भगवान श्रीराम के धाम अयोध्या में स्थित कनक भवन एक पौराणिक आध्यात्मिक स्मारक है । कनक भवन त्रेता और द्वापरयुग की अनेक घटनाओं का साक्षी है और कलियुग में यह कनक भवन भगवान श्रीराम का साक्षात् विग्रह है इसलिए यह श्रीराम-भक्तों की आस्थास्थली रहा है । कनक भवन में श्रीसीतारामजी की मूर्तियों में अद्भुत दिव्यता और आकर्षण है, इसीलिए यहां के श्रीविग्रहों के दर्शनों से भक्तों के मन को सच्ची शान्ति प्राप्त होती है; यही कारण है कि कनक भवन युगों बाद भी जन-मानस का तीर्थस्थल बना हुआ है ।
त्रेता और द्वापरयुग से है कनक भवन का सम्बन्ध
त्रेतायुग में कनक भवन का निर्माण श्रीराम के लीला-निकेतन के रूप में महारानी कैकेयी के अनुरोध पर राजा दशरथ ने करवाया था । जब श्रीराम और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ वन चले गए तो महारानी कैकेयी को स्वप्न में एक स्वर्ण-भवन का आभास हुआ । कैकेयी ने स्वप्न के स्वर्ण-भवन के अनुरुप ही एक भवन का निर्माण कराने का राजा दशरथ से अनुरोध किया । राजा दशरथ ने देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा की देखरेख में सर्वश्रेष्ठ कारीगरों से कलात्मक कनक भवन का निर्माण करवाया ।
सीता-स्वयंवर के बाद जब श्रीराम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न विवाहित होकर अयोध्या लौटे तो महारानी कैकेयी ने उस नव-निर्मित कनक भवन को अपनी बहू सीताजी को भेंट कर दिया । इसके बाद कनक भवन श्रीराम और सीताजी का आवास बन गया ।
भगवान श्रीराम के साकेत गमन के बाद उनके पुत्र कुश ने कनक भवन में श्रीराम और सीताजी की मूर्तियां स्थापित कीं । कालांतर में अयोध्या का रूप बदल गया और कनक भवन जर्जर होकर ढह गया ।
कनक भवन से प्राप्त एक शिलालेख के अनुसार द्वापरयुग में जब श्रीकृष्ण जरासंध का वध करके तीर्थयात्रा करते हुए अयोध्या आए तो कनक भवन पर बने एक टीले पर पहुंचे । वहां उन्होंने एक देवी को तपस्या करते हुए देखा । श्रीकृष्ण ने टीले से श्रीराम और सीताजी की मूर्तियां निकालकर उस देवी को भेंट कर दीं और द्वारका चले गए । उस देवी ने कनक भवन का जीर्णोद्धार करवा कर वे मूर्तियां पुन: स्थापित कर दीं । इस प्रकार कलियुग के प्रारम्भ होने तक इन मूर्तियों की कनक भवन में सेवा होती रही ।
कालांतर में सम्राट विक्रमादित्य ने आज से 2050 वर्ष पहले कनक भवन का पुन:निर्माण करवाया । गुप्तकाल में सम्राट समुद्रगुप्त ने अयोध्या को अपनी राजधानी बनाकर कनक भवन का जीर्णोद्धार कराया । सन् 1761 में कवि रसिकअली जब अयोध्या आए और कनक भवन में दर्शन करने गए तो उन्हें समाधि लग गई और साक्षात् सीतारामजी के दर्शन हुए । उन्होंने भी वहां जीर्णोद्धार का काम शुरु करवाया पर पैसे के अभाव में वह पूरा नहीं हो सका ।
अयोध्या के वर्तमान कनक भवन के निर्माण का प्रारम्भ सन् 1944 में ओरछा के पूर्व नरेश सवाई महेन्द्र प्रतापसिंहजी की धर्मपत्नी महारानी वृषभानु कुंवरी द्वारा शुरु करवाया गया और मन्दिर में विक्रमादित्यकालीन मूर्तियों की पुन:स्थापना करवाई गई तथा सीतारामजी की दो नई मूर्तियों की भी प्राण-प्रतिष्ठा करवायी । महारानी वृषभानु कुंवरी ने मूर्तियों के लिए छ: लाख रूपये के स्वर्णाभूषण और जवाहरात भी कनक भवन को अर्पण किए । महारानी ने शेख कादर बख्श के निर्देशन में कनक भवन के ऊपर अष्टकुंजों का निर्माण भी कराया जिसमें सेविकाओं के आठ सुन्दर चित्र बने हुए हैं । इस प्रकार कनक भवन के गर्भगृह में प्राचीन मूर्तियों के साथ विक्रमादित्यकालीन मूर्तियां भी अवस्थित हैं ।
महारानी वृषभानु कुंवरी द्वारा बनावाये गये कनक भवन को 19 मई 1991 को सौ वर्ष पूरे हो गये हैं । समय के थपेड़ों ने इसकी स्वर्णिम आभा को थोड़ा-बहुत आघात अवश्य पहुंचाया है ।