भगवान की सेवा

सेवा शब्द अत्यन्त व्यापक है इसमें प्राणिमात्र की सेवा से लेकर परमात्मा की पूजा तक ‘सेवा’ कहलाती है । भगवान की सेवा का अत्यन्त गहन अर्थ है । भगवान की सेवा या भगवत्सेवा शब्द मिठास और रस से पूर्ण है । इसका अर्थ सेव्य (आराध्य) में लीन या एकरस हो जाना है ।

भगवान की सेवा में जिह्वा द्वारा भगवान के नाम का जप-कीर्तन करना, कानों से कथा सुनना, नेत्रों से भगवान की छवि का दर्शन कर हृदय में उसे स्थापित करना, हाथों से भगवान के विग्रह की चरणसेवा करना, अंगों में गंध आदि लगाना, माला बनाना, धारण कराना, नैवेद्य अर्पित करना तथा चरणों से उनके तीर्थो की यात्रा करना व शरीर से उन्हें नाचकर रिझाना आदि कार्य आते हैं ।

भगवत्सेवा से मनुष्य का कल्याण होता है । सुख, शान्ति और संतोष मिलता है, मन में अच्छे विचारों का उदय होता है, मन में स्वाधीनता आती है और मनुष्य भगवत्प्राप्ति की ओर बढ़ने लगता है ।

भगवान के सेवक को कैसा होना चाहिए ?

जिसके हृदय में सदा शान्ति, मुख पर प्रसन्नता व चरित्र शीशे के समान निर्मल हो, जिसके एकमात्र आधार भगवान हों और जिसके जीवन का लक्ष्य परमात्मा की प्राप्ति हो; वही सच्चा सेवक है।

गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘अर्जुन ! योग (साधन) न तो बहुत भोजन करने वाले कर सकते हैं और न सदा उपवास करके रहने वाले । यह बहुत सोने वालों के बस का नहीं और सदा जागते रहने वाले भी उसे अपनाने में असमर्थ हैं ।’

भगवान की सेवा करने वाले के लिए संतों ने आदेश किया है—‘नीचे बनो’ अर्थात् अपने को सबसे दीन-हीन मानकर सबको आदर-सम्मान देने वाला भगवान को बहुत प्रिय होता है । सेवा में अभिमान और स्वार्थ साधक के सारे पुरुषार्थ को मिट्टी में मिला देता है ।

ऊंचे पानी ना टिकै नीचे ही ठहराय ।
नीचा होय सो भरि पिबै ऊंचा प्यासा जाय ।।
सब तें लघुताई भली लघुता तें सब होय ।
जस दुतिया को चंद्रमा सीस नवै सब कोय ।।

अर्थात्—जैसे पानी नीचे ही ठहरता है, ऊंचे स्थान पर नहीं और पानी नीचे झुककर ही पीना पड़ता है; उसी तरह लघुता (अपने को सबसे दीन-हीन मानना) ही सर्वश्रेष्ठ है । सभी लोग दूज के चन्द्रमा को (जोकि सबसे छोटा होता है) ही नमन करते हैं ।

भगवत्सेवा हृदय का भाव है क्रिया नहीं

भगवान की सेवा में भाव मधुर रहने पर ही सेवा मधुर होती है । किसी के प्रति भी मन में कटुता का भाव रहने पर सेवा भी कटु हो जाती है क्योंकि भगवान की सेवा भाव है क्रिया नहीं । मन की कटुता शरीर के रोम-रोम को अपने रंग में रंग देती है जिससे भगवान की सेवा भी कटु हो जाती है ।

साधक को अपनी सेवा-पूजा की किसी दूसरे की सेवा से कभी तुलना नहीं करनी चाहिए । जो सेवा में दूसरों को पीछे करके स्वयं आगे बढ़ना चाहते हैं या किसी दूसरे की सेवा देखकर मन में जलन करते हैं, या सेवा के द्वारा किसी को वश में करना चाहते हैं या किसी मनोरथ की पूर्ति के लिए भगवान की सेवा करते हैं; वह सेवा नहीं बल्कि सेवा में स्वार्थ व अहंकार का ताण्डव नृत्य करते हैं ।

गीता (१२।४) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘समस्त प्राणियों की मनसा-वाचा-कर्मणा सेवा तथा हित करने वाले मुझको प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।’

