटाहट सदैव बनी रहती है। इस प्रेम की तनिक-सी छाया भी समस्त ब्रह्माण्डों के ऐश्वर्य-सुख व मोक्ष-सुख को नीरस व तुच्छ बना देती है। श्रीकृष्ण में नित्य नव-सौंदर्य का दर्शन करने वाली एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है–

सखी री! यह अनुभव की बात।
प्रतिपल दीखत नित नव सुंदर, नित नव मधुर लखात।।
X       X        X         X
कछुवै होत न बासी कबहुँ, नित नूतन रस बरसत।
देखत देखत जनम सिरान्यो, तऊ नैन नित तरसत।। (भाई हनुमानप्रसादजी पोद्दार)

भगवान से एक बार पूछा गया–’तुम्हारे असली गुरु कौन हैं? श्रीकृष्ण का हृदय भर आया, कण्ठ गद्गद् हो गया। वे रो पड़े और ‘गो ———-पी’ इतना ही कह सके और कुछ न कह सके। धन्य हैं गोपीजन, जो श्रीकृष्ण की परम आदरणीया गुरुरूप हैं। श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं–’गोपियां मेरी सहायिका, गुरु, शिष्या, दासी, बान्धव, स्त्री हैं। अर्जुन मैं तुमसे सत्य ही कहता हूँ कि गोपियां मेरी क्या नहीं हैं अर्थात् मेरी सब कुछ हैं। मेरी महिमा को, मेरी सेवा को, मेरी श्रद्धा को और मेरे मन के भीतरी भावों को गोपियां ही जानती हैं, दूसरा कोई नहीं जानता।’ अत: गोपियों को श्रीकृष्णसुखजीवना, श्रीकृष्णप्राणा, श्रीकृष्णपरिनिष्ठितमति व श्रीकृष्णानुरागिणी भी कहा जाता है। पुष्टिसम्प्रदाय में श्रीवल्लभाचार्यजी ने भी गोपियों को गुरु माना है।

श्रीकृष्ण से फिर पूछा गया–’तुम कभी हारे हो?’ वे बोले–’कभी नही।’ प्रश्नकर्ता ने कहा–’जरासन्ध से डरकर क्यों भागे? कालयवन के सामने भी तो भागे थे।’ श्रीकृष्ण ने कहा–’भागना और बात है, हारना और बात है। सिंह जब शिकार करता है तो उसे पकड़ने के लिए दस कदम पीछे भी हटता है। जोर से दौड़ने के लिए पीछे हटना ही पड़ता है। यह तो विद्या है, रणकौशल है। हारने का अर्थ है–दूसरे के अधीन हो जाना; उसके हाथ की कठपुतली बन जाना। हां, हम हारे हैं, गोपियों से तो हम सदा ही हारे हुए हैं।’

सेस, महेस, गनेस, दिनेस, सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
जाहिं अनादि, अनन्त, अखण्ड, अछेद, अभेद, सुबेद, बतावैं।।
नारद से सुक ब्यास रटैं, पचि हारे, तेऊ पुनि पार न पावैं।
ताहि अहीर की छोहरियां, छछिया भर छाछ पै नाच नचावै।। (रसखान)

प्रश्नकर्ता ने फिर पूछा–’वेदों में तुम्हें निर्लेप कहा गया है, क्या तुम लक्ष्मी के बिना रह सकते हो? श्रीकृष्ण बोले–’अवश्य, इसमें क्या है, वह तो मेरी दासी है।’ आगे फिर पूछा–’क्या ब्रह्मा के बिना रह सकते हो? उन्होंने कहा–’मेरे प्रत्येक श्वास में अनन्त ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं और प्रश्वास में बहुत से ब्रह्मा पेट में चले जाते हैं।’ ‘तो क्या जगत के बिना भी रह सकते हो?’ भगवान ने कहा–’जगत तो मेरी भ्रकुटि के संकेतमात्र से पैदा होता है और पलक झपकते ही समाप्त हो जाता है।’

प्रश्नकर्ता ने आगे कहा–’क्या वृन्दावन के बिना, क्या व्रजांगनाओं के बिना रह सकते हो?’ श्रीकृष्ण भावविह्वल हो गए और बोले–’नहीं! यह मैं सुन भी नहीं सकता। रहने की तो बात अलग है।’ स्वयं भगवान जिनकी बड़ाई करते हों, उनकी महिमा का वर्णन कोई क्या करेगा!

