सखा अर्थात समान ख्याति वाला–’सह ख्यायते इति सखा।’ सखा उसको कहते हैं जिसका नाम साथ-ही-साथ आ जाए। जैसे कृष्ण-अर्जुन, कृष्ण-उद्धव नाम एक साथ आते हैं, वैसे ही कृष्ण-श्रीदामा, कृष्ण-सुदामा नाम भी एक साथ आते हैं।
परमात्मा प्रेम चाहते हैं। प्रेम में पागल बने बिना वे मिल नहीं सकते। जिन भक्तों का जीवन प्रभुमय हो, रोम-रोम में भगवान का प्रेम बहता हो, वे भक्त प्रेममय प्रभु की करुणामयी और कृपामयी गोद में बैठने और उनके सखा बनने के अधिकारी बनते हैं।
गोविन्दस्वामी : भगवान श्रीकृष्ण के सखा श्रीदामा का अवतार
कलियुग में सच्चिदानन्द भगवान श्रीकृष्ण ही गिरिगोवर्धन पर ‘देवदमन श्रीनाथजी’ के रूप में प्रकट हुए हैं। गोस्वामी विट्ठलनाथजी द्वारा गोवर्धन में श्रीनाथजी की अष्टप्रहर संगीत-सेवा प्रारम्भ की गयी तब गोविन्दस्वामी को अष्टछाप कीर्तनकारों में सम्मिलित किया गया। गोविन्दस्वामी को भगवान श्रीकृष्ण के सखा श्रीदामा का अवतार माना जाता है। अपने परम आराध्य के लिए घर-बार छोड़कर परम विरागी होकर उन्होंने गुंसाई विट्ठलनाथजी से ब्रह्मसम्बन्ध लिया और गोवर्धन में ही रहने लगे व गोविन्ददास कहे जाने लगे। उन्होंने वहां कदम्ब का बहुत सुन्दर बगीचा लगाया था जो आजतक ‘गोविन्दस्वामी की कदम्बखण्डी’ कहलाता है।
जब श्रीनाथजी स्वयं गाते और श्रीराधारानी ताल देतीं
गोविन्दस्वामी अपनी गायन माधुरी के लिए बहुत प्रसिद्ध थे। स्वयं तानसेन भी इनका गाना सुनने के लिए आया करते थे और पुष्टिमार्ग में दीक्षित हुए। एक बार गोविन्दस्वामी श्रीनाथजी और श्रीराधाजी के युगलरूप की स्तुति कर रहे थे। मदनगोपाल नाम के व्यक्ति उनके पदों को लिपिबद्ध (लिख) कर रहे थे। इनके प्रेम पर रीझ कर स्वयं ठाकुर श्रीनाथजी गाने लगे और राधारानी ताल देने लगीं।
ब्रज बृंदावन भूपति पिय प्यारी की जोरी।
गोविंद बलि बल बल जाय नवल किशोर किशोरी।।
गोविन्दस्वामी अपने आराध्य के मधुर कंठ और राधारानी के ताल देने पर मुग्ध होकर ‘वाह-वाह’ कह उठे। मदनगोपाल को वहां कोई दिखाई नहीं दिया तो इन्होंने गोविन्दस्वामी से वाहवाही का कारण पूछा। पर अपने में खोए गोविन्दस्वामी के पास इस बात का कोई उत्तर न था। कुछ ऐसे आत्मविस्तृत से थे गोविन्दस्वामी।
प्रेम की बात ही निराली है। संसार में आसक्त व्यक्ति जीने के लिए मरता है लेकिन प्रभु-प्रेम में दिवाने को ऐसा आनन्द मिल जाता है, ऐसी अखण्ड मस्ती में वह मग्न हो जाता है कि उसे अपना होश नहीं रहता। अगर इंसान अपने से बेगाना हो जाए, अपने-आप को भुला दे तो शेष प्रभु ही रह जाते हैं। फिर उनके अलौकिक-अपार-अखण्ड प्रेम, आनन्द और अपनत्व का वो द्वार खुलता है कि सृष्टि के कण-कण में उसे अपने आराध्य की ही अनुभूति होने लगती है।