भगवत्सेवा करते समय रखें इन बातों का ध्यान

श्रीरामचरितमानस (७।४३।५) में भगवान ने स्वयं कहा है—

सोइ सेवक प्रियतम मम सोई ।
मम अनुशासन मानै जोई ।।

अर्थात्—भगवान का सच्चा सेवक वही है जो उनकी आज्ञा मानता है वही उन्हें परमप्रिय है । इसलिए भगवत्सेवा के कुछ नियम हैं जिन्हें प्रत्येक साधक को मानना चाहिए । जो इन बातों को नहीं मानता वह न भक्त है और न वैष्णव । भगवान की सेवा करते समय साधक को इन गलतियों से बचना चाहिए, इन्हें सेवापराध कहा जाता है—

  • भगवान की मूर्ति के सामने अशौच अवस्था (जन्म और मरण के सूतक में) नहीं जाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने बिना नहाये और दांत साफ किए बिना नहीं जाना चाहिए ।
  • मैले और बिना धुले वस्त्र और दूसरे के वस्त्र पहनकर भगवान की मूर्ति या चित्र को छूना नहीं चाहिए ।
  • रजस्वला स्त्री को छूकर भगवान की मूर्ति को छूना भी अपराध माना गया है ।
  • तेलमालिश करके बिना नहाये भगवान की मूर्ति को स्पर्श नहीं करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने पैर पसार कर नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने पीठ करके नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने घुटनों को ऊंचा करके हाथ से लपेटकर नहीं बैठना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति को एक हाथ से प्रणाम नहीं करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने झूठ नहीं बोलना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने किसी अन्य देवता की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने कम्बल से सारा शरीर ढक कर नहीं जाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने खाना नहीं खाना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने जोर से बोलना नहीं चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने सोना नहीं चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने आपस में बात करना, चिल्लाना और दूसरों को कठोर वचन नहीं बोलने चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने दूसरों की निन्दा नहीं करनी चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने अधोवायु (गैस) का त्याग नहीं करना चाहिए ।
  • छींक या खांसी आने पर हाथ धोकर ही भगवान की मूर्ति को स्पर्श करना चाहिए ।
  • भगवान की मूर्ति के सामने अश्लील या गाली वाले शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए ।
  • गुटका, पान या पानमसाला खाते हुए भगवान की पूजा-सेवा नहीं करनी चाहिए ।
  • मांसाहार करने के बाद भगवान की सेवा नहीं करनी चाहिए ।
  • पूजा करते समय यदि लघुशंका के लिए जाना पड़ जाए तो हाथ-पैर अच्छे से धोकर कुल्ला करके ही पूजा करनी चाहिए ।
  • पूजा के समय यदि मलत्याग के लिए जाना पड़े तो पुन: स्नान करके ही पूजा करनी चाहिए ।
  • दीपक जलाने के बाद हाथ धोकर ही भगवान को स्पर्श करें ।
  • भगवान को चन्दन, रोली, पुष्प चढ़ाने से पहले धूप-अगरबत्ती नहीं दिखानी चाहिए ।
  • जो पत्र-पुष्प जिस देव के लिए निषिद्ध हैं उन्हें वे अर्पित नहीं करने चाहिए । जैसे गणेशजी को तुलसी, दुर्गा को दूर्वा आदि ।
  • पुष्पों को धोकर भगवान के विग्रह पर न चढ़ाएं । केवल जल का छींटा देकर ही उन्हें शुद्ध कर लेना चाहिए ।

सेवापराध से कैसे बचें?

यदि कभी भूल से पूजा-सेवा में कोई अपराध हो जाए तो इन कार्यों के करने से सारे अपराध क्षमा हो जाते हैं—

  • गंगास्नान करने से,
  • यमुनास्नान करने से,
  • भगवान की नित्य सेवा करने से,
  • प्रतिदिन गीता का पाठ करने से,
  • तुलसीपत्र से शालग्रामजी की सेवा करने से,
  • तुलसीसेवा करने से,
  • द्वादशी के दिन जागरण कर भगवान का कीर्तन करने से, व
  • सदैव भगवान के नाम का जप करते रहने से

जिस सेवाकार्य में आसक्ति नहीं, अभिमान नहीं, कोई अपना स्वार्थ नहीं वह छोटी सेवा भी महान सेवा बन जाती है ।

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