कब से शुरु हुई शिवलिंग पूजन की परम्परा ?

आ गई महाशिवरात्रि पधारो शंकरजी ।
कष्ट मिटाओ पार उतारो दयालु शंकरजी ।।
तुम मन-मन में हो, मन-मन में है नाम तेरा ।
तुम हो नीलकंठ, है कंठ-कंठ में नाम तेरा ।।
क्या भेंट चढ़ाएं हम, निर्धन का घर सूना है ।
ले लो ये दो आंसू ही, गंगाजल का नमूना है ।।

भगवान शिव की पूजा दो रूपों—मूर्ति और लिंग में क्यों की जाती है ?

लिंगपुराण के अनुसार शिव अविनाशी, परब्रह्म परमात्मा हैं । भगवान शिव के दो रूप हैं—सकल और निष्कल । रूप व कलाओं से युक्त होने के कारण उन्हें ‘सकल’ (समस्त अंग व आकार वाला ) कहा जाता है और लिंग रूप में अंग-आकार से रहित निराकार होने के कारण  उन्हें ‘निष्कल’ कहते हैं । शिवलिंग शिव के निराकार स्वरूप का प्रतीक है । अन्य देवताओं के आविर्भाव के समय उनका साकार रूप प्रकट होता है, जबकि भगवान शिव के साकार और निराकार दोनों ही रूपों में दर्शन होते हैं । यही कारण है कि लोग लिंग और मूर्ति —दोनों ही रूपों में भगवान शिव की पूजा करते हैं ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के मध्य हुआ श्रेष्ठता का विवाद

पूर्वकल्प में ब्रह्माजी और भगवान विष्णु के विवाद और अभिमान को मिटाने के लिए भगवान शिव ने अग्निस्तम्भ के रूप में अपना निष्कल स्वरूप प्रकट किया । उसी समय से संसार में भगवान शिव के निर्गुण लिंग व सगुण मूर्ति की पूजा प्रचलित हुई ।

चतुर्युगी के अंत में प्रलय होने पर चारों ओर जल-ही-जल हो गया । उस प्रलय के जल में भगवान विष्णु कमल पर शयन कर रहे थे । उन्हें देखकर माया से मोहित ब्रह्माजी ने कहा—‘तुम कौन हो, जो इस तरह निश्चिन्त होकर सो रहे हो ?’ भगवान विष्णु ने हंसते हुए ब्रह्माजी से कहा—‘वत्स ! बैठो ।’ यह सुनकर ब्रह्माजी ने गुस्से से कहा—‘तुम कौन हो जो मुझे वत्स कह रहे हो, तुम नहीं जानते कि मैं सृष्टि का कर्ता ब्रह्मा हूँ ।’

भगवान विष्णु ने कहा—‘जगत का कर्ता, भर्ता, हर्ता मैं हूँ । तुम तो मेरे नाभिकमल से उत्पन्न हुए हो, अत: तुम मेरे पुत्र हो । मेरी माया से मोहित होकर तुम मुझे ही भूल गये ?’

दोनों में विवाद होने लगा । दोनों ही अपने को ईश्वर सिद्ध कर रहे थे । हंस और गरुड़ पर चढ़कर दोनों आपस में युद्ध करने लगे । इससे भयभीत होकर देवगणों ने कैलास जाकर भगवान शिव से विवाद को शान्त करने की गुहार लगाई ।  

अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

भगवान शिव इस विवाद की शान्ति के लिए एक अति प्रकाशवान ज्योतिर्लिंग (प्रकाशस्तम्भ pillar of light या अग्निस्तम्भ pillar of fire) के रूप में प्रकट हुए । इस ज्वालामय लिंग का कोई ओर-छोर नजर नहीं आता था । उस लिंग को देखकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु सोचने लगे कि हम दोनों के बीच में यह कौन-सी वस्तु आ गयी है ? उन्होंने निश्चय किया कि जो कोई इस लिंग के अंतिम भाग को छूकर आएगा वही परमेश्वर माना जाएगा ।

Vishnu and Brahma made salutations to Shiva and offered him a seat. The Pillar of fire is Bhagwan Shiv.
अग्निस्तम्भ (Pillar of Fire) के समान ज्योतिर्लिंग का प्राकट्य

उस लिंग के आदि व अंत को जानने के लिए भगवान विष्णु विशाल वराह का रूप धारण कर लिंग के नीचे की ओर गए और ब्रह्मा हंस का रूप धारण कर ऊपर की ओर उड़े । दोनों थक कर वापिस आ गए किन्तु दोनों को ही उस ज्योतिर्लिंग के ओर-छोर का पता नहीं लगा । दोनों ही विचार करने लगे कि यह क्या है जिसका कहीं न आदि है न अंत?