ठाकुर श्रीनाथजी के सखा गोविन्दस्वामी
‘चौरासी वैष्णवों की वार्ता’ नामक ग्रंथ में गोविन्दादास और श्रीनाथजी की मित्रता और हास्यविनोद की बड़ी सुन्दर कथाएं मिलती हैं। वे श्रीनाथजी को अपना सखा मानते थे। गोविन्दस्वामी प्रभु श्रीनाथजी की अंतरंग लीला में सम्मिलित थे। भगवान के साथ उनका हास्य-विनोद चलता रहता था। श्रीनाथजी साक्षात् प्रकट होकर उनके साथ तरह-तरह के खेल खेला करते थे। कभी स्वयं घोड़ा बन जाते तो कभी प्रभु श्रीनाथजी को घोड़ा बनाते और तरह-तरह से लाड़ लड़ाते। आंखमिचौनी, कन्दुकक्रीड़ा, लुकाछिपाई और न जाने कितने प्रकार के खेलों में ये श्रीनाथजी के साथ रहते थे। श्रीनाथजी उनके साथ हंसते-खेलते थे। देखने वालों को प्रत्यक्ष आंखों से कुछ नहीं दिखलायी पड़ता था पर उनकी भगवान के साथ मित्रता के गवाह थे–गुंसाईंजी श्रीविट्ठलनाथजी। गोविन्दस्वामी अपने गुरु गुंसाईंजी से अपने और श्रीनाथजी के प्रेम में झगड़ने और सुलह-सफाई के किस्से बिना किसी संकोच के कह दिया करते थे।
श्रीनाथजी और गोविन्दस्वामी का गुल्लीदण्डा खेल
एक बार गोविन्दस्वामी श्रीनाथजी के साथ गुल्लीदण्डा खेल रहे थे, राजभोग का समय हो रहा था। भगवान बिना दांव दिए ही खेल के मैदान से भाग दिए। श्रीनाथजी को बिना दाव दिए भागता देख गोविन्ददास क्रोधित हो गया और उसने ठाकुर का पीछा किया। भागते-भागते श्रीनाथजी तो मन्दिर में घुस गए और जब गोविन्ददास की एक न चली तो उन्होंने श्रीनाथजी को गुल्ली फेंक कर मारी। गिल्ली मन्दिर के प्रांगण में आकर गिरी। गोविन्ददास अपने सखा को दबोचने के लिए जैसे ही मन्दिर में घुसने को हुआ पुजारियों ने गोविन्ददास का तिरस्कारकर उन्हें मन्दिर से बाहर निकाल दिया। प्रेमराज्य में रमण करने वाले सखा की भावना मुखियाजी और पुजारियों को समझ में न आई। बेचारा गोविन्ददास रुआंसू हुआ बाहर तो आ गया पर उसका मन अपने सखा श्रीनाथजी का छल न सह सका। वह कहने लगा–
पोत लैकै आयौ भाजि गंवार।
खोलि किवार धस्यौ घर भीतर, सिखै दिये लगवार।
कबहुं तौ निकसैगौ बाहर, ऐसी दुऊंगो मार।
गोविन्द प्रभु सौं बैरअब करिकै, सुखी न सैबे यार।।
