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जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय
श्रीराधा की पायल सूरदासजी के हाथ में आ गई । श्रीराधा के पायल मांगने पर सूरदासजी ने कहा पहले मैं तुम्हें देख लूं, फिर पायल दूंगा । दृष्टि मिलने पर सूरदासजी ने श्रीराधाकृष्ण के दर्शन किए । जब उन्होंने कुछ मांगने को कहा को सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’
भगवान श्रीकृष्ण की मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला
श्रीकृष्ण और माँ यशोदा में होड़ सी लगी रहती। जितना यशोदामाता का वात्सल्य उमड़ता, उससे सौगुना बालकृष्ण अपना और लीलामाधुर्य बिखेर देते। इसी क्रम में यशोदामाता का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था। उसमें डूबी माँ के नेत्रों में रात-दिन श्रीकृष्ण ही बसे रहते। कब दिन निकला, कब रात हुयी--यशोदामाता को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था। इसी भाव-समाधि से जगाने के लिए ही मानो यशोदानन्दन ने मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला की थी।
बालकृष्ण की विभिन्न बाललीलाएँ और सूरदासजी द्वारा उनका वर्णन
सूरदासजी उच्चकोटि के संत होने के साथ-साथ उच्चकोटि के कवि थे। इन्हें वात्सल्य और श्रृंगार रस का सम्राट कहा जाता है। सूरदासजी अँधे थे परन्तु इन्हें दिव्य दृष्टि प्राप्त थी। जैसा भगवान का स्वरूप होता था, वे उसे अपनी बंद आँखों से वैसा ही वर्णन कर देते थे।