जन्म सुत को होत ही आनंद भयो नंदराय।
महा-महोत्सव आज कीजै बाढ्यो मन न रहाय।।

विप्र वैदिक बोलिकें करि स्नान बेठे आय।
भाव निर्मल पहरि भूषण स्वस्ति वचन पढ़ाय।।

जातकर्म कराय विधिसों पितर देव पुजाय।
करि अलंकृत द्विजन को द्वै लक्ष दीनी गाय।।

सात पर्वत तिलन के करि रत्न ओघ मिलाय।
कर कनिक अंबरन आवृत दीने विप्र बुलाय।।
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नंद के घर कृष्ण आये धर्म सब प्रकटाय।
गोप नाचत दूध दहि घृत नीर सरस न्हवाय।।
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सकल ब्रज में भइ संपत्ति रमारूप बसाय।
करन लीला रसिक प्रीतम रह्यो ब्रज में छाय।।

धनि शुकमुनि धन भागवत धन्य यही अध्याय।
धन्य धन्य प्रीतम रसिक गाइ सरस बनाय।।

परमात्मा श्रीकृष्ण परमानंद के स्वरूप हैं। श्रीकृष्ण में आनन्द के सिवा कुछ नहीं है। भगवान श्रीकृष्ण के श्रीअंग में और उनके नाम में आनन्द ही है। वे नंदबाबा के घर प्रकट हुए हैं। ‘नंद’ शब्द का अर्थ है–जो दूसरों को आनन्द देता है। मधुर वाणी, विनय, सरल स्वभाव, उदारता आदि सद्गुणों से सभी को जो आनन्द देते हैं, उन्हें नंद कहते हैं। जो सबको आनन्द देता है उसे सबका आशीर्वाद मिलता है।

वसुदेवजी जब बालकृष्ण को गोकुल में लाए तब नंदबाबा सोये हुए थे। ब्राह्ममुहुर्त में नंदबाबा को एक सुन्दर स्वप्न दीखा। नंदबाबा ने स्वप्न में देखा कि वे गायों की सेवा कर रहे हैं। उनके घर बड़े-बड़े ऋषि-महात्मा आए हुए हैं और वे नंदबाबा को आशीर्वाद दे रहे हैं। यशोदाजी की गोद में एक अति सुन्दर बालक खेल रहा है। नंदजी निद्रा से जागे। नंदजी के घर में भगवान नारायण की पूजा होती थी। वह सोचने लगे भगवान नारायण से भी सुन्दर कौन हो सकता है। मैं गायों की सेवा करता हूँ अत: गायों के और भगवान नारायण के आशीर्वाद से ही इतना सुन्दर बालक मेरा पुत्र बनकर आया है। अति आनंद में नंदबाबा की समाधि लग गई। फिर वह ब्राह्ममुहुर्त में गोष्ठ में गायों की सेवा करने चले गये।

यशोदामाता के समक्ष अतिशय प्रकाश फैला। नंदजी की बहिन सुनंदाजी को यशोदाजी की गोद में बालकृष्ण की झाँकी हुई। वह दौड़ती हुई गौशाला में भाई को खबर करने आईं।

‘भैया, भैया लालो भयो है’
(ब्रज में शिशुओं को लाला कहते हैं।)

नंदबाबाको लगा किसी ने उनके कानों में अमृत उड़ेल दिया है और उनके चारों ओर अमृत का महासागर लहराने लगा। उनके प्राण अपने पुत्र का मुख देखने के लिए व्याकुल हो उठे। वह तुरन्त गोष्ठ से नंदमहल की ओर दौड़ पड़े। सर्वत्र आनन्द ही आनन्द छा गया। उपनन्दजी ने ब्राह्मणों को बुलाने के लिए दूत भेजे। सहनाई वाले, नगारे वाले बुलाए गए। तोरणद्वार के पास नगारे वाले डंका बजाकर समस्त ब्रज में श्रीकृष्ण जन्म की घोषणा करने लगे। नगारों का डंका व मधुर सहनाई की रागिनी नंदमहल की मणिमय दीवारों, छतों व स्तम्भों को चीरती हुई पूरे गोकुल को निनादित करने लगी।

