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भगवान श्रीकृष्ण की मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला
श्रीकृष्ण और माँ यशोदा में होड़ सी लगी रहती। जितना यशोदामाता का वात्सल्य उमड़ता, उससे सौगुना बालकृष्ण अपना और लीलामाधुर्य बिखेर देते। इसी क्रम में यशोदामाता का वात्सल्य अनन्त, असीम, अपार बन गया था। उसमें डूबी माँ के नेत्रों में रात-दिन श्रीकृष्ण ही बसे रहते। कब दिन निकला, कब रात हुयी--यशोदामाता को यह भी किसी के बताने पर ही भान होता था। इसी भाव-समाधि से जगाने के लिए ही मानो यशोदानन्दन ने मृद्-भक्षण (माटी खाने की) लीला की थी।
बालकृष्ण का कटि-परिवर्तन (करवट बदलने का) उत्सव
गोपियाँ बालकृष्ण के दर्शन में तन्मय हैं, तभी लाला ने करवट बदलना शुरु किया। इसे देखकर वे दौड़कर माता यशोदा के पास जाकर बोलीं कि बालकृष्ण ने आज करवट ली है । यशोदा माता को बहुत प्रसन्नता हुई कि लाला अभी तीन महीनों का है और करवट बदल रहा है। यशोदा माता ने कहा कि आज मैं लाला का कटि-परिवर्तन उत्सव करूंगी।
भगवान के नाम की महिमा और श्रीकृष्ण के प्रचलित नामों का...
स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं--’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव--इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’ यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?
व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी
शुकदेवजी की कथाएँ : श्रीशुकदेवजी के जन्म की कथा, परमहंस शुकदेवजी के स्वरूप का वर्णन एवं श्रीशुकदेवजी का अनुपम दान--श्रीमद्भागवत ।
भगवान श्रीकृष्ण के व्रजसखा (गोपकुमार) एवं गोपियाँ
भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा पूतना को सद्गति प्रदान करना
पूतना के पूर्वजन्म की कथा, एवं पूतना-वध की कथा | आखिर पूतना के आते ही भगवान ने अपने नेत्र बंद क्यों किए?
पूतना जन्म से राक्षसी थी, कर्म था शिशुओं की हत्या करना और आहार था बालकों का रक्त। वह श्रीकृष्ण के पास कपटवेश बनाकर मारने गयी थी; किन्तु कैसे भी गई; किसी भी भाव से गई; नन्हें बालकृष्ण के मुख में उसने अपना स्तन दिया इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसे माता की गति दी। उसका कपटी राक्षसी शरीर दिव्य गंध से पूर्ण हो गया। श्रीकृष्ण जिसे छू लेते हैं उसका लौकिक शरीर फिर अलौकिक, दिव्य, चिन्मय बन जाता है। श्रीकृष्ण की मार में भी प्यार है।
वसुदेव-देवकी : उनके पूर्वजन्म
माता-पिता अपने पुत्र का जगत् में प्रकाश करते हैं, इसी से वे पुत्र के प्रकाशक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता श्रीभगवान को जगत् में प्रकट करते हैं, अत: वे भी भगवान के प्रकाशक हैं। लेकिन भगवान स्वयं प्रकाशक हैं, उनकी ज्योति (अंग-छटा) से ही सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित है। अतएव वसुदेव-देवकीरूप भगवान के माता-पिता भी भगवान की सच्चिदानन्दमयी स्वप्रकाशिका शक्ति ही हैं।
श्रीकृष्ण: शरणं मम
जिस प्रकार 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' नाम महामन्त्र के कीर्तन का प्रचार श्रीचैतन्य महाप्रभु के आदेश के अनुसार बंगदेश में शुरू हुआ और आज वह सारे संसार को पवित्र कर रहा है, उसी प्रकार 'श्रीकृष्ण: शरणं मम' अष्टाक्षर महामन्त्र 'पुष्टि सम्प्रदाय' में नाममन्त्र संज्ञा से सुप्रसिद्ध है। यह अखण्डभूमण्डलाचार्यवर्य श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा प्रकटित है।
भगवान श्रीकृष्ण का नामकरण संस्कार
यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वह ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वह एक दिन गोकुल में नंदबाबा के घर आए। गर्गाचार्यजी ने कहा--'नंदजी, यह जो तुम्हारा साँवला सलौना बालक है, यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है। सत्ययुग में श्वेत वर्ण का, त्रेतायुग में रक्त वर्ण था। परन्तु इस समय द्वापरयुग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है अत: इसका नाम 'कृष्ण' होगा।'