भक्तवत्सल भगवान श्रीकृष्ण और ब्राह्मण कण्व
नन्दरानी यह नहीं जानतीं कि नन्दबाबा के पकड़े जाने पर भी उनका नीलमणि कभी का गोशाला के अन्दर पहुंचकर भोग अरोग रहा है। वह यह भी नहीं जानतीं कि जो अजन्मा है, अनादि है, अनन्त है, पूर्ण है, पुरुषोत्तम है, निर्गुण है, सत्य है, प्रत्येक कल्प में स्वयं अपने-आप में अपने-आप का ही सृजन करता है, पालन करता है और फिर संहार कर लेता है, वही विराट् पुरुष मेरा नीलमणि है। उन्हें तो यह भान ही नहीं है कि मेरी गोद में रहते हुए भी ठीक उसी क्षण मेरा नीलमणि अनन्त रूपों में अवस्थित है।
परब्रह्म की सृष्टिकामना और गोलोक का प्राकट्य
अव्यक्त से व्यक्त होना, एक से अनेक होना, निराकार से साकार होना, सूक्ष्म का स्थूल होना सृष्टि है। वे स्वयं ही अपने-आपकी, अपने-आप में, अपने-आप से ही सृष्टि करते हैं। वे ही स्रष्टा, सृज्य और सृष्टि हैं। उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। सृष्टि को अनादि माना जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि--यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। विभिन्न कल्पों में सृष्टि वर्णन में भी भिन्नता पाई जाती है। कभी आकाश से, कभी तेज से, कभी जल से और कभी प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण की प्रधानता से सृष्टि होती है और तमोगुण की प्रधानता से प्रलय होता है।
परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण से सृष्टि का आरम्भ
यह अनंत ब्रह्माण्ड परब्रह्म परमात्मा का खेल है। जैसे बालक मिट्टी के घरोंदे बनाता है, कुछ समय उसमें रहने का अभिनय करता है और अंत मे उसे ध्वस्त कर चल देता है। उसी प्रकार परब्रह्म भी इस अनन्त सृष्टि की रचना करता है, उसका पालन करता है और अंत में उसका संहारकर अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है। यही उसकी क्रीडा है, यही उसका अभिनय है, यही उसका मनोविनोद है, यही उसकी निर्गुण-लीला है जिसमें हम उसकी लीला को तो देखते हैं, परन्तु उस लीलाकर्ता को नहीं देख पाते।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा गौओं की जननी सुरभी की प्राकट्य लीला
गौ गोलोक की एक अमूल्य निधि है, जिसकी रचना भगवान ने मनुष्यों के कल्याणार्थ आशीर्वाद रूप से की है। अत: इस पृथ्वी पर गोमाता मनुष्यों के लिए भगवान का प्रसाद है। भगवान के प्रसादस्वरूप अमृतरूपी गोदुग्ध का पान कर मानव ही नहीं अपितु देवगण भी तृप्त होते हैं। इसीलिए गोदुग्ध को ‘अमृत’ कहा जाता है। गौएं विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती हैं और दुहने पर अमृत ही देती हैं। वे अमृत का खजाना हैं। सभी देवता गोमाता के अमृतरूपी गोदुग्ध का पान करने के लिए गोमाता के शरीर में सदैव निवास करते हैं। ऋग्वेद में गौ को ‘अदिति’ कहा गया है। ‘दिति’ नाम नाश का है और ‘अदिति’ अविनाशी अमृतत्व का नाम है। अत: गौ को अदिति कहकर वेद ने अमृतत्व का प्रतीक बतलाया है।