भगवान श्रीकृष्ण उद्धवजी से कहते हैं–’उद्धव! गोपियों का मन नित्य-निरन्तर मुझमें ही लगा रहता है। उनके प्राण, उनका जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिए उन्होंने अपने पति-पुत्र आदि सभी सगे-सम्बन्धियों को छोड़ दिया है। उन्होंने बुद्धि से भी मुझको ही अपना प्यारा, अपना प्रियतम–नहीं, नहीं अपना आत्मा मान रखा है। मेरा यह व्रत है कि जो लोग मेरे लिए लौकिक और पारलौकिक धर्मों को छोड़ देते हैं, उनका भरण-पोषण मैं स्वयं करता हूँ। मैं उन गोपियों का परम प्रियतम हूँ। मेरे यहां चले आने से मेरी प्रेयसी गोपियां इस समय बड़े ही कष्ट और यत्न से अपने प्राणों को किसी प्रकार रख रही हैं। मैं उनसे कहता था कि ‘मैं आऊंगा’–वही उनके जीवन का आधार है। उद्धव! और तो क्या कहूँ, मैं ही उनकी आत्मा हूँ। वे नित्य-निरन्तर मुझमें ही तन्मय रहती हैं।’ (श्रीमद्भागवत १०।४६।४-६)

कृष्णानुरागिणी गोपियां और मुक्ति

शुकदेवजी ने परीक्षित को सर्वश्रेष्ठ श्रोता समझकर गोपी-प्रेम का रहस्य बतलाना शुरु किया–’भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लमल्लिका:।’ भगवान की वंशीध्वनि में ‘क्लीं’ रूपी कामबीज को सुनकर (भगवान का आह्वान सुनकर) कोई गोपी बच्चे को दूध पिला रही थी, वह वैसे ही भागी। कोई दूध दुह रही थी, वहीं से चल दी। कोई अंजन लगा रही थी, एक ही आँख में लगा पाई थी, वैसे ही भागी। कोई केश बांध रही थी, उसी दशा में चल दी। किसी ने कहीं का वस्त्र कहीं पहन लिया। इस प्रकार शुकदेवजी बड़ी उमंग व तन्मयता से गोपीजन का वर्णन कर रहे थे। बीच में ही परीक्षित बोल उठे–’हे महामुनि! वे गोपिकाएं तो भगवान को अपना एक प्रियजन, सुहृदय मानती थीं, उनका श्रीकृष्ण में ब्रह्मभाव तो था नहीं, तब उन्हें संसार से मुक्ति कैसे मिल गयी? मुक्ति तो ज्ञान के बिना होती नहीं।’

शुकदेवजी को बड़ा आश्चर्य हुआ–गोपियों की और मुक्ति! जब विष पिलाने वाली पूतना और दुष्टबुद्धि वाला शिशुपाल प्रभु श्रीकृष्ण से द्वेष करके ही मुक्त हो गए, तब गोपियां तो श्रीकृष्ण की प्रियाएं थी। श्रीकृष्ण से कैसा भी सम्बन्ध हो–चाहे वह काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो, स्नेह का हो–सम्बन्ध होना चाहिए। जब उनसे द्वेष करने पर असुरों को मुक्ति मिलती है, तो प्रेम करने वालों को, उनमें भी गोपियों को, जिन्होंने अपना सर्वस्व उन प्रभु को ही समझ रखा है–मुक्ति की तो चले क्या, उन्हें क्या मिला, यह कोई नहीं बता सकता? भगवान स्वयं उनके ऋणी हो गए।

श्रीमद्भागवत (११।१४।१४, १६) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’इस प्रकार का मेरा प्रिय भक्त अपने आत्मा को मुझमें अर्पित कर देता है; वह मुझको छोड़कर ब्रह्मा के पद, इन्द्र के पद, चक्रवर्ती के पद, पाताल आदि के राज्य और योग की सिद्धियों आदि की तो बात ही क्या है, मोक्ष भी नहीं चाहता। ऐसे इच्छारहित, शान्त, निर्वैर और समदर्शी भक्तों की चरण-रज से अपने को पवित्र करने के लिए मैं सदा उनके पीछे-पीछे घूमा करता हूँ।’

