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अद्भुत है श्रीकृष्ण-चरित्र
द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया। क्या किसी ने ऐसा आज तक किया है? भगवान की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है। इसीलिए महर्षि व्यास ने उन्हें प्रकृतिरूपी नटी को नचाने वाला सूत्रधार और ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ कहा है।
श्रीकृष्ण का चतुर्भुजरूप और श्रीराधा
श्रीराधा और गोपांगनाएं नन्दनन्दन श्रीकृष्ण की मधुर कान्ताभाव से सेवा-आराधना करती हैं। न वे श्रीकृष्ण के ऐश्वर्य को जानती हैं, न मानती हैं, न उसे देखने की कभी उनमें इच्छा ही जागती है। वरन् श्रीकृष्ण के चतुर्भुजरूप को देखकर वे डरकर संकोच में पड़ जाती हैं। उन्हें जहां जरा भी श्रीकृष्ण का ऐश्वर्यरूप दिखायी दिया, वहीं वे अपने ही प्रियतम श्यामसुन्दर को श्यामसुन्दर न मानकर कुछ अन्य मानने लगती हैं। व्रज में श्रीकृष्ण की भगवत्ता या उनके परमेश्वररूप की कोई पूछ नहीं है।
श्रीकृष्ण के रोग की अनोखी दवा
’उपाय यह है कि कोई सती स्त्री श्रीकृष्ण के केशों से बनी इस डोर पर चलती हुई यमुनाजी के उस पार तीन बार जाए और लौट कर आए; फिर इस छिद्रयुक्त कलसी में यमुनाजल लाकर श्रीकृष्ण पर छिड़के तो उनकी चेतना वापिस आ जाएगी।’ यशोदाजी ने अपना माथा पकड़ लिया--’क्या व्रज में ऐसी कोई सती है जो ऐसा साहस कर सके!’
भगवान श्रीकृष्ण का व्रज में अद्भुत माधुर्य एवं ऐश्वर्य
व्रज में श्रीकृष्ण की न तो कोई सेना थी, और न ही कोई अस्त्र-शस्त्र। न ही उनका उग्ररूप कभी प्रकट हुआ और न ही कोई युद्ध लम्बा चला। राक्षस आया और खेलते-खेलते दो घड़ी में ही कन्हैया ने उसका काम-तमाम कर दिया । इसीलिए ब्रह्माण्डपुराण में नारदजी ने कहा है--‘चक्रधारी नारायण चक्र धारण करके भी जिन असुरों का विनाश सहज में नहीं कर सकते, श्रीकृष्ण ने नयी-नयी बाललीला करते हुए उन सबका विनाश कर दिया। असुरमारन भी उनकी बाललीला का एक अंग था, वह भी खेल की एक पद्धति थी।’
त्रेतायुग की प्रतिज्ञा भगवान ने द्वापरयुग में पूरी की
हनुमानजी के मन में पूर्ण विश्वास था कि उनके आराध्य श्रीराम अपने भक्त की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अत: वे वहां से चल दिए और रामदल में आकर श्रीरामजी से अपनी ‘प्रतिज्ञा’ और गिरिराजजी की ‘व्यथा’ निवेदन की।
गिरिवर आप निराश न हों और मुझे क्षमा करें। द्वापरयुग के अंत में श्रीकृष्ण अवतार होगा, वे ही आपकी इच्छा पूर्ति करेंगे। जब इन्द्र की पूजा का खण्डन करके भगवान श्रीकृष्ण आपकी पूजा करवाएंगे तो इन्द्र कुपित होकर व्रज में उत्पात करने लगेगा। उस समय आप व्रजवासियों के रक्षक होंगे। मैं श्रीरामजी के पास जाकर विनती करुंगा। दीनबन्धु श्रीराम आपको दर्शन अवश्य देंगे।
व्रज के ठाकुर श्रीकृष्ण
आनन्द-अवतार श्रीकृष्ण में माधुर्य, सौन्दर्य और प्रेम का सुन्दर समावेश हुआ है। उनका धाम व्रजभूमि जो गोलोक के समान है, उसकी मीठी व्रजभाषा, उनकी नित्य किशोर वयस, वस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ पीताम्बर, सबसे निराला मोरमुकुट, घुटनों तक शोभायमान वनमाला, पशुओं में सबसे उत्तम पशु गौ, वाद्यों में मधुर वाद्य मुरली, भोज्य-पदार्थों में मधुरतम माखन, वृक्षों में सुन्दर कदम्ब का वृक्ष, सरिताओं में मनोहर यमुनानदी--ये सभी उनके अवतार के सुन्दर योग थे।
श्रीकृष्ण के प्रेम दीवाने
सांवले-सलौने श्रीकृष्ण ऊपर से ही मनमोहक नहीं हैं वरन् भीतर भी सुधारस से लबालब हैं। वे रसिक भक्तों के लिए सदा ही मधुरातिमधुर हैं। जिस समय वह मयूरकिरीट और मकराकृत कुण्डल से सजते हैं, पीताम्बर और वैजयन्तीमाला धारण करते हैं तथा ‘बैरन बँसरिया’ को मधुर अधरों पर धरते हैं, उनकी उस रूपमाधुरी पर मोहित हुए न जाने कितने प्रेम दीवाने अपना सब कुछ त्यागकर उन्हीं के होकर रह जाते हैं।
सबसे ऊँची प्रेम सगाई
भक्त का प्रेम ईश्वर के लिए महापाश है जिसमें बंधकर भगवान भक्त के पीछे-पीछे घूमते हैं। इस भगवत्प्रेम में न ऊंच है न नीच, न छोटा है न बड़ा। न मन्दिर है न जंगल। न धूप है न चैन। है तो बस प्रेम की पीड़ा; इसे तो बस भोगने में ही सुख है। यह प्रेम भक्त और भगवान दोनों को समान रूप से तड़पाता है।
श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्तोत्र
भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ब्रह्माजी से कहते हैं--जो कृष्ण ! कृष्ण !! कृष्ण !!!--यों कहकर मेरा प्रतिदिन स्मरण करता है, उसे जिस प्रकार कमल जल को भेद कर ऊपर निकल जाता है, उसी प्रकार मैं नरक से उबार लेता हूँ। श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष स्तोत्र (कृष्णाष्टक) भगवान श्रीशंकराचार्य द्वारा रचित बहुत सुन्दर स्तुति है। बिना जप, बिना सेवा एवं बिना पूजा के भी केवल इस स्तोत्र मात्र के नित्य पाठ से ही श्रीकृष्ण कृपा और भगवान श्रीकृष्ण के चरणकमलों की भक्ति प्राप्त होती है।
भगवान श्रीकृष्ण का व्रजप्रेम
कई दिन बीत गए पर मथुराधीश श्रीकृष्ण ने भोजन नहीं किया। संध्या होते ही महल की अटारी (झरोखों) पर बैठकर गोकुल का स्मरण करते हैं। वृन्दावन की ओर टकटकी लगाकर प्रेमाश्रु बहा रहे हैं। कन्हैया के प्रिय सखा उद्धवजी से रहा नहीं गया। उन्होंने कन्हैया से कहा--’मैंने आपको मथुरा में कभी आनन्दित होते नहीं देखा। आप दु:खी व उदास रहते हैं। आपका यह दु:ख मुझसे देखा नहीं जाता।’