तुलसीसेवा, श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए श्रीराधाजी द्वारा तुलसीसेवा-व्रत

पुष्पों में अथवा देवियों में किसी से भी इनकी तुलना नहीं हो सकी इसलिए उन सबमें पवित्ररूपा इनको तुलसी कहा गया। तुलसी लक्ष्मीजी (श्रीदेवी) के समान भगवान नारायण की प्रिया और नित्य सहचरी हैं; इसलिए परम पवित्र और सम्पूर्ण जगत के लिए पूजनीया हैं। अत: वे विष्णुप्रिया, विष्णुवल्लभा, विष्णुकान्ता तथा केशवप्रिया आदि नामों से जानी जाती हैं। भगवान श्रीहरि की भक्ति और मुक्ति प्रदान करना इनका स्वभाव है।

दामोदर श्रीकृष्ण द्वारा यमलार्जुन (कुबेरपुत्रों) का उद्धार

भगवान बंधन में बंधकर उन कुबेरपुत्रों के उद्धार के लिए आ पहुंचे। उनकी गाड़ीलीला अब पूरी हो गयी और मोक्षलीला का प्रारम्भ हो गया। वे वृक्षों की ओर ऊखल खींचते चले जा रहे हैं और उन अर्जुन वृक्षों के पास जा पहुंचते हैं। श्रीकृष्ण को निकट आया देखकर उन यमलार्जुन की क्या दशा हुई, इसे कौन बताये?

दामोदर श्रीकृष्ण की ऊखल-बंधन लीला

मैया की रस्सी पूरी हो गयी थी और विश्व को मुक्ति देने वाला स्वयं बंधा खड़ा था ऊखल से। भगवान न बंधने की लीला करते रहे और अंत में बंध गये किन्तु उनका बन्धन भी दूसरों की मुक्ति के लिए था। इस प्रकार बंधकर उन्होंने संसार को यह बात दिखला दी कि मैं अपने प्रेमी भक्तों के अधीन हूँ।

रसिया श्रीकृष्ण और फाग उत्सव (होली)

बरसाना की लठामार होली, दाऊजी का रंग-रंगीला हुरंगा, होली की प्राचीनता का रूप संजोये जाव-बठैन का हुरंगा, और इन सबसे अधिक चमत्कारी फालैन का होलिका-दहन।

भगवान श्रीकृष्ण के माता-पिता वसुदेव व देवकी के कष्टों के कारण

धर्मपरायण वसुदेव जिनके पुत्र के रूप में साक्षात् भगवान विष्णु अवतरित हुए, वे कंस के कारागार में क्यों बन्द हुए? उन्होंने अपनी पत्नी देवकी के साथ ऐसा क्या अपराध किया था, जिससे कंस के द्वारा देवकी के छ: पुत्रों का वध कर दिया गया? वे छ: पुत्र कौन थे? वह कन्या कौन थी, जिसे कंस ने पत्थर पर पटक दिया था और वह हाथ से छूटकर आकाश में चली गयी और पुन: अष्टभुजा के रूप में प्रकट हुई?

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी और प्रेम का पन्थ पुष्टिमार्ग

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी का प्रादुर्भाव भारतभूमि पर उस समय हुआ जब भारतीय संस्कृति पर चारों ओर से यवनों के आक्रमण हो रहे थे। समाज में भगवान के प्रति अनास्था, संघर्ष व अशान्ति फैली हुई थी। लोगों के जीवन में आनन्द तो दूर रहा, कहीं भी न तो सुख था और न शान्ति। ऐसे समय में साक्षात् भगवदावतार श्रीमन्महाप्रभुजी श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने अवतरित होकर भारतवासियों के जीवन को रसमय और आनन्दमय बना दिया।

