वैशाखमास में श्रीमाधव पूजन-विधि
वैशाखमास माधव को विशेष प्रिय है। इसलिए वैशाखमास को माधवमास भी कहते हैं। इस मास में मधु दैत्य को मारने वाले भगवान मधुसूदन की यदि भक्तिपूर्वक पूजा कर ली जाए तो मनुष्य लौकिक व पारलौकिक दोनों प्रकार के सुख प्राप्त करता है। व्रज में वैशाखमास का बहुत माहात्म्य है।
सेवक बनकर जनाबाई की सहायता करते भगवान
जनाबाई चक्की पीसते समय भगवान के ‘अभंग’ गाया करती थी। गाते-गाते जब वह अपनी सुध-बुध भूल जाती, तब उसके बदले में भगवान स्वयं चक्की पीसते और जनाबाई के अभंग सुनकर प्रसन्न होते। नदी से पानी लाते समय, चक्की से आटा पीसते समय, घर की झाड़ू लगाते समय और कपड़े धोते समय भगवान स्वयं जनाबाई का हाथ बंटाते थे।
तुलसीदासजी ने अपनी वातपीड़ा दूर करने के लिए रचा ‘हनुमानबाहुक’
वातपीड़ा दूर करने वाला रामबाण स्तोत्र 'हनुमानबाहुक', हनुमानबाहुक' के तीन पाठ मिटा देते हैं वातरोग, तुलसीदासजी ने 'हनुमानबाहुक' के रूप में हनुमानजी के दरबार में लगाया अपना प्रार्थना-पत्र, 'हनुमानबाहुक’ रूपी मन्त्रात्मक वन्दना से तुलसीदासजी की पीड़ा हुयी दूर, 'हनुमानबाहुक' पाठ की विधि।
भगवान श्रीकृष्ण का व्रज में अद्भुत माधुर्य एवं ऐश्वर्य
व्रज में श्रीकृष्ण की न तो कोई सेना थी, और न ही कोई अस्त्र-शस्त्र। न ही उनका उग्ररूप कभी प्रकट हुआ और न ही कोई युद्ध लम्बा चला। राक्षस आया और खेलते-खेलते दो घड़ी में ही कन्हैया ने उसका काम-तमाम कर दिया । इसीलिए ब्रह्माण्डपुराण में नारदजी ने कहा है--‘चक्रधारी नारायण चक्र धारण करके भी जिन असुरों का विनाश सहज में नहीं कर सकते, श्रीकृष्ण ने नयी-नयी बाललीला करते हुए उन सबका विनाश कर दिया। असुरमारन भी उनकी बाललीला का एक अंग था, वह भी खेल की एक पद्धति थी।’
त्रेतायुग की प्रतिज्ञा भगवान ने द्वापरयुग में पूरी की
हनुमानजी के मन में पूर्ण विश्वास था कि उनके आराध्य श्रीराम अपने भक्त की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अत: वे वहां से चल दिए और रामदल में आकर श्रीरामजी से अपनी ‘प्रतिज्ञा’ और गिरिराजजी की ‘व्यथा’ निवेदन की।
गिरिवर आप निराश न हों और मुझे क्षमा करें। द्वापरयुग के अंत में श्रीकृष्ण अवतार होगा, वे ही आपकी इच्छा पूर्ति करेंगे। जब इन्द्र की पूजा का खण्डन करके भगवान श्रीकृष्ण आपकी पूजा करवाएंगे तो इन्द्र कुपित होकर व्रज में उत्पात करने लगेगा। उस समय आप व्रजवासियों के रक्षक होंगे। मैं श्रीरामजी के पास जाकर विनती करुंगा। दीनबन्धु श्रीराम आपको दर्शन अवश्य देंगे।
व्रज के ठाकुर श्रीकृष्ण
