भक्त को प्रेम-रस में डुबा कर, अहंता-ममता को भुला कर, दीनतापूर्वक प्रभु की सेवा कराने वाला भक्ति मार्ग पुष्टिमार्ग कहलाता है । पुष्टिमार्ग में मनुष्य का एकमात्र धर्म भगवान श्रीकृष्ण की सेवा है । महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी ‘चतु:श्लोकी’ के आरम्भ में ही आज्ञा करते हैं—
सर्वदा सर्वभावेन भजनीयो व्रजाधिप: ।
स्वस्यायमेव धर्मो हि नान्य: क्वापि कदाचन ।।
अर्थ–हर समय, सर्वभाव से (पति, पुत्र, धन, घर–सब श्रीकृष्ण ही है, इस भाव से) ब्रजेश्वर श्रीकृष्ण ही भजन करने योग्य हैं । अपना यही धर्म है । कृष्ण-सेवा के अलावा पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का कोई अन्य धर्म तथा कर्तव्य नहीं है ।
जिस प्रकार वृक्ष के मूल (जड़) में जल सींचने से सम्पूर्ण वृक्ष को जल प्राप्त हो जाता है; उसी प्रकार जिसने प्रीतिपूर्वक कृष्ण-सेवा की, उसने परमात्मा के अंश भूत समस्त जीवों की सेवा कर ली ।
पुष्टिमार्ग में प्रभु की पूजा-अर्चना को ‘सेवा’ कहा जाता है । कृष्ण-सेवा का वास्तविक अर्थ है—चित्त को प्रभु में तल्लीन करना । इस भाव की सिद्धि के लिए पुष्टिमार्गीय वैष्णव प्रभु के अनेक मनोरथ करता है । प्रभु को आरती, स्नान, भोग, वस्त्रालंकार, पुष्पमाला, कीर्तन और विभिन्न उत्सव आदि से रिझाया जाता है । पुष्टि-भक्ति की सिद्धि प्रभु के चरण में सर्वस्व—तन-धन का समर्पण करने से होती है ।
महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी ने वैष्णवों के लिए जो मार्ग प्रशस्त किया, वह मार्ग दीनता का है; क्योंकि मनुष्य के दैन्य भाव से ही भगवान प्रसन्न होते हैं और मनुष्य की देह को सिद्ध करके स्वयं उसके हृदय में पधारते हैं । तब भक्त को सेवा के समय भगवान का प्रत्यक्ष अनुभव होता है और अन्य समय वह भगवान की विभिन्न लीलाओं का अपने हृदय में दर्शन करता है ।
श्रीमद् वल्लभाचार्य जी ने पुष्टिमार्गीय वैष्णवों के लिए जो कर्तव्य निश्चित किए हैं, वे इस प्रकार हैं—
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णव को अपनी वैष्णवता गुप्त रखनी चाहिए, प्रसिद्धि के लिए उसका बखान नहीं करना चाहिए ।
▪️ ब्राह्मणों को जैसे यज्ञोपवीत सदा धारण करना चाहिए; उसी प्रकार पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को सदैव तुलसी की कंठी धारण करनी चाहिए । कंठी ब्रह्म-रुपिणी है, इसको धारण करने से कभी भी देह में अपवित्रता नहीं आती है । कंठी धारण किए बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करना चाहिए ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णव को भगवान के प्रसादी कुंकुम से भगवान के चरण की आकृति का तिलक सदैव धारण करना चाहिए । इससे मनुष्य के कर्म अनन्त को प्राप्त होते हैं ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णव को प्रात:काल भगवान की सेवा में अवश्य ही धोती व बगलबंदी धारण करनी चाहिए ।
▪️ स्त्री, पुत्र, अपना जीवन, प्राण, जप, तप, सदाचार—जो कुछ अपने को प्रिय लगता हो, उन सब को भगवान के चरणों में निवेदन करना चाहिए यद्यपि भगवान को तो केवल अपने मन का ही समर्पण करने वाले भक्त प्रिय लगते हैं । समर्पण की सर्वोत्कृष्ट स्थिति ब्रह्मसम्बन्ध (आत्म निवेदन) है । ब्रह्मसम्बन्ध करने मात्र से जीव के दोषों की निवृत्ति हो जाती है । भगवान की सेवा का अधिकार ब्रह्मसम्बन्ध से ही प्राप्त होता है ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णव बाल-भाव एवं गोपी-भाव से प्रभु की सेवा करे । सेवा के अंग हैं–भोग, राग तथा श्रृंगार । भोग में विविध व्यंजनों का भोग प्रभु को लगाए । राग में वल्लभीय (अष्टछाप) भक्त कवियों के पदों का कीर्तन करे तथा श्रृंगार में ऋतुओं के अनुसार भगवान के विग्रह का श्रृंगार करे ।
▪️ अपने उपयोग में ली गई वस्तु को प्रभु को समर्पण नहीं करना चाहिए ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णव को सदैव ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’—इस अष्टाक्षर महामंत्र का उच्चारण करते रहना चाहिए । रात्रि को विश्राम से पूर्व इस अष्टाक्षर महामंत्र का १०८ बार जप अवश्य करना चाहिए ।