जन्मोत्सव की परम्परा के अनुसार नंदजी ने यमुना में स्नान किया। फिर सुन्दर वस्त्र व अलंकारों से सुसज्जित कर उन्हें सोने के आसन पर बिठाया गया। मातृकापूजन, नान्दीमुखश्राद्ध करने के बाद वे ब्राह्मणों के साथ सूतिकागृह में गए। वहां नित्य अजन्मा (बालकृष्ण) का जातकर्म शुरु हुआ। जिसके एक-एक रोम में अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड हैं, आज उन्हीं का वेदमन्त्रों से संस्कार हो रहा है। बालकृष्ण के अधरोष्ठ को थोड़ा-सा खोलकर उन्हें अनामिका ऊँगली से घृत का एक कण चटाया गया। आयुष्यक्रिया करते समय शिशु के दक्षिण कर्ण मे वेदमन्त्र जपने के लिए जैसे ही ब्राह्मण अपना मुख उनके कान के पास लेकर गए, ब्राह्मण का सारा शरीर कांपने लगा। ऐसा आश्चर्य तो उन्होंने पहिले कभी नहीं देखा। फिर भूमि अभिमंत्रित की गई और बालक का अंग पौंछ दिया गया। वेदमंत्रोच्चार के साथ एक जलपात्र सूतिका-पर्यंक (पलंग) के नीचे रख दिया गया। इस प्रकार मन्त्रोच्चार के बीच बालक का जातकर्म संस्कार सम्पन्न हुआ।

अब दाई नार-छेदन करती है, वह भी उस बालक की–

जाकै नार भए ब्रह्मादिक सकल जोग-व्रत साध्यौ।
ताकौ नार छीनि ब्रज-जुबती बाँटि तगा सौं बाँध्यो।।

नंदरानी ने नेग में दाई को अपना मूल्यवान मणिमुक्ताहार ही दे दिया। नंदरायजी ने ब्राह्मणों को दो लाख गाएं दान कीं। उन गायों के सींग सोने के पत्रों से, खुर चांदी से मढ़े थे, गले में मणियों की माला पहिने थीं।

कई वर्षों की तपस्या करने पर भी महान ऋषियों का काम नष्ट नहीं हुआ तो वे सब गोकुल में गाय का अवतार लेकर आए। उन्होंने सोचा था कि ब्रह्मसम्बन्ध होने पर वे निष्काम होंगे। नंदबाबा ने तिल के सात पर्वत बनवाए। उन पर रत्न बिछा दिए गए फिर सुनहले वस्त्रों से ढककर दान दिया।

भगवान श्रीकृष्ण के जन्म पर नंदबाबा ने इतना दान क्यों दिया?

दान पवित्रता के लिए आवश्यक माना गया है। दान से धन की शुद्धि होती है। कई पदार्थ समय से शुद्ध हो जाते है; जैसे गाय-भैंस जनने पर उनका दूध तुरन्त ग्रहण नहीं करते; वर्षा का नया-नया जल भी दस दिन बाद काम में लिया जाता है क्योंकि शास्त्रों में कहा गया है कि ये सब पदार्थ दस दिन में शुद्ध हो जाते हैं। कई चीजें स्नान से शुद्ध होती हैं। इन्द्रियों की शुद्धि तपस्या से होती है। ब्राह्मणादि की शुद्धि यज्ञ से होती है। मन की शुद्धि संतोष से होती है। गार्भिक दोषों की शुद्धि संस्कार से होती है अर्थात् बालक के पैदा होने पर संस्कार करके उसको पवित्र जरूर करना चाहिए।

gopi krishna mahotsav

नंदमहल में मंगलोच्चार होने लगा। सूत-मागध-बन्दी सब गाने बजाने लगे। दुन्दुभियां बजने लगीं।समस्त ब्रज सजाया गया। ब्रज का प्रत्येक महल, गृह, द्वार, प्रांगण का कोना-कोना झाड़कर सुगन्धित जल से धोया गया। इत्र छिड़का गया। नवीन पल्लवों व रंग-बिरंगे वस्त्रों के बन्दरवार, तोरण बांधे गए। ध्वजा-पताकाएं जगह-जगह फहराने लगीं। द्वारों पर पंचपल्लवों से सुसज्जित मंगलघट रखे गए। हल्दी, दूब, अक्षत, दही और कुंकुम से प्रत्येक द्वार को सजाया गया। जगह-जगह मोतियों के चौक पूरे गए।

