श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी : अवर्णनीय

श्रीकृष्ण का बालरूप सौंदर्य और उनकी उपमाएं

भगवान श्रीकृष्ण का जन्म-महोत्सव और गोकुल में परमानंद

परमात्मा श्रीकृष्ण परमानंद के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण में आनन्द के सिवा कुछ नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीअंग में और उनके नाम में आनन्द ही है। वे नंदबाबा के घर प्रकट हुए हैं। ‘नंद’ शब्द का अर्थ है--जो दूसरों को आनन्द देता है। मधुर वाणी, विनय, सरल स्वभाव, उदारता आदि सद्गुणों से सभी को जो आनन्द देते हैं, उन्हें नंद कहते हैं। जो सबको आनन्द देता है उसे सबका आशीर्वाद मिलता है।

वसुदेव-देवकी : उनके पूर्वजन्म

माता-पिता अपने पुत्र का जगत् में प्रकाश करते हैं, इसी से वे पुत्र के प्रकाशक कहे जाते हैं। भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता श्रीभगवान को जगत् में प्रकट करते हैं, अत: वे भी भगवान के प्रकाशक हैं। लेकिन भगवान स्वयं प्रकाशक हैं, उनकी ज्योति (अंग-छटा) से ही सम्पूर्ण विश्व प्रकाशित है। अतएव वसुदेव-देवकीरूप भगवान के माता-पिता भी भगवान की सच्चिदानन्दमयी स्वप्रकाशिका शक्ति ही हैं।

भगवान श्रीकृष्ण को बारम्बार प्रणाम

कृष्ण ! इस ढाई अक्षर के नाम में कितना जादू है। कितना सुन्दर ! कितना प्यारा है यह शब्द ! घोर अंधकार को चीरकर जैसे शरद्चन्द्र सारे आकाश में महान प्रकाश व चांदनी रूपी अमृत को बिखेर देता है, उसी तरह श्रीकृष्ण के आविर्भाव ने सारे संसार के सद्पुरुषों के हृदयों को दिव्य आनन्द रूपी अमृत से भर दिया।

भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य पर प्रकृति का उल्लासपूर्ण स्वागत

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं ही काल, दिशा और देश के नियन्ता हैं, इसलिए आज ‘काल’ की ही भांति ‘दिशा’ और ‘देश’ भी समस्त सद्गुणों से सुशोभित हो रहे हैं। दसों दिशाएँ प्रसन्न हो गयीं। सभी दिक्पाल (दिशाओं के अधिपति) आनन्दपूर्ण हृदय से अपने स्वामी के शुभागमन का अभिनन्दन करने के लिए दिग्वधुओं (अपनी पत्नियों) के साथ हाथों में अर्घ्यपात्र लेकर उनकी प्रतीक्षा करने लगे। गगन में तारे इस प्रकार जगमगा रहे थे मानों अनन्त पात्रों में हीरों के पुष्प भरकर अपने स्वामी को अर्पण करने की इच्छा से खड़े हों। भगवान श्रीकृष्ण के मंगल आगमन से सभी देश आनन्द-मंगल से भर गए।

भगवान श्रीकृष्ण का प्राकट्य (अवतार)

भगवान का अवतार कब और क्यों होता है? प्रकृति में जब अधोगुण बढ़ जाते हैं, मानव आसुरी और राक्षसी भावों से आक्रान्त हो जाता है, उसमें अहंता-ममता, कामना-वासना, स्पृहा-आसक्ति बुरी तरह बढ़ने लगती है, चोरी, डकैती, लूट, हिंसा छल, ठगी--किसी भी उपाय से वह भोग (अर्थ, अधिकार, पद, मान, शरीर का आराम) प्राप्त करने में तत्पर हो जाता है, राजाओं और शासकों के रूप में घोर अनीतिपरायण, स्वेच्छाचारी, नीच-स्वार्थरस से पूर्ण असुरों का आधिपत्य हो जाता है, पवित्र प्रेम की जगह काम-लोलुपता बढ़ने लगती है, ईश्वर को मानने वाले साधु चरित्र पुरुषों पर अत्याचार होने लगते हैं, सच्चे साधकों को पग-पग पर अपमानित व लज्जित होकर पद-पद पर विघ्न-बाधाओं का सामना करना पड़ता है, मनुष्य विनाश में विकास देखने लगता है, इस प्रकार साधु हृदय मानवों की करुण पुकार जब चरम सीमा पर पहुँच जाती है तब भगवान का अवतार होता है।

श्रीकृष्ण: शरणं मम

जिस प्रकार 'हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे' नाम महामन्त्र के कीर्तन का प्रचार श्रीचैतन्य महाप्रभु के आदेश के अनुसार बंगदेश में शुरू हुआ और आज वह सारे संसार को पवित्र कर रहा है, उसी प्रकार 'श्रीकृष्ण: शरणं मम' अष्टाक्षर महामन्त्र 'पुष्टि सम्प्रदाय' में नाममन्त्र संज्ञा से सुप्रसिद्ध है। यह अखण्डभूमण्डलाचार्यवर्य श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा प्रकटित है।

श्रीकृष्ण : चितचोर

जिनके करकमल वंशी से विभूषित हैं, जिनकी नवीन मेघकी-सी आभा है, जिनके पीत वस्त्र हैं, अरुण बिम्बफल के समान अधरोष्ठ हैं, पूर्ण चन्द्र के सदृश्य सुन्दर मुख और कमल के से नयन हैं, ऐसे भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर अन्य किसी भी तत्व को मैं नहीं जानता।

भगवान श्रीकृष्ण का नामकरण संस्कार

यदुवंशियों के कुलपुरोहित थे श्रीगर्गाचार्यजी। वह ज्योतिष के प्रकाण्ड विद्वान थे। वसुदेवजी की प्रेरणा से वह एक दिन गोकुल में नंदबाबा के घर आए। गर्गाचार्यजी ने कहा--'नंदजी, यह जो तुम्हारा साँवला सलौना बालक है, यह युग-युग में रंग परिवर्तित करता है। सत्ययुग में श्वेत वर्ण का, त्रेतायुग में रक्त वर्ण था। परन्तु इस समय द्वापरयुग में यह मेघश्याम रूप धारण करके आया है अत: इसका नाम 'कृष्ण' होगा।'

भगवान श्रीकृष्ण की नौका विहार लीला

जिस प्रकार भगवान अनंत हैं, उसी प्रकार उनकी लीला भी अनंत हैं। भगवान की अनंतता और उनकी लीलाओं की विचित्रता अकथनीय है। उनकी प्रत्येक लीला का गोपनीय रहस्य है जिसे संसार नहीं समझ सकता। ऐसी ही उनकी एक लीला है नौका विहार लीला।