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संसार में व्यवहार करने के दो तरीके हैं—१. प्रेम या मित्र की दृष्टि से, और २. द्वेष की दृष्टि से ।

वेद में कहा गया है—‘मनुष्य को संसार को मित्र की दृष्टि से देखना चाहिए । इस संसार में कोई पराया नहीं है, जो हैं सब अपने हैं ।’

जितना ही मनुष्य दूसरों से प्रेम करेगा, उनसे जुड़ता जाएगा; उतना ही वह सुखी रहेगा । जितना ही दूसरों को द्वेष-दृष्टि से देखोगे, उनसे कटते जाओगे, उतने ही दु:खी होओगे । जुड़ना ही आनन्द है और कटना ही दु:ख है

मित्रता या प्रेम की आंख से पृथ्वी स्वर्ग बनती है और द्वेष की आंख से नरक का जन्म होता है । इस बात को महाभारत के आदिपर्व में दी गयी एक कथा और ‘श्रीकृष्ण व सुदामा’ के प्रसंग से बखूबी समझा जा सकता है ।

द्वेष की आंख से कैसे होता है नरक का जन्म

पंचाल देश के राजा यज्ञसेन का पुत्र द्रुपद पढ़ने के लिए भरद्वाज मुनि के आश्रम में गया । वहां उसकी मुनिपुत्र द्रोण से घनिष्ठ मित्रता हो गई । शिक्षा पूरी होने पर आश्रम से विदा लेते समय द्रुपद ने द्रोण से कहा—‘यदि तुम कभी हमारे देश में आओगे तो हम तुम्हारा हर तरह से सम्मान करेगे और तुम्हें अपना कुल-गुरु बनायेगे ।’

कुछ समय बाद पिता की मृत्यु होने पर द्रुपद राजा बने । उनके मित्र द्रोण का विवाह गौतम ऋषि की पुत्री कृपी के साथ हो गया जिससे उन्हें पुत्र अश्वत्थामा हुआ । 

द्रोण की आर्थिक स्थिति बड़ी शोचनीय थी । वे अपने पुत्र को दूध भी नहीं दे सकते थे । जब भी बालक अश्वत्थामा अपने मित्रों को दूध पीता हुआ देखता तो दूध पीने के लिए हठ करता । बालक को बहलाने के लिए मां कृपी आटे में पानी घोल कर उसे दूध बता कर पिला देती थी । जब अश्वत्थामा अपनी दूध पीने की बात मित्रों को बताता तो उसके मित्र उसका उपहास करते हुए कहते—‘तुम्हें दूध कहां मिलेगा, पानी में घुले आटे को तुम दूध कहते हो?’ 

इस अपमान से आहत होकर एक दिन अश्वत्थामा पिता के पास पहुंचे और रोते हुए उन्हें सारी बात बताई । पुत्र की बात सुनकर माता-पिता की आँखें भीग गईं और वे इस निर्धनता से निकलने का कोई उपाय सोचने लगे ।

तभी द्रोण को अपने बाल सखा द्रुपद और उनकी बचपन में कही गई बात की याद आई । वे पंचाल देश पहुंचे । द्रोण ने राजा द्रुपद को बचपन की मित्रता की याद दिलाई किन्तु राजा द्रुपद ने अनजान बनते हुए कहा—‘राजा और याचक की मित्रता कैसी ?’

इस अपमान से आहत होकर द्रोण उल्टे पैर लौट आए । अपने अपमान का बदला लेने के लिए उन्होंने कौरव-पांडव राजकुमारों को धनुर्वेद की शिक्षा दी । महाभारत के युद्ध में अर्जुन ने द्रुपद को द्रोण के सामने युद्ध के लिए खड़ा किया । 

द्वेष की आंख की जो लहर उठी, वह शान्त नहीं हुई; द्रुपद के इस अपमान का बदला उनके बेटे धृष्टद्युम्न ने द्रोण का सिर काट कर लिया । फिर द्रोणपुत्र अश्वत्थामा ने धृष्टद्युम्न को मार कर पिता का ऋण चुकाया । सम्पूर्ण महाभारत इस द्वेष की आंख का ही परिणाम था ।

अब एक उदाहरण प्रेम की आंख का लेते है । श्रीकृष्ण और सुदामा भी द्रुपद और द्रोण की तरह गुरुकुल के मित्र थे । उनकी आर्थिक स्थिति भी राजा और रंक वाली थी; किन्तु जब सुदामा निर्धनता की मार से विकल होकर श्रीकृष्ण के पास पहुंचे तो श्रीकृष्ण, जोकि राजराजेश्वर द्वारिकानाथ थे, उन्होंने निर्धन, दीन सुदामा के चरण धोए, उसका चरणामृत लिया, उसे महलों में छिड़का, दीन को गले से लगाया । यह है महत्ता उनके प्रेम और स्नेह की ।

ऐसी प्रीति दीनबंधु ! दीनन सौं माने को ?
ऐसे बेहाल बिवाइन सों पग, कंटक-जाल लगे पुनि जोये ।
हाय ! महादुख पायो सखा तुम, आये इतै न किते दिन खोये ।
देखि सुदामा की दीन दसा, करुना करिके करुनानिधि रोये ।
पानी परात को हाथ छुयो नहिं, नैनन के जल सौं पग धोये ।। (नरोत्तमदासजी)

श्रीकृष्ण ने सुदामा के द्वारा लाए हुए चिउड़ों का बड़ी रुचि के साथ भोग लगाया और सुदामा से कहा–’आपके द्वारा लाया हुआ चिउड़ों का यह उपहार मुझको अत्यन्त प्रसन्नता देने वाला है । ये चिउड़े मुझको और मेरे साथ ही समस्त विश्व को तृप्त कर देंगे ।’ 

सुदामा ने श्रीकृष्ण से प्रेम किया तो श्रीकृष्ण ने उन्हें द्वारिकानाथ बना दिया । उन्हें अपने सिंहासन पर बिठाया और स्वयं नीचे ही नहीं वरन् सुदामा के चरणों में बैठे । श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी चावल खाकर सुदामा को द्वारिका के तुल्य सम्पत्ति प्रदान की ।

मनुष्य का बहुत-सा दु:ख दूसरों के प्रति ईर्ष्या-द्वेष, घृणा, व अविश्वास से पैदा होता है । प्रेम की एक चितवन मनुष्यों के बीच द्वेष व दुर्भावनाओं की समस्त काई को साफ कर देगी और कटुता की सभी गांठों को खोल कर रख देगी । संसार में जितने भी महापुरुष हुए है, उन सब ने मानव जाति को प्रेम के मार्ग पर ही चलने का संदेश दिया है । 

सुकरात से उनके एक विरोधी ने कहा—‘यदि मैं तुमसे बदला न ले सकूँ तो मर जाऊँ ।’

सुकरात ने उत्तर दिया—‘यदि मैं तुम्हें अपना मित्र न बना सकूँ तो मर जाऊँ ।’

स्पष्ट है कि मनुष्य संसार को किस आंख से देखता है, इसी पर निर्भर करता है कि वह जीवन में क्या प्राप्त करेगा—आनन्द या तनाव । इसीलिए कहा गया है—‘दु:ख दीनै दु:ख होत है, सुख दीनै सुख होय ।’

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