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मनुष्य पर पांच प्रकार के ऋण और उनसे छूटने के उपाय
भगवान की बनाई सृष्टि का कार्य-संचालन और सभी जीवों का भरण-पोषण पांच प्रकार के जीवों के परस्पर सहयोग से संपन्न होता है । ये हैं—१. देवता, २. ऋषि, ३. पितर, ४. मनुष्य और ५. पशु-पक्षी आदि भूतप्राणी । इसी कारण शास्त्रों में प्रत्येक गृहस्थ मनुष्य पर इन पांचों का—पितृ ऋण, देव ऋण, ऋषि ऋण, भूत ऋण और मनुष्य ऋण बताया गया हैं ।
मानव शरीर एक देवालय है
परब्रह्म परमात्मा ने जब विश्व की रचना की, तब वैसा ही मनुष्य का शरीर भी बनाया—‘यद् ब्रह्माण्डे तत् पिण्डे’ । वैसे तो परमात्मा ने अपनी माया से चौरासी हजार योनियों की रचना की, परन्तु उन्हें संतोष न हुआ । जब उन्होंने मनुष्य शरीर की रचना की को वे बहुत प्रसन्न हुए; क्योंकि मनुष्य ऐसी बुद्धि से युक्त है जिससे वह परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है ।
विराट् पुरुष या आदि पुरुष
ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त समस्त चराचर जगत--जो प्राकृतिक सृष्टि है, वह सब नश्वर है । तीनों लोकों के ऊपर जो गोलोक धाम है, वह नित्य है । गोलोक में अन्दर अत्यन्त मनोहर ज्योति है; वह ज्योति ही परात्पर ब्रह्म है । वे परमब्रह्म अपनी इच्छाशक्ति से सम्पन्न होने के कारण साकार और निराकार दोनों रूपों में अवस्थित रहते हैं । ब्रह्माजी की आयु जिनके एक निमेष (पलक झपकने) के बराबर है, उन परिपूर्णतम ब्रह्म को ‘कृष्ण’ नाम से पुकारा जाता है ।