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श्रीराधा की परमप्रिय अष्टसखियां
श्रीराधामाधव की निकुंजलीला में नियुक्त रहकर अष्टसखियां उनको सेवा-सुख प्रदान करती रहती हैं।
श्रीराधा की अंतरंग सेवा में रहने वाली अष्टसखियों को निकुंजलीला के अत्यन्त गोपनीय स्थानों में भी प्रवेश प्राप्त है।
प्रात:काल की कौन-सी क्रियाएं बनाती हैं जीवन सुखी और सफल
जीवन जीना समय को ढोना नहीं बल्कि एक कला है। जीते तो सभी हैं पर जिसने अपना जीवन सार्थक बना लिया, उसी का जीना सही मायने में जीना है। प्रात:काल सोकर उठते समय यदि कुछ छोटे-छोटे उपाय कर लिए जाएं तो मनुष्य सुख, शान्ति व स्वस्थ जीवन प्राप्त कर सकता हैं। इन्हीं उपायों को ‘प्रात:काल के स्वर्णिम सूत्र (golden tips)’ कहते हैं। विभिन्न समस्याओं से छुटकारा पाने के लिए प्रात:काल स्मरण करें इन देवताओं के नाम।
क्यों मधुर है श्रीकृष्ण का रास-नृत्य ?
‘रास’ का सम्बन्ध भगवान श्रीकृष्ण और गोपियों से है। रास वृन्दावन का वास्तविक नृत्य है। श्रीकृष्ण अकेले रास नहीं कर सकते। रास की आधार हैं श्रीराधा; इसलिए उन्होंने अपनी आह्लादिनी शक्ति श्रीराधा के साहचर्य से रास रचाया, रस बरसाया, रस प्राप्त किया और रस प्रदान किया तथा ‘रासबिहारीलाल’ कहलाए। भगवान श्रीकृष्ण की अन्तरंग आह्लादिनी शक्ति श्रीराधाजी और उनकी निजस्वरूपा गोपबालाओं के साथ होने वाली कन्हैया की रस एवं माधुर्य से ओत-प्रोत संगीतमय लीला का नाम ‘रास’ है।
नृत्यकला के आदिगुरु भगवान श्रीकृष्ण (I)
क्रोध में उन्मत्त, भीषण विषधर कालियनाग के भयानक फनों पर नृत्य करना भगवान श्रीकृष्ण की नृत्यकला की पराकाष्ठा है। तलवार की धार पर, सूत पर तथा अग्नि में भी कुशल कलाकार नृत्य कर लेते हैं; पर यहां सौ फन वाले सर्प के फनों पर नृत्य हो रहा था। भगवान शंकर तो ताण्डव करते हैं, किन्तु व्रजराज श्रीकृष्ण आज विचित्रताण्डव कर रहे हैं। श्रीकृष्ण के नागनृत्य में उनकी शरीरसाधना, चरणविन्यास, विचित्र मनोयोग और अनुपम सौन्दर्य का अद्भुत मेल है। इसके अलावा नंदमहल में श्रीकृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ाओं में भी उनकी अद्वितीय नृत्यकला देखने को मिलती है।
जीवन जीने की कला सिखाती है श्रीमद्भगवद्गीता
संसार में जीवन जीने की कला एक विद्या है। यदि हम उस विद्या को अच्छी तरह जान जाएं तो हमारा बेड़ा पार है। गीता जीवन जीने की कला सिखाने वाली ब्रह्मविद्या है।
श्रीकृष्ण का चतुर्भुजरूप और श्रीराधा
श्रीराधा और गोपांगनाएं नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की मधुर कान्ताभाव से सेवा-आराधना करती हैं। न वे श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य को जानती हैं, न मानती हैं, न उसे देखने की कभी उनमें इच्छा ही जागती है। वरन् श्रीकृष्ण के चतुर्भुजरूप को देखकर वे डरकर संकोच में पड़ जाती हैं। उन्हें जहां जरा भी श्रीकृष्ण का ऐश्वर्यरूप दिखायी दिया, वहीं वे अपने ही प्रियतम श्यामसुन्दर को श्यामसुन्दर न मानकर कुछ अन्य मानने लगती हैं। व्रज में श्रीकृष्ण की भगवत्ता या उनके परमेश्वररूप की कोई पूछ नहीं है।
श्रीकृष्ण के रोग की अनोखी दवा
’उपाय यह है कि कोई सती स्त्री श्रीकृष्ण के केशों से बनी इस डोर पर चलती हुई यमुनाजी के उस पार तीन बार जाए और लौट कर आए; फिर इस छिद्रयुक्त कलसी में यमुनाजल लाकर श्रीकृष्ण पर छिड़के तो उनकी चेतना वापिस आ जाएगी।’ यशोदाजी ने अपना माथा पकड़ लिया--’क्या व्रज में ऐसी कोई सती है जो ऐसा साहस कर सके!’
भक्ति की मधुरता : चंदन-यात्रा उत्सव
भक्त अपने भगवान की सेवा के अवसर ढूंढता है और रसमय श्रीकृष्ण अपने भक्तों को आनन्द प्रदान करने के लिए लीला करने के अवसर ढूंढते हैं। दोनों में यह अलौकिक स्पर्धा चलती रहती है। भगवान अपने रूप व लीलाओं से भक्त का मन चुराते हैं, और भक्त अपने भाव से ही भगवान को आनन्द देता है। यही भक्ति की मधुरता है।
वैशाखमास में श्रीमाधव पूजन-विधि
वैशाखमास माधव को विशेष प्रिय है। इसलिए वैशाखमास को माधवमास भी कहते हैं। इस मास में मधु दैत्य को मारने वाले भगवान मधुसूदन की यदि भक्तिपूर्वक पूजा कर ली जाए तो मनुष्य लौकिक व पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त करता है। व्रज में वैशाखमास का बहुत माहात्म्य है।
सेवक बनकर जनाबाई की सहायता करते भगवान
जनाबाई चक्की पीसते समय भगवान के ‘अभंग’ गाया करती थी। गाते-गाते जब वह अपनी सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं चक्की पीसते और जनाबाई के अभंग सुनकर प्रसन्न होते। नदी से पानी लाते समय, चक्की से आटा पीसते समय, घर की झाड़ू लगाते समय और कपड़े धोते समय भगवान स्वयं जनाबाई का हाथ बंटाते थे।