स्वयं भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–’जो मेरे गोपीजन हैं वे मेरी सेवा के अतिरिक्त मुक्ति भी स्वीकार नहीं करते। उनके मन में न क्षोभ है, न अशान्ति, न कुछ पाने की इच्छा और न कुछ देने को बचा है।’ वास्तव में जब तक हमारे पास देने को कुछ भी बचा रहता है–कुछ अपना भाव, कुछ अपनी प्रिय वस्तु, कुछ अपना अभिमान, तब तक हमने भगवान को अपना पूरा दिया ही नहीं–’पूरा दिया नहीं तो पूरे सेवक बने नहीं।’

गोपियों के अवतरण का प्रयोजन

प्रश्न यह है कि भगवान श्रीकृष्ण की नित्यलीला में विहार करने वाली गोपियाँ क्या व्रज में केवल इसलिए अवतीर्ण हुईं थीं कि वे नित्य भगवान के साथ लीला करें, क्या इतने से ही उनके अवतार का प्रयोजन पूरा हो जाता है? भगवान की सहचरी शक्तियां गोपियां इसलिए अवतीर्ण हुईं थीं कि संसार में भूले हुए जीव यह बात सीखें कि भगवान के साथ प्रेम कैसे किया जाता है, उनसे मिलने के लिए कैसी उत्कण्ठा होती है और उनसे मिलन होने पर कैसे अलौकिक रस का अनुभव होता है। मनुष्य को इस संसार में अपना जीवन किस प्रकार बिताना चाहिए, इस बात की शिक्षा भी गोपियों के जीवन से ही मिलती है। गोपियां मधुर भाव की पूर्ण अभिव्यक्ति हैं। इस मधुर भाव से ही मधुर रस का प्राकट्य होता है। गोपियों के प्रेम के महत्व का प्रतिपादन करते हुए रसखानजी ने लिखा है–

जदपि जसोदा नंद अरु ग्वाल बाल सब धन्य।
पै या जग में प्रेम कौं गोपी भई अनन्य।।
वा रस की कछु माधुरी ऊधो लही सराहि।
पावै बहुरि मिठास अरु अब दूजो को आहि।।

श्रीकृष्ण के विरह में गोपियों व ग्वालबालों की दशा

श्रीमद्भागवत में वर्णन है कि गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक क्षण भी युगों के समान लगता था। गोपियां भगवान को नित्य देखती थीं, परन्तु श्रीकृष्ण से क्षण भर का वियोग भी उनके लिए असह्य हो जाता था। आंखों पर पलक बनाने के लिए वे विधाता को कोसती थीं; क्योंकि पलकें न होतीं तो आंखें सदा खुली ही रहतीं और श्रीकृष्ण दर्शन में कोई व्यवधान न होता।

यही कारण है कि भगवान श्रीकृष्ण के मथुरा चले जाने पर उनके वियोग में गोपियां चिन्ता के मारे सूखकर कांटा हो गयी हैं, आँखों की खुमारी से साफ जाहिर होता है कि उद्वेग के मारे इन्हें नींद नहीं आती। शरीर और कपड़ों को धोने की इन्हें याद ही नहीं है। बार-बार बेसुध हो जाती हैं। मर-मरके जीतीं हैं और वह भी केवल इसी आशा में कि कभी प्राणप्रियतम श्रीकृष्ण के दर्शन हो जाएंगे। बार-बार यही कहती रहती हैं–’हे जीवनधन! आओ, केवल एक बार आओ। देखो, यह वही यमुना है जिसमें तुम जलविहार करते थे। नाथ! यह वही कदम्ब, वही लताओं व करील की कुँजें हैं और वही वृन्दावन है। परन्तु तुम, तुम कहां हो! आओ नाथ।’

हे नाथ! हे रमानाथ! व्रजनाथार्त्तिनाशन।
मग्नमुद्धर गोविन्द! गोकुलं वृजिनार्णवात्।।

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भगवान के वियोग में भी जीवन-धारण करके वे जगत का हित करती रहती हैं। श्रीकृष्ण को प्राप्त करने की सम्भावना होने पर असीम दु:ख में भी उन्हें सुख की प्रतीति होती है। इसका कारण है कि गोपियां सोचती हैं कि श्रीकृष्ण हमसे अलग रहने में ही जगत का कल्याण सोचते हैं। यदि हम उनकी इच्छा के अनुकूल अपना वियोगी जीवन न बिताएं, शरीर त्याग दें, तो वे हमारी मृत्यु का समाचार सुनकर कितने दु:खी होंगे, उनके कोमल हृदय पर कैसी गहरी चोट लगेगी–ऐसी कल्पना करके ही हम सिहर उठती हैं। गोपियों से यही शिक्षा मिलती है कि जीवन में चाहे जितनी व्यथा सहनी पड़े, उसे भगवत् इच्छा मानकर सहना चाहिए और भगवान को एक क्षण के लिए कष्ट न हो, हमारा यही प्रयास होना चाहिए। गोपियों ने अपने दृढ़ संकल्प से इस व्रत का जीवन भर पालन किया। उनमें जितनी कोमलता थी, उससे भी अधिक तितिक्षा (त्याग) था।