भगवान श्रीकृष्ण की सरस बाललीलाएं

जो गोपी अनेक जन्मों से अपने हृदय के जिन भावों को श्रीकृष्ण को अर्पण करने की प्रतीक्षा कर रही है, उसकी उपेक्षा वह कैसे करें? इन्हीं गोपियों की अभिलाषाओं को पूरा करने के लिए ही तो निर्गुण-निराकार परम-ब्रह्म ने सगुण-साकार लीलापुरुषोत्तमरूप धारण किया है। दिन भर के भूखे-प्यासे श्यामसुन्दर गोपी के साथ उसकी गौशाला में जाकर गोमय की टोकरियां उठवाने लगे। एक हाथ से अपनी खिसकती हुई काछनी को सम्हालते और दूसरे हाथ से गोमय की खाँच गोपी के सिर पर रखवाते। ऐसा करते हुए कन्हैया का कमल के समान कोमल मुख लाल हो गया। चार-पांच टोकरियां उठवाने के बाद कन्हैया बोले--गोपी, तेरा कोई भरोसा नहीं है। तू बाद में धोखा दे सकती है, इसलिए गिनती करती जा। और उस निष्ठुर गोपी ने कन्हैया के लाल-लाल मुख पर गोमय की हरी-पीली आड़ी रेखाएं बना दीं। अब तो गोपी अपनी सुध-बुध भूल गयी और कन्हैया के सारे मुख-मण्डल पर गोमय के प्रेम-भरे चित्र अंकित हो गये--’गोमय-मण्डित-भाल-कपोलम्।’

फल बेचने वाली सुखिया मालिन पर भगवान श्रीकृष्ण की कृपा

वैसे तो मालिन फल-सब्जी इत्यादि बेचकर मथुरा चली जाती किन्तु उसका मन गोकुल में नंदभवन में ही रह जाता। प्रात:काल उठते ही वह अपने ‘मन’ की खोज में फिर गोकुल आती और मनमोहन के साथ अपने मन को क्रीड़ा करते देखकर वह अपने-आप को भूल जाती। उसका मन कन्हैया को स्पर्श करने के लिए सदैव व्याकुल रहता। जब कन्हैया को ‘देखने-छूने’ की मालिन की चाह अपनी पराकाष्ठा को पहुँच गयी और अब उसे संसार में कन्हैया के सिवाय कुछ भी नहीं दिखने लगा, तब फिर कन्हैया के मिलन में क्या देर थी? अगर चाह असली हो तो कन्हैया तो चाहने वालों से दौड़कर लिपटने वाले हैं। अब मालिन की चाह में किसी प्रकार का आवरण नहीं रहा, उसकी चाह कृष्णमयी हो गयी थी।

भगवान श्रीकृष्ण की माखनचोरी लीला

भगवान श्रीकृष्ण लीलावतार हैं। व्रज में उनकी लीलाएं चलती ही रहती हैं। श्रीकृष्ण स्वयं रसरूप हैं। वे अपनी रसमयी लीलाओं से सभी को अपनी ओर खींचते हैं। गोपियां प्राय: नंदभवन में ही टिकी रहतीं हैं। ‘कन्हैया कभी हमारे घर भी आयेगा। कभी हमारे यहां भी वह कुछ खायेगा। जैसे मैया से खीझता है, वैसे ही कभी हमसे झगड़ेगा-खीझेगा।’ ऐसी बड़ी-बड़ी लालसाएं उठती हैं गोपियों के मन में। श्रीकृष्ण भक्तवांछाकल्पतरू हैं। गोपियों का वात्सल्य-स्नेह ही उन्हें गोलोकधाम से यहां खींच लाया है। श्रीकृष्ण को अपने प्रति गोपियों द्वारा की गयी लालसा को सार्थक करना है और इसी का परिणाम माखनचोरी लीला है।

श्रीकृष्ण एक, रूप अनेक

वे वसुदेव-देवकी और नन्द-यशोदा को सुख देने वाले पुत्र हैं; गोपबालकों व सुदामा जैसे दरिद्रों, उद्धव जैसे ज्ञानियों व अर्जुन जैसे वीरों के सखा है; गोपियों के प्राणनाथ हैं; राधा के लिए प्रेमी हैं; द्वारका की पटरानियों के प्रिय पति हैं, गौओं के अनन्य सेवक हैं; पशु-पक्षियों के बन्धु हैं; राक्षसों के काल हैं; ज्ञानियों के ब्रह्म हैं; योगियों के परमात्मा हैं; भक्तों के भगवान हैं; प्रेमियों के प्रेमी हैं; राजनीतिज्ञों में निपुण दूत हैं, शूरवीरों में महान पराक्रमी हैं, अशरण की शरण हैं और मुमुक्षुओं के लिए साक्षात् मोक्ष हैं।