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क्यों है नर्मदा नदी का हर पत्थर शिवलिंग?

अत्यन्त पवित्र और परमात्स्वरूप नर्मदेश्वर शिवलिंग नर्मदा नदी से निकलने वाले शिवलिंग को ‘नर्मदेश्वर’ कहते हैं। यह घर में भी स्थापित किए जाने वाला पवित्र...

भगवान शंकर का सिद्ध स्तोत्र शिव महिम्न:-स्तोत्र

परम शिवभक्त गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रतित शिव महिम्न:-स्तोत्र उपासक को अवश्य फल देने वाला है।

श्रावणमास में शिवपूजा संवारती है जीवन

दरिद्रता, रोग, दु:ख और शत्रुपीड़ा को दूर भगाए श्रावण में शिवपूजा |

भगवान शंकर का विचित्र दूल्हावेष

कहां तुम कमल के समान विशाल नेत्र वाली और कहां शिव भयंकर तीन नेत्रों वाले विरुपाक्ष? कहां तुम चन्द्रमा के समान मुख वाली और कहां शिव पांच मुख वाले, तुम्हारे सिर पर सुन्दर वेणी और शिव के सिर पर जटाजूट, तुम्हारे शरीर पर चंदन का लेप और शिव के शरीर पर चिताभस्म, कहां तुम्हारा दुकूल और कहां शिव का गजचर्म! कहां तुम्हारे दिव्य आभूषण और कहां शिव के सर्प और मुण्डमाला ! कहां तुम्हें सुख देने वाला मृदंगवाद्य व भेरी की ध्वनि और कहां उनका डमरु और अशुभ श्रृंगी का शब्द? कहां तुम्हारे बाजे ‘ढक्का’ का शब्द और कहां उनका अशुभ गले का शब्द।

भगवान शंकर का अंगराग चिताभस्म

जैसे राजा अपने राज्य में कर लगाकर उन्हें ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य भोज्य पदार्थों को पकाकर उसका सार ग्रहण करता है तथा जैसे जठरानल तरह-तरह के भोज्य पदार्थों को अधिक मात्रा में ग्रहणकर उसको पचाकर उसका सारतत्त्व पोषण रूप में लेता है, उसी प्रकार परमेश्वर शिव ने भी संसाररूपी प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है।

व्रज में गोपी बने त्रिपुरारि

महारास में गोपियों के मण्डल में मिलकर गोपीरूप शंकरजी अतृप्त नेत्रों से मनमोहन श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का पान करने लगे। रासेश्वर श्रीकृष्ण और रासेश्वरी श्रीराधा को गोपियों के साथ नृत्य करते देखकर भोलेनाथ स्वयं भी ‘तत थेई थेई’ कर नाचने लगे। तभी श्यामसुन्दर ने ऐसी मोहनी वंशी बजाई कि भोलेनाथ अपनी सुध-बुध भूल गए और उनके सिर से घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गईं।

शिवरात्रि पर शिवपूजन की विधि

भगवान शिव के षोडशोपचार अर्थात् सोलह उपचारों से पूजा की सामग्री व विधि दी जा रही है। अपने समय, स्वास्थ्य व सामर्थ्य के अनुसार जैसे भी बने, पूजा की जा सकती है। भगवान सदाशिव की पूजा जहां एक ओर राजसी उपचारों व वैभव से की जाती है; वहीं दूसरी ओर वह केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र और मुखवाद्य (मुख से बम-बम भोले की ध्वनि) से ही पूरी हो जाती है। शिवजी की प्रसन्नता के लिए गाल बजाना भी श्रेष्ठ माना गया है; इसीलिए वे ‘आशुतोष’ कहे जाते हैं।

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को क्यों कहते हैं महाशिवरात्रि?

महाशिवरात्रि फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकाररूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। कहा जाता है कि इस दिन शिवजी समस्त शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं। ईशान-संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि को भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहते हैं जबकि प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ‘शिवरात्रि’ कहलाती है।

भगवान शिव का संसार को दान

ब्रह्माजी इसलिए परेशान हैं कि जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजी अपनी परम उदारता और दानशीलता के कारण उन कंगालों को इन्द्रपद दे देते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाक में दम आ गया है। शिवजी ब्रह्मा का लिखा भाग्य पलटकर अनधिकारियों को स्वर्ग भेज रहे हैं। दीनता और दु:ख को कहीं भी रहने की जगह न मिलने से वे दु:खी हो रहे हैं। याचकता व्याकुल हो रही है। अर्थात् शिवजी की दानशीलता ने सभी दीनों व कंगालों को सुखी और राजा बना दिया है। शिवजी ने प्रकृति के सारे नियम ही पलट दिए हैं।

शिवपंचाक्षर मन्त्र ‘नम: शिवाय’

यह पंचाक्षर मन्त्र मोक्षमार्ग को प्रकाशित करने वाला दीपक है। अविद्या के समुद्र को सोखने वाला वडवानल है और पापों के जंगल को जला डालने वाला दावानल है। यह पंचाक्षर मन्त्र वटवृक्ष के बीज की भांति हैं जो सब कुछ देने वाला तथा सर्वसमर्थ है।