एक ओर ऊंचे आसन पर ब्राह्मण स्वस्तिवाचन कर रहे हैं। उनसे कुछ दूरी पर सूत पुराणों का पाठ कर रहे हैं। मागध-बंदीजन नंदबाबा की स्तुति कर रहे हैं। पास ही वीणावादक मधुर राग छेड़ रहे हैं और भेरी वाले, सहनाई वाले उनका साथ देकर रस की वर्षा कर रहे हैं।

गांव की गोपियों में जब कन्हैया के जन्म की बात फैली तो वे सब उनके दर्शन के लिए दौड़ पड़ीं मानो नवधा भक्ति दौड़ती हुयी ईश्वर मिलन के लिए जा रही हो। गोपियों का एक-एक अंग कृष्णमिलन और कृष्णस्पर्श के लिए आन्दोलित हो रहा था। उनकी आँखें कह रही थीं कि हमारे जैसा कोई भाग्यवान नहीं; हमें ही कृष्ण दर्शन का आनन्द मिलेगा। हाथों ने कहा–हम भाग्यशाली हैं, हम ही प्रभु को भेंट देंगे। गोपियों के कानों ने कहा–हमने सबसे पहिले श्रीकृष्ण के प्राकट्य का समाचार सुना है, अत: हम ही सबसे ज्यादा भाग्यशाली हैं। पाँव कहाँ पीछे रहने वाले थे, उन्होंने कहा–हम भाग्यशाली हैं जो आज प्रभु दर्शन के लिए दौड़ रहे हैं; अब जन्म-मृत्यु के दु:ख से छुटकारा मिलेगा।

गोपियों ने सुन्दर-सुन्दर वस्त्र-आभूषण धारण किए। अँगराग, काजल, कुंकुम आदि से अपना श्रृंगार किया। उनके मुख पर लगी हुई कुंकुम ताजी केसर के समान शोभा बिखेर रही थी। चलते समय उनके बड़े-बड़े नितम्ब और वक्षस्थल हिल रहे थे। इस प्रकार गोपियां सज-धजकर बालों में लगे फूलों (जोकि जल्दी-जल्दी चलने से पृथ्वी पर गिर रहे थे) की वर्षा करती हुईं तथा हाथ के कंगन और पाँवों के पायजेब के नूपुरों से रुनझुन-रुनझुन की मधुर ध्वनि करती हुईं नंदमहल पहुँचीं। गोपियों का स्वागत रोहिणीजी व उपनंदजी की पत्नी ने किया।

नंद बधावन चली ब्रज बनिता।
डगमगी चाल चलत तरुनी सब सुन्दररूप बनी अति ललिता।।

वन धन फूल रह्यौ चहुं दिसते उमगि उछंग चली ज्यों सरिता।
सरसरंग श्रावन जेसें उमड्यो ब्रजजन मन आनंदित हरिता।।

गोप भी गायों को हल्दी-तेल से रंगकर, गेरू आदि से चित्रित कर, मोरपिच्छ व पुष्पमालाओं से सजाकर, खुद भी वस्त्राभूषण–अँगरखा, पगड़ी धारणकर, सिर पर, कांवरों में दूध, दही, घी, मक्खन, ताजा छैना आदि के घड़े लिए नंदभवन पहुँचे। (गोप गोपालक हैं; दूध, दही, मक्खन ही उनकी सम्पत्ति है, अत: बालकृष्ण को भेंट में वे यही दे रहे हैं)।  बालकृष्ण का मुख देखकर गोप व गोपियां अपने नयनों का भाग्य सराहने लगे। फिर बालक को देखें और कहें–

पाहि चिरं ब्रजराजकुमार !
अस्मानत्र शिशो ! सुकुमार ! (श्रीगोपालचम्पू:)

‘रे सुकुमार बालक ! रे ब्रजराजकुमार ! तू बड़ा होकर चिरकाल तक हम लोगों की रक्षा कर। फिर आशीर्वाद देने लगीं–

