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गोपियों के मन, प्राण व नेत्र और श्रीकृष्णप्रेम

गोपी की बुद्धि, उसका मन, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं। उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना--सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है। गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है। यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है। मीराबाई सुन्दर श्रृंगार करके गोपालजी के सम्मुख कीर्तन करती थीं। उनका भाव था--’गोपालजी की नजर मुझ पर पड़ने वाली है। इसलिए मैं श्रृंगार करती हूँ।’

भगवान के नाम की महिमा और श्रीकृष्ण के प्रचलित नामों का...

स्कन्दपुराण में यमराज नाममहिमाके विषय में कहते हैं--’जो गोविन्द, माधव, मुकुन्द, हरे, मुरारे, शम्भो, शिव, ईशान, चन्द्रशेखर, शूलपाणि, दामोदर, अच्युत, जनार्दन, वासुदेव--इस प्रकार सदा उच्चारण करते हैं, उनको मेरे प्रिय दूतो ! तुम दूर से ही त्याग देना।’ यदि जगत् का मंगल करने वाला श्रीकृष्ण-नाम कण्ठ के सिंहासन को स्वीकार कर लेता है तो यमपुरी का स्वामी उस कृष्णभक्त के सामने क्या है? अथवा यमराज के दूतों की क्या हस्ती है?

भगवान श्रीकृष्ण के व्रजसखा (गोपकुमार) एवं गोपियाँ

भक्ति की प्रवर्तिका गोपियां ही हैं। श्रीकृष्णदर्शन की लालसा ही गोपी है। गोपी कोई स्त्री नहीं है, गोपी कोई पुरुष नहीं है। श्रीमद्भागवत में ‘गोपी’ शब्द का अर्थ परमात्मा को प्राप्त करने की तीव्र इच्छा बताया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण के चरण-कमल

भगवान के चरण-चिह्नों का परिचय एवं पुष्टिमार्ग के आराध्य श्रीनाथजी के चरण-कमल भगवान के चरण-कमल बड़े ही दुर्लभ हैं और सेवा के लिए उनकी प्राप्ति होना और भी कठिन है। लक्ष्मीजी भगवान के चरण-कमलों को ही भजती हैं अत: नवधा भक्ति में ‘पाद सेवन’ भक्ति लक्ष्मीजी को सिद्ध है।

श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी : अवर्णनीय

श्रीकृष्ण का बालरूप सौंदर्य और उनकी उपमाएं

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म-महोत्सव और गोकुल में परमानंद

परमात्मा श्रीकृष्ण परमानंद के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण में आनन्द के सिवा कुछ नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीअंग में और उनके नाम में आनन्द ही है। वे नंदबाबा के घर प्रकट हुए हैं। ‘नंद’ शब्द का अर्थ है--जो दूसरों को आनन्द देता है। मधुर वाणी, विनय, सरल स्वभाव, उदारता आदि सद्गुणों से सभी को जो आनन्द देते हैं, उन्हें नंद कहते हैं। जो सबको आनन्द देता है उसे सबका आशीर्वाद मिलता है।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य (अवतार)

भगवान का अवतार कब और क्यों होता है? प्रकृति में जब अधोगुण बढ़ जाते हैं, मानव आसुरी और राक्षसी भावों से आक्रान्त हो जाता है, उसमें अहंता-ममता, कामना-वासना, स्पृहा-आसक्ति बुरी तरह बढ़ने लगती है, चोरी, डकैती, लूट, हिंसा छल, ठगी--किसी भी उपाय से वह भोग (अर्थ, अधिकार, पद, मान, शरीर का आराम) प्राप्त करने में तत्पर हो जाता है, राजाओं और शासकों के रूप में घोर अनीतिपरायण, स्वेच्छाचारी, नीच-स्वार्थरस से पूर्ण असुरों का आधिपत्य हो जाता है, पवित्र प्रेम की जगह काम-लोलुपता बढ़ने लगती है, ईश्वर को मानने वाले साधु चरित्र पुरुषों पर अत्याचार होने लगते हैं, सच्चे साधकों को पग-पग पर अपमानित व लज्जित होकर पद-पद पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है, मनुष्य विनाश में विकास देखने लगता है, इस प्रकार साधु हृदय मानवों की करुण पुकार जब चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब भगवान का अवतार होता है।

भगवान कृष्ण के बालरूप के दर्शन के लिए शंकरजी की जोगी...

भगवान शिव के इष्ट हैं विष्णु। जब विष्णुजी ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो अपने इष्ट के बाल रूप के दर्शन और उनकी लीला को देखने के लिए शिवजी ने जोगी रूप बनाया।

भगवान नीलवर्ण क्यों हैं?

भगवान चाहे राम हो, कृष्ण हो या विष्णु; सभी का वर्ण नीला ही है। इसीलिये इन्हें नीलाम्बुज, मेघवर्ण, नीलमणि, गगनसदृश आदि उपमाएं दी जाती हैं। प्रश्न यह है कि भारतीय संस्कृति में चित्रों व प्रतिमाओं में भगवान को नीलवर्ण का क्यों दिखाया जाता है?

श्रीकृष्ण सर्वगुणसम्पन्न एवं सोलह कलाओं से युक्त युग पुरुष

वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम्। देवकीपरमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्।। भगवान श्रीकृष्ण अनन्त ऐश्वर्य, अनन्त बल, अनन्त यश, अनन्त श्री, अनन्त ज्ञान और अनन्त वैराग्य की जीवन्त मूर्ति हैं।...