आनन्द-अवतार श्रीकृष्ण में माधुर्य, सौन्दर्य और प्रेम का सुन्दर समावेश हुआ है। उनका धाम व्रजभूमि जो गोलोक के समान है, उसकी मीठी व्रजभाषा, उनकी नित्य किशोर वयस, वस्त्रों में सर्वश्रेष्ठ पीताम्बर, सबसे निराला मोरमुकुट, घुटनों तक शोभायमान वनमाला, पशुओं में सबसे उत्तम पशु गौ, वाद्यों में मधुर वाद्य मुरली, भोज्य-पदार्थों में मधुरतम माखन, वृक्षों में सुन्दर कदम्ब का वृक्ष, सरिताओं में मनोहर यमुनानदी--ये सभी उनके अवतार के सुन्दर योग थे।
करमाबाई की खिचड़ी
करमाबाई अपने गोपाल को अपने हृदयचक्षु (मन की आंखों) से भोग लगाते देखती थी। परमेश्वर गोपाल के रूप में करमाबाई की खिचड़ी का भोग लगाता था। करमाबाई अपने प्रभु के धाम पहुंच गयी पर उस कुटिया में मैया की खिचड़ी का स्वाद उस सर्वेश्वर जगन्नाथ को ऐसा लगा कि वह अपनी आप्तकामता को भूलकर रो-रोकर उसकी खिचड़ी के लिए पुकारता था--‘मैया री! मैं भूखा हूँ, मुझे खिचड़ी दे।’ आज उसकी कुटिया खाली पड़ी है, पर उसमें है एक प्यारी सी, नन्हीं-सी, भोली-सी गोपाल की मूर्ति। लोगों ने कई दिनों तक उस मूर्ति से रोने की आवाज को सुना था।
होली खेलें नन्दलाल
नीलसुन्दर श्रीकृष्ण के श्यामल अंग पर केसरजल की बूंदें ऐसी लग रही थीं मानो सावन की काली बदरिया पर अनेकों चांद उग रहे हों। व्रजांगनाओं ने श्रीकृष्ण की मुरली और पीताम्बर छीन लिया और उनको चुनरी उड़ा दी। श्रीराधा ने श्रीकृष्ण के मस्तक पर कुंकुम की बिन्दी व आंखों में काजल लगा कर मांग भर दी और नाक में नथ पहना दी। गोपियों ने श्रीकृष्ण के गालों पर गुलाल के बड़े-बड़े गुलचप्पे लगा दिए। श्रीकृष्ण ऐसे लग रहे थे मानो कोई नयी नवेली स्त्री हों। गोपियां कहती हैं कि अब इनको यशोदाजी के सामने ताली बजा-बजाकर नचाएंगे।
श्रीकृष्ण के प्रेम दीवाने
सांवले-सलौने श्रीकृष्ण ऊपर से ही मनमोहक नहीं हैं वरन् भीतर भी सुधारस से लबालब हैं। वे रसिक भक्तों के लिए सदा ही मधुरातिमधुर हैं। जिस समय वह मयूरकिरीट और मकराकृत कुण्डल से सजते हैं, पीताम्बर और वैजयन्तीमाला धारण करते हैं तथा ‘बैरन बँसरिया’ को मधुर अधरों पर धरते हैं, उनकी उस रूपमाधुरी पर मोहित हुए न जाने कितने प्रेम दीवाने अपना सब कुछ त्यागकर उन्हीं के होकर रह जाते हैं।
श्रीवल्लभाचार्यजी द्वारा रचित श्रीकृष्ण की नित्य स्तुति ‘श्रीनन्दकुमाराष्टक’
‘नन्दकुमाराष्टक’ महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी द्वारा रचित है। इसमें आनन्दकन्द व्रजचन्द की अनेक लीलाओं का मधुर वर्णन है। श्रीनन्दकुमार व्रजराज भक्तों के भय-भंजन हैं, दुष्ट-निकंदन हैं, जन-मन-रंजन हैं। जो वैष्णवभक्त नित्यप्रति प्रेम से इस नन्दकुमाराष्टक का पाठ करते हैं, उन्हें मानसिक शान्ति प्राप्त होती है व किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता तो और देहत्याग के बाद मोक्ष को प्राप्त होते हैं।