▪️ श्री यमुनाजी प्रभु की पुष्टि-शक्ति हैं । इस कारण पुष्टिमार्ग पर चलने के लिए उनका प्रथम स्थान है । नित्य प्रथम ‘यमुनाष्टक’ का पाठ करना चाहिए । ‘श्री कृष्णाश्रय’ और ‘श्री सर्वोत्तम स्तोत्र’ का पाठ पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को गायत्री के समान सिद्धि प्रदान करता है ।
▪️ पुष्टिमार्ग में जैसी भक्ति भगवान श्रीकृष्ण की करी जाती है, वैसी ही भक्ति अपने आचार्य श्री की करनी चाहिए; क्योंकि इस मार्ग में भगवान श्रीकृष्ण का ज्ञान देने वाले गुरु महाप्रभु जी ही हैं ।
सूरदास जी ने इस भाव को अपने इस पद में प्रकट किया है—
दृढ़ इन चरनन केरो भरोसो ।
श्रीवल्लभ नख चन्द्र छटा बिनु सब जग माहि अंधेरो ।
साधन और नहीं या कलि में जासों होत निवेरो ।
सूर कहा कहे विविध आंधरो, बिना मोल को चेरो ।।
▪️ भगवान की सेवा के लिए पवित्रतम वस्तुएं ही सेवनीय हैं । उत्तम सात्विक अन्न, उत्तम जल (कुएं का जल) आदि उत्तम सामग्री प्रभु को समर्पित करके ही अपने उपयोग में लेनी चाहिए । प्रसादी वस्तुओं का सेवन करने वाले सांसारिक माया पर भी जीत हासिल कर लेते हैं ।
▪️ अभक्ष्य वस्तुओं (मांस, मदिरा, गुटखा, तम्बाकू आदि) को सदा के लिए त्याग देना चाहिए; क्योंकि इनसे प्रभु अप्रसन्न होते हैं ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का कर्तव्य है कि वह असमर्पित वस्तुओं को सर्वथा त्याग दे । इस कलिकाल में भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कोई भी वस्तु निर्दोष नहीं है । वस्तुओं में भी दोष रहते हैं । अत: जब कोई भी वस्तु भगवान को अर्पण करके ग्रहण की जाती है तो वह श्रीकृष्ण के सम्बन्ध से उसी प्रकार दोषरहित हो जाती है; जैसे गंगा जी में सैकड़ों नदी-नालों का जल मिल कर गंगाजल हो जाता है ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को भगवान के प्रसादी अन्न से पितरों का श्राद्ध करना चाहिए ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को दूसरे देवताओं का भजन-पूजन, स्वयं वहां पर जाना तथा किसी भी कार्य के लिए उनसे प्रार्थना करना—इन तीन बातों को त्याग देना चाहिए । यदि कभी विपत्ति आये तो उसे प्रभु की लीला समझे, घबरा कर अन्य देवताओं की आराधना करने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि ‘प्रभु: सर्वसमर्थो हि’ अर्थात् प्रभु सर्वसमर्थ हैं । भगवान श्रीकृष्ण का भजन करने वाले के लिए कुछ भी अप्राप्य नहीं होता है ।
▪️ महाप्रभु जी ने आज्ञा की है कि सदैव वैष्णवजन का ही संग करे । हृदय में विषयों के प्रति वैराग्य रखे । संतोष धारण कर सदैव भगवान श्रीकृष्ण का ही भजन करना चाहिए ।
▪️ पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को चिंता से मुक्त कराने के लिए महाप्रभु जी ने कहा है—‘ऐसी ही प्रभु की लीला है’—ऐसा समझ कर चिंता नहीं करनी चाहिए । चिंता में भजन और ठाकुर जी का स्मरण छूट सकता है; इसलिए चिंता छोड़ कर सर्वात्म भाव से भगवान श्री गोकुलेश्वर कृष्ण का भजन व स्मरण करना चाहिए ।
▪️ पुष्टिमार्ग में महाप्रभु श्रीमद् वल्लभाचार्य जी के वंशजों (गोस्वामी बालकों) का भी वही स्वरूप है, जो महाप्रभु जी का है, उनमें अंतर नहीं करना चाहिए ।
▪️ प्रत्येक पुष्टिमार्गीय वैष्णव का कर्तव्य है कि ‘ब्रह्मसम्बन्ध जयन्ती’ ( श्रावण शुक्ल एकादशी) के दिन प्रभु को तथा दूसरे दिन महाप्रभुजी और गोस्वामी बालकों को पवित्रा अवश्य धरावें ।
▪️ वैष्णवों के घर आगमन पर पुष्टिमार्गीय वैष्णवों को उत्सव करना चाहिए; क्योंकि वैष्णवों के हृदय में भगवान विराजते है । इससे सत्संग की प्राप्ति होती है । जितना समय सत्संग में जाए, वही सच्चा जीवन है ।
▪️ इस पृथ्वी पर माता-पिता प्रत्यक्ष देवता हैं । अत: उनका सम्मान व आज्ञा पालन अवश्य करें ।
‘कृष्ण-सेवा सदा कार्या’ अर्थात् नित्य कृष्ण सेवा को छोड़कर पुष्टिमार्गीय वैष्णवों का न कोई और धर्म है और न ही कर्तव्य । अपनी देह के सुख को त्याग करके, ठाकुर जी को सुख मिले—इस भाव से भगवान की सेवा करनी चाहिए । यंत्र के समान या कर्मकाण्ड के रूप में या बोझ मान कर केवल खानापूर्ति के लिए भगवान की सेवा नहीं करनी चाहिए ।