मोहन बसि गयो मेरे मन में।
लोकलाज कुलकानि छूटि गयी, याकी नेह लगनमें।।
जित देखो तित वह ही दीखै, घर बाहर आँगनमें।
अंग-अंग प्रति रोम-रोम में, छाइ रह्यो तन-मनमें।।
कुण्डल झलक कपोलन सोहै, बाजूबन्द भुजनमें।।
कंकन कलित ललित बनमाला, नूपुर-धुनि चरननमें।।
चपल नैन भ्रकुटि वर बाँकी, ठाढ़ो सघन लतनमें।
नारायन बिन मोल बिकी हौं, याकी नेक हसनमें।।

भगवान श्रीकृष्ण के विरह में ग्वालबालों की दशा–भगवान श्रीकृष्ण के मथुरागमन के पश्चात् उनके वियोग में व्रज के ग्वालबालों की जो दशा है, वह वर्णनातीत है। उनके अन्त:स्तल में विरह की ज्वाला इस प्रकार प्रज्जवलित होती रहती है कि भाण्डीरवन की शीतल छाया, यमुना की बर्फ के समान ठण्डी रेत भी उसे शान्त न करके और भी धधका देती है। उनके शरीर दुर्बल हो गए हैं, आँखों में आंसू भरे रहने के कारण नींद नहीं आती, उनका मन और चित्त आलम्बनहीन होकर विचारशून्य व जड़ हो गया है। अपने-आप को भूलकर अपने प्रिय सखा की यादों में खोये वे कभी पृथ्वी पर लोटने लगते हैं, कभी दौड़ते हैं तो कभी अपने-आप से ही न जाने क्या बातें किया करते हैं। एक-एक पल छटपटाहट की उच्चतम सीमा तक पहुंच गया है। सांसों में अकुलाहट समा गई है और उनकी प्रतीक्षा दु:सह हो गई है। श्रीरूपगोस्वामीजी ने ग्वालबालों की ऐसी दशा का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है–‘हे श्रीकृष्ण! तुम्हारे विरह की तरंगों से उत्पन्न ज्वालाएं ग्वालबालों को जर्जरित बना रही हैं। उनके श्वास का अंकुर भी अब क्षीण हो चला है। वे पर्वत की तराइयों में निश्चेष्ट पड़े हुए हैं। इतने निश्चल हो रहे हैं वे कि उनके चिर-परिचित स्नेही हरिण बार-बार अपने आंसुओं की अजस्त्र धारा से भिगोकर भी जब उन्हें नहीं उठा पाते, तब बहुत देर तक उनके लिए शोक करते हैं।’  भगवान के विरह की ऐसी अवस्था जिनके जीवन में हो, उनके भाग्य के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है?

कजरारी तेरी आंखों में, क्या भरा हुआ कुछ टोना है।
तेरा ते हंसन, औरों का मरन, बस जान हाथ से धोना है।।
क्या खूब ये हुस्न बयान करूं, तू सुन्दर स्याम सलोना है।
‘स्यामा सखी’ प्राणधन मोहन, तू ब्रज का एक खिलौना है।।

श्रीकृष्ण के प्रेमी बनने से यद्यपि सारे ग्वालबाल धन्य हो गये, परन्तु श्रीकृष्णप्रेम की परम अधिकारिणी बनने के कारण गोपियां अद्वितीया बन गईं।

कबिरा कबीर कहा करै चल जमुना के तीर।
इक इक गोपी प्रेम में कौटिन बहै कबीर।।
हरि के सब आधीन पै हरी प्रेम-आधीन।
याहीं तें हरि आपुहीं याहि बड़प्पन दीन।।

कबीरदासजी कहते हैं–यमुनातट पर एकत्रित गोपियों के प्रेम को निहारो, जहां एक-एक गोपी के प्रेम में करोड़ों कबीर भी तुच्छ लगते हैं। संसार के सारे प्राणी प्रभु के वश में हैं, परन्तु भगवान पूर्णरूप से प्रेम के वश में हैं, वे प्रेम के भूखे हैं।

