श्रीराम के लिए हनुमानजी ने धारण किए विविध रूप

वानर होने पर भी दास्य-भक्ति के प्रताप से हनुमानजी देवता बन गए।

श्रीराम की सेवा के लिए शंकरजी ने लिया हनुमान का अवतार

हनुमन्नाटक के एक प्रसंग में रावण मन-ही-मन यह सोचता है कि मेरे दसों सिरों को चढ़ाने से शिवजी तो प्रसन्न हो गए, परन्तु एकादश रुद्र को मैं संतुष्ट न कर सका (हनुमानजी ग्यारहवें रुद्र के अंश माने जाते हैं); क्योंकि मेरे पास ग्यारहवां सिर था ही नहीं। इसी कारण शिवकोप से ही मेरी लंका का दहन हुआ। मैंने शिव और रुद्र में भेद किया, मेरी मति मारी गयी थी जो मैंने ऐसा किया।

त्रेतायुग की प्रतिज्ञा भगवान ने द्वापरयुग में पूरी की

हनुमानजी के मन में पूर्ण विश्वास था कि उनके आराध्य श्रीराम अपने भक्त की प्रतिज्ञा अवश्य पूरी करेंगे। अत: वे वहां से चल दिए और रामदल में आकर श्रीरामजी से अपनी ‘प्रतिज्ञा’ और गिरिराजजी की ‘व्यथा’ निवेदन की। गिरिवर आप निराश न हों और मुझे क्षमा करें। द्वापरयुग के अंत में श्रीकृष्ण अवतार होगा, वे ही आपकी इच्छा पूर्ति करेंगे। जब इन्द्र की पूजा का खण्डन करके भगवान श्रीकृष्ण आपकी पूजा करवाएंगे तो इन्द्र कुपित होकर व्रज में उत्पात करने लगेगा। उस समय आप व्रजवासियों के रक्षक होंगे। मैं श्रीरामजी के पास जाकर विनती करुंगा। दीनबन्धु श्रीराम आपको दर्शन अवश्य देंगे।

श्रीहनुमानजी का राम-नाममय विग्रह

श्रीरामदूत हनुमानजी का विग्रह राम-नाममय है। उनके रोम-रोम में राम-नाम अंकित है। उनके वस्त्र, आभूषण, आयुध--सब राम-नाम से बने हैं। उनके भीतर-बाहर सर्वत्र आराध्य-ही-आराध्य हैं। उनका रोम-रोम श्रीराम के अनुराग से रंजित है। हनुमानजी भगवान श्रीराम से कहते हैं कि आपका नाम जप करते हुए मेरा मन कभी तृप्त नहीं होता--’त्वन्नामजपतो राम न तृप्यते मनो मम।’ राम मन्त्र की एक लाख आवृत्तियों के पुरश्चरण के बाद ही हनुमानजी सीताजी की खोज के लिए लंकापुरी गये थे और इस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली।

चौबीस देवताओं के चौबीस गायत्री मन्त्र

देवताओं की गायत्रियां वेदमाता गायत्री की छोटी-छोटी शाखाएं है, जो तभी तक हरी-भरी रहती हैं, जब तक वे मूलवृक्ष के साथ जुड़ी हुई हैं। वृक्ष से अलग कट जाने पर शाखा निष्प्राण हो जाती है, उसी प्रकार अकेले देव गायत्री भी निष्प्राण होती है, उसका जप महागायत्री (गायत्री मन्त्र) के साथ ही करना चाहिए।

गायत्री मन्त्र के चमत्कारी चौबीस अक्षर

गायत्री वेदजननी गायत्री पापनाशिनी। गायत्र्या: परमं नास्ति दिवि चेह च पावनम्।। (शंखस्मृति) अर्थात्--‘गायत्री वेदों की जननी है। गायत्री पापों का नाश करने वाली है। गायत्री से...

रावण का उत्कर्ष और पतन

अभिमानी दशानन ने कैलासपर्वत को मूल से उखाड़कर अपने कंधों पर उठा लिया। पर्वत हिलते देखकर शिवजी ने कहा--’यह क्या हो रहा है? पार्वतीजी ने हंसते हुए कहा--’आपका शिष्य आपको गुरुदक्षिणा दे रहा है।’ यह अभिमानी रावण का कार्य है, ऐसा जानकर शिवजी ने उसे शाप देते हुए कहा--’अरे दुष्ट! शीघ्र ही तुझे मारने वाला उत्पन्न होगा।’ शिवजी ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया। दशानन का कंधा और हाथ पर्वत के नीचे दब गए तो वह जोर-जोर से रुदन करने लगा। दीर्घकाल तक रुदन करते-करते उसने भगवान शंकर की स्तुति की, जो ताण्डव स्तुति के नाम से प्रसिद्ध है।

श्रीहनुमान को भगवान श्रीराम का आलिंगनदान

भगवान श्रीराम ने हनुमानजी के बुद्धिकौशल व पराक्रम को देखकर उन्हें अपना दुर्लभ आलिंगन प्रदान किया। भगवान श्रीराम हनुमानजी से कहते हैं--‘संसार में मुझ परमात्मा का आलिंगन मिलना अत्यन्त दुर्लभ है। हे वानरश्रेष्ठ! तुम्हे यह सौभाग्य प्राप्त हुआ है। अत: तुम मेरे परम भक्त और प्रिय हो।’

सहस्त्रनाम-तुल्य ‘श्रीराम’-नाम और भगवान श्रीराम के १०८ नाम

भगवान के सहस्त्रनामों के समान फलदायी ‘श्रीराम’ के १०८ नाम