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने उस अग्निस्तम्भ को साष्टांग प्रणाम कर प्रार्थना की—‘भगवन् ! हमें अपने यथार्थ स्वरूप का दर्शन कराइए ।’ तभी उन्हें ‘ॐ ॐ’ की ध्वनि सुनाई दी । उन्होंने देखा कि ज्योतिर्लिंग की दांयी ओर अकार, बांयी ओर उकार और बीच में मकार है । अकार सूर्य की तरह, उकार अग्नि की तरह और मकार चन्द्रमा की तरह चमक रहे थे । सम्पूर्ण वेदों में इस प्रणव को ब्रह्म कहा गया है । दोनों ने उन तीनों वर्णों के ऊपर साक्षात् ब्रह्म की तरह भगवान शिव को देखा ।

भगवान शिव ने उन्हें दिव्य ज्ञान देते हुए कहा—‘जो अग्निस्तम्भ तुम दोनों को पहले दिखाई दिया था, वह मेरा निर्गुण, निराकार और निष्कल स्वरूप है, जो मेरे ब्रह्मभाव को दिखाता है; यही वास्तविक स्वरूप है, इसी का ध्यान करना चाहिए और साक्षात् महेश्वर मेरा सकल रूप है ।

ब्रह्माजी और भगवान विष्णु द्वारा की गयी शिव पूजा का दिन कहलाता है शिवरात्रि

भगवान शिव के दर्शन पाकर ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने विभिन्न वस्तुओं—चंदन, अगरु, वस्त्र, यज्ञोपवीत, पुष्पमाला, हार, नूपुर, केयूर, किरीट, कुण्डल, पुष्प, नैवेद्य, ताम्बूल, धूप, दीप, छत्र, ध्वजा, चंवर आदि से भगवान शिव की पूजा की और स्तुति करते हुए कहा—

नमो निष्कलरूपाय नमो निष्कलतेजसे ।
नम: सकलनाथाय नमस्ते  सकलात्मने ।।

प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें अचल भक्ति का वरदान देते हुए कहा—‘तुम दोनों ज्योतिर्लिंग की उपासना कर सृष्टि का कार्य बढ़ाओ । आज के दिन तुम्हारे द्वारा मेरी पूजा होने से यह दिन परम पवित्र ‘शिवरात्रि’ के नाम से प्रसिद्ध होगा । इस समय जो मेरे लिंग और मूर्ति की पूजा करेगा, उसे पूरे वर्ष भर की मेरी पूजा का फल प्राप्त होगा । पूजा करने वालों के लिए मूर्ति और लिंग दोनों समान है, फिर भी मूर्ति से लिंग का स्थान ऊंचा है । शिवलिंग का पूजन सभी प्रकार के भोग और मोक्ष देने वाला है ।’

उच्च कोटि के साधक ज्योतिर्लिंग का ध्यान हृदय में, आज्ञाचक्र में या ब्रह्मरन्ध्र में करते हैं परन्तु साधारण लोगों के लिए पूजा का यह रूप अत्यन्त कठिन है । अत: भगवान शिव लिंग के रूप में प्रतिष्ठित हुए । उसी समय से संसार में शिवलिंग के पूजन की परम्परा शुरु हुई ।

ब्रह्ममुरारि सुरार्चितलिंगं निर्मलभासित शोभितलिंगं ।
जन्मदु:ख विनाशकलिंग तत्प्रणमामि सदाशिवलिंगं ।। (लिंगाष्टक १)

अर्थात्—जो लिंग स्वरूप में ब्रह्मा, विष्णु एवं समस्त देवताओं द्वारा पूजित है और निर्मल कान्ति से सुशोभित है, जो लिंग जन्मजय दु:ख का विनाशक है अर्थात् मोक्ष देने वाला है, उस सदाशिव लिंग को मैं प्रणाम करता हूँ ।

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