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सूरदास जी के शुभ संकल्प की शक्ति
उद्धव जी के अवतार माने जाने वाले सूरदास जी की उपासना सख्य-भाव की थी । श्रीनाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी । उन्होंने वल्लभाचार्यजी की आज्ञा से श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध की कथा को पदों में गाया । सूरदास जी का सवा लाख पद रचना का संकल्प श्रीनाथजी ने पूरा कराया
पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के कर्तव्य
नित्य कृष्ण सेवा को छोड़कर पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का न कोई और धर्म है और न ही कर्तव्य । अपनी देह के सुख को त्याग करके, ठाकुर जी को सुख मिले—इस भाव से भगवान की सेवा करनी चाहिए । यंत्र के समान या कर्मकाण्ड के रूप में या बोझ मान कर केवल खानापूर्ति के लिए भगवान की सेवा नहीं करनी चाहिए ।
श्रीमद्वल्लभाचार्यजी विरचित ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र
कृष्णाश्रय का अर्थ है सदा-सर्वदा पति, पुत्र, धन, गृह--सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं-- इस भाव से व्रजेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है । इसके अतिरिक्त किसी भी देश, किसी भी वर्ण, किसी भी आश्रम, किसी भी अवस्था में और किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है ।
जिन नैनन श्रीकृष्ण बसे, वहां कोई कैसे समाय
श्रीराधा की पायल सूरदासजी के हाथ में आ गई । श्रीराधा के पायल मांगने पर सूरदासजी ने कहा पहले मैं तुम्हें देख लूं, फिर पायल दूंगा । दृष्टि मिलने पर सूरदासजी ने श्रीराधाकृष्ण के दर्शन किए । जब उन्होंने कुछ मांगने को कहा को सूरदासजी ने कहा—‘जिन आंखों से मैंने आपको देखा, उनसे मैं संसार को नहीं देखना चाहता । मेरी आंखें पुन: फूट जायँ ।’