गोपी-प्रेम का स्वरूप

यह गोपी-प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर कर देना पड़ता है। मोक्ष की इच्छा या नरक के भय का इस प्रेम में कोई स्थान नहीं है। इस प्रेम का स्वरूप है ‘तत्सुख सुखित्व’ अर्थात् उनके सुख में सुखी होना। मेरे द्वारा मेरा प्रियतम सुखी हो, इसी में मैं सुखी होऊँ–यही गोपी-भाव है। गोपियों के सम्बन्ध में श्रीचैतन्यचरितामृत में कहा गया है–

आत्मसुख-दु:ख गोपी ना करे विचार।
कृष्ण-सुख-हेतु करे सब व्यवहार।।
कृष्ण बिना और सब करि परित्याग।
कृष्ण-सुख-हेतु करे शुद्ध अनुराग।।

गोपियों का सब कुछ भगवान श्रीकृष्ण के लिए ही है। अर्थात् गोपियां अपने शरीर की रक्षा इसलिए करती हैं कि वह श्रीकृष्ण की सेवा के लिए है। इच्छा न होते हुए भी वे अपने शरीर को सजाती हैं, संवारती हैं और विरहजन्य असह्य तीव्रताप को सहन करते हुए भी इसलिए अपने प्राणों को धारण करती हैं कि वह श्रीकृष्ण का है। भगवान श्रीकृष्ण इसलिए यह कहते हैं कि गोपियों से बढ़कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई भी नहीं है।

गोपी-प्रेम की प्राप्ति का उपाय

गोपी-प्रेम में देवताओं का भी अधिकार नहीं है। वे भक्त ही इस रस का पान किया करते हैं जो व्रजरस के प्रेमी, व व्रजभाव के रसिक हैं। गोपी-प्रेम ‘सर्वसमर्पण’ का भाव है। इस गोपी-प्रेम की प्राप्ति का बस यही उपाय है कि श्रीकृष्ण में अपना चित्त जोड़ दो, उनके नाम और रूप पर आसक्त हो जाओ, उस रसिकेश्वर त्रिभंगी श्रीकृष्ण का सर्वत्र दर्शन करो, उनके चरणकमलों में सर्वस्व निछावर कर दो, उनकी सेवा में अपना तन, मन, धन सब लगा दो, उनकी एक रूपमाधुरी पर सदा के लिए अपना सम्पूर्ण आत्मसमर्पण कर दो । गोपी-भाव में खास बात है रस की अनुभूति। भक्त का हृदय जब भगवानको सचमुच अपना ‘प्रियतम’ और ‘प्राणनाथ’ मान लेता है तब स्वाभाविक ही उनको इस तरह सम्बोधित करते हुए उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी होती है, आनन्द की एक रस-लहरी-सी छलकती है, क्योंकि हमारे सब कुछ के एकमात्र स्वामी–आत्मा के भी आत्मा केवल श्रीकृष्ण ही  हैं। समर्पण ही इसका साधन है। परन्तु गोपी-भाव की प्राप्ति किसी साधन से नहीं वरन् श्रीकृष्ण की कृपा से ही मिलती है।

मेरे रोम-रोम में पैठा, प्रियतम! प्रेम तुम्हारा।
तन के तार-तार में धावित, उसकी विद्युत-धारा।।
ऐसा स्वर मुरली में फूंको, आह उठे अन्तर से।
ऐसा तारों को झंकारो, नयन हमारे बरसे।।

भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के नित्य ऋणी

भगवान श्रीकृष्ण गोपियों के नित्य ऋणी हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान का वचन है कि जो मुझे जैसे भजता है, उसे मैं वैसे ही भजता हूँ–’ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।’ अर्थात् भक्त जिस प्रकार से तथा जिस परिमाण के फल को दृष्टि में रखकर भजन करता है, भगवान उसको उसी प्रकार तथा अपरिमित परिमाण में फल देकर उसका भजन करते हैं। परन्तु यहां गोपियों के सम्बन्ध में भगवान के इस वचन की रक्षा नहीं हो सकी। इसके तीन कारण बताए गए हैं–

(१) गोपी की निज-सुख की कोई कामना नहीं है, अत: श्रीकृष्ण उसे क्या दें।

(२) गोपी की कामना है केवल श्रीकृष्ण-सुख की। श्रीकृष्ण इस कामना की पूर्ति करने जाते हैं तो उनको स्वयं अधिक सुखी होना पड़ता है। अत: गोपी के इस सुख के दान से श्रीकृष्ण पर गोपी का ऋण और बढ़ जाता है।

