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भगवान श्रीकृष्ण का गोलोकधाम
गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। वहां न काल की दाल गलती है और न ही माया का कोई वश चलता है फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। यह केवल मंगल का धाम है जो समस्त लोकों में श्रेष्ठतम है।
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इस प्रकार लीला-मंच तैयार हो गया, मंच-लीला की व्यवस्था करने वाले रचनाकार, निर्देशक एवं समेटने वाले भी तैयार हो गए। इस मंच पर पधारकर, विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर अपनी-अपनी भूमिका निभाने वाले पात्र भी तैयार हो गए। काल, कर्म, गुण एवं स्वभाव आदि की रस्सी में पिरोकर भगवान श्रीकृष्ण ने इन सबकी नकेल अपने हाथ में रखी। यह नटवर नागर श्रीकृष्ण एक विचित्र खिलाड़ी हैं। कभी तो मात्र दर्शक बनकर देखते हैं, कभी स्वयं भी वह लीला में कूद पड़ते हैं और खेलने लगते हैं।