धनि धन्य महरि की कोख, भाग-सुहाग भरी।
जिनि जायौ ऐसौ पूत, सब सुख-फरनि फरी ।।

नंदबाबा भी अति आनंद में भरे हैं–

फूले अति बेठेहें ब्रजराज।
ठाडे कहत सकल ब्रजवासी जन्म सुफल भयो आज।।

देख देख मुख कमलनेन को आनंद उर न समाय।
फिर फिर देत बुलाय बधाई मगन भये नंदराय।।

डोलत फिरत नंद गृह आनंद अति आनंद भरे।
श्रीविट्ठल गिरिधर के देखत मन में हरख करे।।

गोपों का आनंद-उन्माद बढ़ता ही जा रहा है। उन्होंने नंदबाबा को भी अपने बीच में ले लिया और इतना दूध, दही, घी, मक्खन ढरकाया कि श्वेत नदी-सी बह चली और उसमें लोटते हुए गोपों का शरीर उज्जवल दीखने लगा। गोप-गोपियां बूढ़ा या जवान जो भी मिलता, उसको चारों ओर से घेर लेते और कहते–पहले नाचो, तब तुम्हें छोड़ेंगे। अन्दर अन्त:पुर में भी हल्दी व तेल की कीच मची है। गोपियां एक-दूसरे पर हल्दी-तेल छिड़क रही हैं। बाहर आकर जब वे गोपों और नंदरायजी की दशा देखती हैं तो गाने लगती हैं। इसका सुन्दर वर्णन श्रीगोपालचम्पू: में किया गया है–

सखियो ! गोकुलेश्वर नंदजी को तो देखो। पुत्रोत्सव के आनन्द में निमग्न होकर आज वे कितने चंचल लग रहे हैं।। यह सामने का दृश्य देखकर तो मुझे सागर-मंथन की स्मृति हो रही है। देखो तो सही, दही से भरा हुआ यह ब्रज सागर जैसा हो गया है और उसमें मन्दर-पर्वत से होकर नंदजी सर्वत्र घूम रहे हैं। उनकी कमर में लपेटा हुआ वस्त्र, घी व दही से चिकना होकर , फूलकर ठीक वासुकि नाग जैसा बन गया है। उसे पकड़कर उनके प्रियजन उन्हें इधर-उधर खींच रहे हैं और वे अतिशय प्रसन्न हो रहे हैं। इतना ही नहीं, जैसे समुद्र-मंथन के समय अनेक रत्न निकल रहे थे, वैसे ही ये नंदजी बीच-बीच में रत्नराशि लुटाने लग जाते हैं। अहा ! आज इनकी कैसी आश्चर्यमयी शोभा है। इस सागर-मंथन में तो एक अपूर्व बात हुई है। चन्द्रमा सागर मथे जाने पर निकले थे; पर नंद का यह शिशु-चन्द्र तो मन्थन आरम्भ होने के पूर्व ही प्रकट हो गया।

इसी बीच गोकुल की आदरणीय वृद्धा पौर्णमासीदेवी वहां आयीं। उन्होंने नंदबाबा को आंगन में चौकी पर बिठाकर अनेक घड़े जो कि हल्दी, अबीर, दही आदि से भरे थे, उन पर उड़ेल दिए और नंदबाबा को उसी अवस्था में नृत्य करने को कहा। नंदबाबा नाचने लगे तो वहां उपस्थित समस्त जनसमुदाय नृत्य करने लगा।

इसके बाद स्नानादि करके नंदबाबा ने अपने सारे खजाने खोल दिए। जिसे जो अच्छा लगे, वह ले ले। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। उनका भंडार ही अब अनन्त, असीम बन गया है। नंदबाबा का भंडार अब प्राकृत नहीं है, लक्ष्मीजी जिनकी चरणसेविका हैं, वे आज उनके पुत्र बनकर आए हैं, अत: उसमें से जितना निकालेंगे, उतना ही बच रह जाएगा। हां, देते समय नंदबाबा के मन में एक ही भावना है–

इस दान से मेरे इष्टदेव नारायण प्रसन्न हों, उनकी प्रसन्नता से मेरे पुत्र का कल्याण हो।’

जिसको जो चीज सोना, चांदी, हीरे-जवाहरात पसन्द आता वह वही उठा लेता, फिर किसी और को अपने से अच्छा ले जाते देखता तो अपना सोना-चांदी वहीं फेंककर दूसरा लेने चला जाता। इस तरह याचकों द्वारा चांदी, सोना, जवाहरात फेंके जाने के कारण गोकुल के आसपास की जितनी भी भूमि थी, सब सोना, चांदी, हीरे, जवाहरात से पट गयी।