भगवान श्रीकृष्ण का गोलोकधाम
गोलोक ब्रह्माण्ड से बाहर और तीनों लोकों से ऊपर है। उससे ऊपर दूसरा कोई लोक नहीं है। ऊपर सब कुछ शून्य ही है। यह भगवान श्रीकृष्ण की इच्छा से निर्मित है। उसका कोई बाह्य आधार नहीं है। अप्राकृत आकाश में स्थित इस श्रेष्ठ धाम को परमात्मा श्रीकृष्ण अपनी योगशक्ति से (बिना आधार के) वायु रूप से धारण करते हैं। वहां न काल की दाल गलती है और न ही माया का कोई वश चलता है फिर माया के बाल-बच्चे तो जा ही कैसे सकते हैं। यह केवल मंगल का धाम है जो समस्त लोकों में श्रेष्ठतम है।
श्रीकृष्णावतार के समय देवी-देवताओं का पृथ्वी पर विभिन्न रूपों में जन्म
इस प्रकार लीला-मंच तैयार हो गया, मंच-लीला की व्यवस्था करने वाले रचनाकार, निर्देशक एवं समेटने वाले भी तैयार हो गए। इस मंच पर पधारकर, विभिन्न रूपों में उपस्थित होकर अपनी-अपनी भूमिका निभाने वाले पात्र भी तैयार हो गए। काल, कर्म, गुण एवं स्वभाव आदि की रस्सी में पिरोकर भगवान श्रीकृष्ण ने इन सबकी नकेल अपने हाथ में रखी। यह नटवर नागर श्रीकृष्ण एक विचित्र खिलाड़ी हैं। कभी तो मात्र दर्शक बनकर देखते हैं, कभी स्वयं भी वह लीला में कूद पड़ते हैं और खेलने लगते हैं।
श्रीराधा का गोलोकधाम से व्रज में अवतरण : कुछ अनछुए पहलू
भगवान श्रीकृष्ण ने गोपों और गोपियों को बुलाकर कहा--’गोपों और गोपियो ! तुम सब-के-सब नन्दरायजी का जो उत्कृष्ट व्रज है, वहां गोपों के घर-घर में जन्म लो। राधिके ! तुम भी वृषभानु के घर अवतार लो। वृषभानु की पत्नी का नाम कलावती है। वे सुबल की पुत्री हैं और लक्ष्मी के अंश से प्रकट हुई हैं। वास्तव में वे पितरों की मानसी कन्या हैं। पूर्वकाल में दुर्वासा के शाप से उनका व्रजमण्डल में गोप के घर में जन्म हुआ है। तुम उन्हीं कलावती की पुत्री होकर जन्म ग्रहण करो।
aaradhika.com के 50वें ब्लॉग के सम्बन्ध मे दो शब्द
मैं अपना 50वां ब्लॉग ‘श्रीकृष्णप्राणेश्वरी श्रीराधा’ रासेश्वर एवं रासेश्वरी श्रीराधाकृष्ण के युगल चरणकमलों में निवेदित करती हूँ। श्रीराधाकृष्ण के चरणों मैं मेरा शुरु से लगाव रहा है। इसीलिए मैंने अपनी वेबसाइट का नाम ‘श्रीकृष्ण की आराधिका--श्रीराधा’ से प्रेरित होकर ‘आराधिका’ (Aaradhika.com) रखा।
श्रीकृष्णप्राणेश्वरी श्रीराधा
श्रीराधा कौन हैं? श्रीराधा हैं--श्रीकृष्ण का सुख। श्रीराधा हैं--श्रीकृष्ण का आनन्द। भगवान का आनन्दस्वरूप ही श्रीराधा के रूप में अभिव्यक्त है। श्रीराधा न हों तो श्रीकृष्ण के आनन्दरूप की सिद्धि ही न हो। श्रीराधा चिदानन्द परमात्मा की मौज हैं, अन्तर का आह्लाद हैं, उसी आह्लाद की प्रकटरूपा श्रीराधा हैं।
श्रीधामवृन्दावन
श्रीधाम वृन्दावन भगवान श्रीराधाकृष्ण की रसमयी लीलाभूमि है। पुराणों में इसे व्रजमण्डलरूपी कमल की अत्यन्त सुन्दर कर्णिका कहा गया है। अत: कमल-कर्णिका के समान ही यह सुन्दरता, सुकुमारता एवं मधुरता का कोष है।