radha krishna

एक बार भगवान शंकर ने परमात्मा श्रीकृष्ण से पूछा—‘नाथ ! आपके युगलस्वरूप की प्राप्ति (साक्षात्कार) किस उपाय से हो सकती है, कृपा करके बतलाइए ?’

भगवान श्रीकृष्ण ने शंकर जी से कहा—‘हम दोनों (श्रीकृष्ण और श्रीराधा) के शरणागत होकर जो ‘गोपी भाव’ से हमारी उपासना करते हैं, उन्हीं को हमारी प्राप्ति होती है, अन्य किसी को नहीं । गोपी भाव की प्राप्ति के लिए श्रीराधा की उपासना करनी चाहिए और यदि साधक मुझे वश में करना चाहते हैं तो मेरी प्रिया श्रीराधा की शरण ग्रहण करे ।’ क्योंकि—

‘राधा मेरी परम आत्मा, जीवन-प्राण नित्य आधार ।
राधा से मैं प्रेम प्राप्त कर, करता निज जन में विस्तार ।।
मैं राधा हूँ, राधा मैं है, राधा-माधव नित्य अभिन्न ।
एक सदा ही बने सरस दो, करते लीला ललित विभिन्न ।।’ (पद-रत्नाकर)

‘गोपी भाव’ किसे कहते हैं ?

‘गोपी भाव’ का अर्थ जानने से पहले यह जानना जरुरी है कि ‘गोपी’ कहते किसे हैं ? 

गोपी उसे कहते हैं जो अपनी समस्त इन्द्रियों के द्वारा केवल भक्तिरस का ही पान करे । भगवान को निर्गुण से सगुण, निराकार से साकार, भोक्ता से भोग्य बनाकर व्रज-भूमि में लाने वाली गोपियां ही हैं । 

अपने सुख के लिए मनुष्य बहुत कुछ त्याग करता है; परंतु श्रीकृष्ण-सुख के लिए सब कुछ त्याग करना—यही गोपियों की विशेषता थी और यही गोपी भाव है ।

बंदौं गोपी-भाव, जो नित प्रियतम-सुख हेतु ।
बढ़त पलहिं पल भंग करि सब मरजादा-सेतु ।। (पद रत्नाकर)

गोपियों की प्रत्येक इन्द्रियां—बुद्धि, उसका मन, प्राण, चित्त, अहंकार और उसकी सारी इन्द्रियां प्रियतम श्यामसुन्दर के सुख के साधन हैं । उनका जीवन केवल श्रीकृष्ण-सुख के लिए है । सम्पूर्ण कामनाओं से रहित उन गोपियों को श्रीकृष्ण को सुखी देखकर अपार सुख होता है । उनके मन में अपने सुख के लिए कल्पना भी नहीं होती । उनका जागना-सोना, खाना-पीना, चलना-फिरना, श्रृंगार करना, गीत गाना, बातचीत करना–सब श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिए है । 

गोपियों का श्रृंगार करना भी भक्ति है । यदि परमात्मा को प्रसन्न करने के विचार से श्रृंगार किया जाए तो वह भी भक्ति है । जिस प्रकार पुजारी पूजा के पात्रों को धो-साफ कर उन्हें चमका देता है, सजाता है; उसी तरह गोपियों का विश्वास था कि यह शरीर-सेवा श्रीकृष्ण-सेवा के लिए ही है । उनका शरीर भी श्रीकृष्ण सेवा के लिए एक आवश्यक उपचार (साधन) है; इसलिए वे शरीर रूपी पात्र को नित्य उज्ज्वल करके श्रीकृष्ण पूजा के लिए वस्त्र-आभूषणों से सुसज्जित करती हैं । 

साधना के क्षेत्र में देह को तुच्छ समझ कर शरीर की सेवा, साज-सज्जा न करने की सीख दी जाती है; परंतु गोपी-भाव की अनोखी प्रणाली है । इसमें देह की सेवा भी श्रीकृष्ण भजन में सहायक मानी गई है । 

भगवान श्रीकृष्ण ने स्वयं अर्जुन से कहा है—‘गोपियां अपने अंगों की रक्षा या देखभाल भी इसलिए करती हैं कि उनसे मुझे सुख मिलता है । गोपियों को छोड़ कर मेरा निगूढ़ प्रेमपात्र और कोई नहीं है ।’

श्रीकृष्ण ही गोपियों के मन और प्राण हैं । इसलिए गोपी को यह पता नहीं लगाना पड़ता कि भगवान किस बात से प्रसन्न होंगे । उसके अंदर भगवान का मन ही काम करता है । गोपियां उद्धवजी से कहती हैं कि यहाँ तो श्याम के सिवा और कुछ है ही नहीं, सारा हृदय तो उनसे भरा है, रोम-रोम में तो वह छाया है, सोते-उठते, बैठते वह कभी साथ छोड़ता ही नहीं—