दरिद्र-दवानल बुझे सबन के जाचक-सरबर पूरे।
बाढ़ी सुभग सुजस की सरिता, दुरित-तीरतरु चूरे।।

लक्ष्मीजी ने सोचा कि जब हमारे स्वामी ग्वाल बन कर आए हैं और नंगे पाँव वहां की धरती पर घूमेंगे तो क्यों न हम वहां पर अपने आपको बिछा दें। भगवान जिसके हृदय में बसते हैं वह सबको प्यारा लगने लगता है। जिस भूमि में भगवान बसते हैं, वह भी सबको प्यारी लगने लगती है। लक्ष्मीजी गोकुल के वनों में इधर-उधर घूमती रहती हैं; और इधर से श्रीकृष्ण निकलेंगे यह सोचकर रास्ता साफ कर देती हैं। भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन और गोकुल की जिस भी वस्तु की ओर देखते हैं, वह ऐसी लगती है कि लक्ष्मीजी उसे अपने हाथ से सँवार रही हैं, सुगन्धित बना रही हैं।

प्रथम दर्शन से ही प्रभु ने सभी का मन अपनी ओर खींच लिया है। एक गोपी ने यशोदाजी से कहा–मां ! आज जो मैं माँगूं वह आप दें। यशोदाजी ने कहा–मांग लो, तुम जो मांगोगी, वह मैं दूंगी। गोपी ने कहा–मां, दो मिनट के लिए लाला को मेरी गोद में दीजिए। यशोदाजी ने गोपी की गोद में लाला को दे दिया। हजारों वर्षों से जीव ईश्वर से बिछड़ गया था, वह आज मिला है। जीव और परमात्मा का मिलन हुआ है। गोपी ने अति आनंद में अपनी देह का होश गंवा दिया है। वह कहती है–आज तक नंद-यशोदा हमें आनंद देते थे, आज परमानंद उनके घर आया है। आज गोपी के हाथ में लक्ष्मीपति आए हैं। अति आनंद में गोपी नाचती है–

नंद घर आनंद भयौ, जय कन्हैयालाल की।
हाथी, घोड़ा पालकी, जय कन्हैयालाल की।।

जहाँ मधुर रागात्मिका प्रीति है, वहीं असीमित आनन्द-समूह उमड़ता है। नन्दालय में वही समुद्र उमड़ा।

यह धन धर्मही ते पायो।
नीके राखि यशोदा मैया नारायण ब्रज आयो।।

जा धन को मुनि जप तप खोजत वेदहू पार न पायो।
सो धन धर्यो क्षीरसागर में ब्रह्मा जाय जगायो।।

जा धनते गोकुल सुख लहियत सगरे काज सवारें।
सो धन बार बार उर अंतर परमानन्द विचारे।।

श्रीमद्भागवत में श्रीब्रह्माजी कहते हैं–’भगवन् ! मुझे इस धरातल पर ब्रज में–विशेषत: गोकुल में किसी कीड़े-मकोड़े की योनि मिल जाय, जिससे मैं गोकुलवासियों की चरण-रज से अपने मस्तक को अभिषिक्त करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ, जिन गोकुलवासियों के जीवन सम्पूर्णरूप से आप मुकुन्द हैं, जिनकी चरण-रज को अनादिकाल से अब तक श्रुति खोज रही है (परन्तु पाती नहीं)।’

4 COMMENTS

  1. श्री कृष्ण पर टिप्पणी करने में मेरे जैसा तुष प्राणी कैसे समर्थ हो सकता है।
    जय श्री कृष्ण

  2. आप व आपका जीवन धन्य है, जो प्रभु के प्रेम लीन है, और आपका यह ब्लॉग लिखने का अनुष्ठान भी महान् कार्य ही कहा जाएगा जिसके पढ़ने से हम जैसे बहुतेरे लोगों को प्रभु लीला का अनुभव होता है। लेखन शैली भी सरल व सु ग्राह्य होने से मन को आनन्दित करती है। यह आनंद ही है जो बरबस आकर्षित करता है ब्लॉग पढने को। भाव व रस पूर्ण प्रभु की लीलाओं से हम जैसे पाठकों पर यह आपका उपकार है। आपका अभिनंदन।।
    जयश्री कृष्णा।।

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