प्राय: जब भी हम किसी व्रत या त्यौहार या पुराण की कथा या श्रीमद्भागवत को पढ़ते या सुनते हैं तो कथा का आरम्भ नैमिषारण्य में अट्ठासी हजार ऋषियों की उपस्थिति में इस वाक्य से होता है—‘सूतजी कहते हैं’ । शौनक आदि ऋषि प्रश्न पूछते हैं और सूतजी उसका उत्तर कथा सुनाकर देते हैं । जानते हैं कौन हैं ये सूतजी और क्यों हर कथा को यही सुनाते हैं ?

जैसा नाम वैसे गुण – सूतजी का असली नाम रोमहर्षण (लोमहर्षण) था । सूतजी जब पुराणों की कथा सुनाते तो सभी श्रोता मंत्र-मुग्ध हो जाते थे और उनके नाम रोमहर्षण के अनुसार सुनने वालों के रोम-रोम में हर्षण (रोमांच) हो जाता था ।

विचित्र है सूतजी के जन्म की कथा

एक बार राजा पृथु ने यज्ञ का आयोजन किया । यज्ञ में देवराज इन्द्र को हवि का भाग (यज्ञ में देवताओं को दी जाने वाली आहुति का भाग) देने के लिए सोम-रस निचोड़ा जा रहा था कि यज्ञ कराने वाले ऋषियों की गलती से इन्द्र के हवि में बृहस्पति का हवि (आहुति) मिल गया और उसे ही इन्द्र को अर्पण कर दिया गया । दोनों हवियों के मिलने से अत्यन्त तेजस्वी सूतजी की उत्पत्ति हुई । अग्नि से उत्पन्न होने के कारण ये अयोनिज (स्त्री-पुरुष के लौकिक सम्पर्क के बिना उत्पन्न होना) थे ।

रोमहर्षण अग्नि से प्रकट होने पर भी ‘सूत’ जाति के क्यों माने जाते हैं ?

रोमहर्षणजी सूत जाति के थे इसलिए ‘सूतजी’ के नाम से प्रसिद्ध हुए । सूत उसे कहते हैं जो ब्राह्मण कन्या और क्षत्रिय पुरुष से उत्पन्न हुआ हो । शास्त्रों में इन्द्र को क्षत्रिय और बृहस्पति को ब्राह्मण माना गया है । क्षत्रिय इन्द्र के हवि में ब्राह्मण बृहस्पति का हवि मिलने से सूतजी उत्पन्न हुए । वर्णसंकरता के कारण ये सूत कहलाये हालांकि इनका जन्म किसी लौकिक स्त्री-पुरुष के सम्पर्क से नहीं हुआ था ।

सूतजी से बढ़कर भगवान की कथा कहने वाला नहीं है कोई

प्राचीन काल में यद्यपि वेद-पुराणों का अध्ययन करने का अधिकार ब्राह्मणों को था फिर भी रोमहर्षण सूतजी की अत्यन्त तीव्र बुद्धि व रुचि को देखकर भगवान वेदव्यास ने उन्हें सभी अठारह पुराण पढ़ाये और आशीर्वाद दिया कि ‘तुम सभी पुराणों के वक्ता होओगे ।’ व्यासजी पुराणों का भार सूतजी पर डालकर चिन्तामुक्त हो गये । तीक्ष्ण प्रतिभा होने के कारण सूतजी ने सभी ग्रन्थ कंठस्थ कर लिए ।

नैमिषारण्य में अट्ठासी हजार ऋषि निवास करते थे । सूतजी सदा ऋषियों के आश्रमों में घूम-घूम कर उन्हें कथा सुनाया करते थे । यद्यपि ये सूत जाति के थे किन्तु पुराणों के वक्ता होने के कारण ऋषिगण इनका बहुत आदर करते और इन्हें ऊंचे आसन पर बिठा कर, पूजा कर कथा सुनते थे । इनकी कथा इतनी अद्भुत होती थी कि जब आसपास के ऋषियों को पता चलता कि इस जगह सूतजी कथा सुनाने आए हैं, तो वे दौड़ कर इनकी कथा सुनने चले आते और इनकी चित्र-विचित्र कथा सुनने के लिए इनको चारों ओर घेर कर बैठ जाते थे ।

सूतजी पहले तो सब ऋषियों का अभिवादन करते और फिर पूछते—‘आज आप लोग मुझसे कौन-सी कथा सुनना चाहते हैं ?’ जब शौनक आदि ऋषि कहते कि ऐसा कोई प्रसंग सुनाओ जो पुराणों में कहा गया हो तब सूतजी कहते—‘ऐसी कौन-सी बात है जो पुराणों में न हो । इस सम्बन्ध में मैंने अपने गुरु भगवान व्यासजी से जो सुना है, उसे मैं आपसे कहता हूँ, सावधान होकर सुनिये ।’ ऐसा कहकर वह कथा का आरम्भ करते थे ।

बलरामजी के हाथों हुई सूतजी की मृत्यु

एक बार नैमिषारण्य में मुनियों ने बारह वर्षों में समाप्त होने वाले पुराण सत्र का आयोजन किया । इस सत्र के शौनक ऋषि मुखिया थे और साठ हजार ऋषि कथा सुनने आए । सूतजी व्यास-गद्दी पर बैठकर पुराण कथा सुना रहे थे । तीर्थ यात्रा करते हुए बलरामजी नैमिषारण्य पहुंचे । व्यास-गद्दी पर बैठे सूतजी बलरामजी को देखकर उठे नहीं । इस पर बलरामजी को क्रोध आ गया और उन्होंने सूतजी का सिर काट दिया ।

सभी ऋषियों ने बलरामजी से कहा—‘यह आपने अच्छा नहीं किया, हमनें इन्हें दीर्घ आयु देकर इस उच्च आसन पर बिठाया था । आपको ब्रह्महत्या का पाप लगा है, इसलिए आप प्रायश्चित करें ।’ बलरामजी ने ऋषियों की आज्ञा मानकर जैसा बताया, वैसा प्रायश्चित किया ।

सूतजी जब ग्यारहवां पुराण सुना रहे थे तब इनकी मृत्यु हुई थी । ऋषियों को तो सभी पुराण सुनने थे, अत: उन्होंने बचे हुए पुराणों को उनके पुत्र उग्रश्रवा से सुना । उग्रश्रवा में भी अपने पिता के सभी गुण थे इसलिए सूतजी के बाद उनके पुत्र उग्रश्रवा को गद्दी दी गयी और वह पुराणों के वक्ता हुए ।

‘ईश्वर को जानने वाले का हृदय कांच के बर्तन में जलते हुए दीपक के समान है । उसका प्रकाश सब जगह फैलता है ।’

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