स्याम तन, स्याम मन, स्याम है हमारौ धन,
आठौ जाम ऊधौ ! हमैं स्याम ही सौं काम है ।।

गोपियों का यह भाव प्रेम की अत्यन्त ऊंची स्थिति का द्योतक है । यह गोपी-भाव या गोपी-प्रेम सर्वस्व त्याग की भावना पर ही प्रतिष्ठित होता है । गोपी-प्रेम विलक्षण है। इसमें ‘भोग’ है पर ‘अंग-संयोग’ नहीं; ‘श्रृंगार’ है पर ‘राग’ नहीं; ‘जगत’ है पर ‘माया’ नहीं । 

‘गोपी-भाव’ की प्राप्ति का उपाय’ 

गोपी-प्रेम बड़ा ही पवित्र है, इसमें अपना सर्वस्व प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में न्यौछावर करना पड़ता है । गोपी भाव के साधक को न तो मोक्ष की इच्छा होती है और न ही नरक का भय । उनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य प्रियतम श्रीकृष्ण को प्रिय लगने वाले कार्य करना हो जाता है । 

जो मनुष्य गोपी भाव की साधना कर युगलस्वरूप का साक्षात्कार करना चाहते हैं, भाई हनुमानप्रसाद जी पोद्दार ने उनके लिए इन महत्वपूर्ण साधनों को अपने जीवन में अपनाने के लिए कहा है—

कठिन काम-वासना-पाप का, करके पूरी तरह विनाश ।
दंभ-दर्प, अभिमान-लोभ-मद, क्रोध-मान का करके नाश ।।
परचर्चा का परित्याग कर, विषयों का तज सब अभिलास ।
मधुमय चिन्चन नाम रूप का, मन में प्रभु पर दृढ़ विश्वास ।।
हरि-गुण-श्रवण, मनन लीला का, लीला-रस में रति निष्काम ।
प्रियतम-भाव सदा मोहन में, प्रेम-कामना शुचि, अभिराम ।।
सर्व-समर्पण करके हरि को, भोग-मोक्ष का करके त्याग ।
हरि के सुख में ही सुख सारा, हरिचरणों में ही अनुराग ।।
पावन प्रेम-पंथ के साधक करके तव लीलाचिन्तन ।
श्यामा-श्याम-कृपा से फिर वे कर पाते लीला-दर्शन ।। (पद-रत्नाकर)

(१) भगवान श्रीकृष्ण को ही पूर्ण परमेश्वर मान कर उन्हीं को अपना परम आराध्य बनाना चाहिए और जगद्गुरु श्रीकृष्ण को ही अपना गुरु समझें ।

(२) भगवान श्रीकृष्ण में प्रियतम भाव रखें ।

(३) भगवान के प्रति सर्वस्व समर्पण हो ।

(४) अपने सुख की इच्छा का पूर्ण त्याग करें ।

(५) भगवान के सुख के लिए ही जीवन के सारे कार्य-व्यवहार हों ।

(६) भोगों में आसक्ति का त्याग करें । जीवन सादा व त्यागमय हो ।

(७) काम-क्रोध, लोभ से रहित होकर अभिमानशून्यता को अपने जीवन में लाएं । भगवान के सामने अपने को दीनों में भी सबसे दीन, तिनके से भी छोटा (तुच्छ) मानें ।

(८) सबका सम्मान करना पर स्वयं कभी मान न चाहना और न स्वीकार करना ।

(९) प्रतिदिन नियत संख्या में ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ।।’ इस महामंत्र का सुविधानुसार जप करना ।

(१०) अपने को श्रीराधा की किंकरी (दासी) मान कर आठों पहर श्रीराधामाधव की सेवा में अपने को खो देना ।

(११) अपनी साधना और उससे मिलने वाले दिव्य अनुभवों को गुप्त रखें ।

(१२) अपमान को अमृत मान कर उसका सदैव आदर करें ।

(१३) चित्त से क्षण भर के लिए भी भगवान न हटें ।

(१४) प्रत्येक परिस्थिति में भगवान की कृपा का दर्शन करते हुए आनंदमग्न रहना ।

(१५) जीवन का प्रत्येक क्षण, प्रत्येक पदार्थ, प्रत्येक सम्बन्ध, प्रत्येक परिस्थिति, प्रत्येक विचार और प्रत्येक कार्य—केवल भगवान से सम्बन्धित हो ।

(१६) साधक का स्वभाव अति विनम्र होना चाहिए । 

श्रीराधा-कृष्ण युगलस्वरूप की कृपा (साक्षात्कार) प्राप्ति के लिए साधक को भगवान द्वारा बताए गए इस मार्ग के सभी पहलुओं पर खरा उतरना होगा, तभी वह उनकी कृपा का अधिकारी बन सकेगा ।

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