बंदौ गोपी-नाम, जे हरि मुरली महँ टेर।
सुख पावत हरि स्वयं करि कीर्तन बेरहि बेर।।

(३) जहां गोपियों ने सर्वत्यागकर अपने को केवल श्रीकृष्ण को ही समर्पित कर रखा है, वहीं श्रीकृष्ण का बहुत-से प्रेमी भक्तों में चित्त लगा हुआ है। अत: गोपी प्रेम ‘अनन्य’ और ‘अखण्ड’ है; वहीं कृष्णप्रेम ‘विभाजित’ है। इसी से गोपी के भजन का बदला उसी रूप में श्रीकृष्ण उसे नहीं दे सकते।

श्रीमद्भागवत (१०।३२।२२) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं–‘गोपियो! तुमने मेरे लिए घर की उन बेड़ियों को तोड़ डाला है, जिन्हें बड़े-बड़े योगी-यति भी नहीं तोड़ पाते। यदि मैं अमर शरीर से, अमर जीवन से अनन्तकाल तक तुम्हारे प्रेम, सेवा और त्याग का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा सदा ऋणी हूँ। तुम अपने सौम्य स्वभाव से ही, प्रेम से ही मुझे उऋण कर सकती हो। परन्तु मैं तो तुम्हारा ऋणी ही हूँ।’

परमानन्ददासजी के शब्दों में–’गोपीप्रेम की ध्वजा। जिन गोपाल किए अपने वश उर धरि स्याम भुजा।।’ गोपियों को उनके माधुर्य भाव ने ही प्रभु से मिलाया था। गोपियों का प्रेम काम-कालिमा से रहित है, निर्मल है, दिव्य है, अलौकिक है। लोक और वेद सबकी मर्यादा को छोड़कर वे कृष्णानुरागिणी बन गयीं थीं। लोगों के द्वारा कुलमर्यादाहीन कहे जाने पर वे ललकार कर कहती हैं–

कोऊ कहै कुलटा कुलीन-अकुलीन कोऊ,
रीति-नीति जग से बनाये सब न्यारी हों।
गौर वर्ण अपनो ही तनिको न नीको लगै,
अंग-अंग रोम-रोम श्याम रंग धारी हों।।
नेति-नेति वेद नित जिसका गायन करें,
उसके ही चरणों में तन-मन वारी हों।
हौं तो हम निपट लबारी और गंवारी किन्तु,
केसव की लीलाओं पर सर्बस हारी हों।।

जिस प्रकार मणियां तीन प्रकार की होती हैं–साधारण मणि, चिन्तामणि और कौस्तुभमणि; उसी प्रकार कुब्जा, श्रीकृष्ण की पटरानियां व गोपियां इनका श्रीकृष्ण-प्रेम भी तीन प्रकार का है। कुब्जा ने श्रीकृष्ण के सम्पर्क में आकर महाभागा होते हुए भी केवल अपने सुख को चाहा, अत: उसकी श्रीकृष्ण के लिए प्रीति साधारण मणि के समान है। श्रीकृष्ण की पटरानियों का प्रेम चिन्तामणि के समान है क्योंकि उसमें श्रीकृष्ण के सुख के साथ उनका अपना सुख भी जुड़ा हुआ है। अत: यह मध्यम दर्जे की प्रीति है। जैसे चिन्तामणि सहजता से नहीं मिलती, मूल्य अधिक होने से हर कोई उसे प्राप्त नहीं कर सकता, पर प्राप्त हो जाती हैं। परन्तु गोपीजनों का प्रेम साक्षात् कौस्तुभमणि के समान है, जो भगवान के कण्ठ का आभूषण है। चिन्तामणि तो दस-बीस मिल सकती हैं पर कौस्तुभमणि एक ही होती है, वह भगवान के कण्ठ के अलावा दूसरी जगह कहीं नहीं मिलती। उसी तरह गोपी-प्रेम भी श्रीकृष्ण की लीलाभूमि व्रज के सिवा और कहीं नहीं मिलता। ऐसा प्रेम केवल गोपियां ही कर सकती हैं और सर्वजनाकर्षक, मन को हरने वाले मनोहर श्रीकृष्ण के प्रति ही किया जा सकता है।

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