गोविन्ददास रास्ते में बैठ गए। उन्होंने सोचा कि श्रीनाथजी इसी मार्ग से जाएंगे इसलिए उनसे बदला लेना सरल रहेगा। बालहठवश बदले की भावना में श्रीनाथजी का सखा जब तिलमिला रहा हो, तब भला भगवान किस प्रकार सुखपूर्वक रह सकते थे। मन्दिर में भगवान के सामने राजभोग रखा गया पर प्रभु ने भोग नहीं अरोगा। सखा रूठे हों, भूखे हों और भगवान भोग स्वीकार कर लें! यह असम्भव था। अंत में गुंसाईं विट्ठलनाथजी अपने शिष्य गोविन्ददास को मनाकर मंदिर में लाये, तब रंगीले ठाकुर ने भोग स्वीकार किया। गोविन्ददास ने भी प्रसाद ग्रहण करके अपने सखा से सुलह कर ली। इस प्रकार भगवान ने अपने पवित्र सख्यप्रेम से गोविन्ददास को धन्य कर दिया।
भगवान के राजभोग के साथ ही गोविन्दस्वामी के भोजन की व्यवस्था
भगवान के प्रेम में डूबा हुआ मनुष्य तन-मन की सुध भूलकर पागल-सा घूमता फिरता है और वह अपने परमाराध्य से आमने-सामने होकर बात करता है। गोविन्ददास इसी तरह के अपने प्रभु में खोए रहने वाले परमभक्त थे।
एक बार पुजारीजी (भीतरिया–पुष्टिमार्ग में भगवान के सामने प्रसाद आदि लाने ले-जाने का कार्य करने वाले) श्रीनाथजी के लिए राजभोग की थाली ले जा रहे थे। गोविन्ददास ने पुजारीजी से कहा कि पहले मुझे खिला दो, फिर मन्दिर में ले जाना। यह सुनकर पुजारी को क्रोध आ गया और उन्होंने जाकर गुंसाईंजी से गोविन्ददास की शिकायत कर दी। गुंसाईंजी के पूछने पर गोविन्ददास ने सखाप्रेम के आवेश में कहा–’आपके लाला खा-पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं, मुझे बाद में भोजन मिलता है, इसलिए मैं बाद में जाता हूँ तो मुझे उन्हें वन-वन ढूंढना पड़ता है।’ उनके सखाप्रेम को देखकर गुंसाईंजी ने ठाकुरजी के राजभोग के साथ ही उनको खाना खिलाने की व्यवस्था कर दी। इस प्रकार गोविन्दस्वामी और श्रीनाथजी एक-दूसरे का साथ हर समय चाहते थे।
श्रीनाथजी के सखा प्रेम का एक प्रसंग
एक बार मुखियाजी श्रीनाथजी का श्रृंगार करते समय उनकी पाग ठीक तरह से नहीं बांध पा रहे थे। श्रीनाथजी ने गोविन्दस्वामी को कहा कि तुम भीतर आकर पाग ठीक कर दो। गोविन्दस्वामी ने मन्दिर में अन्दर जाकर पाग ठीक कर दी। मुखियाजी ने गुंसाईंजी से शिकायत कर दी कि गोविन्दस्वामी तो श्रीनाथजी को छू गए हैं। तब गुंसाईंजी ने समझाया कि गोविन्दस्वामी केवल कीर्तनकार ही नहीं बल्कि श्रीनाथजी के परम कृपापात्र अल्हड़ सखा हैं।
श्रीनाथजी के मिश्री की बनी आठ कंकरिया अरोगने की कथा
श्रीनाथजी के साथ गोविन्दस्वामी का हास्य-विनोद चलता रहता था। एक बार गुंसाईंजी प्रभु श्रीनाथजी का श्रृंगार कर रहे थे, बाहर गोविन्दस्वामी कीर्तन कर रहे थे। गुंसाईंजी जब श्रृंगार सामग्री लेने इधर-उधर होते, तब प्रभु श्रीनाथजी एक कंकड़ गोविन्दस्वामी पर फेंक देते। परन्तु गोविन्दस्वामी प्रभु की इस हरकत को अनदेखी कर देते। देखते-ही-देखते श्रीनाथजी ने आठ कंकड़ गोविन्दस्वामी पर फेंके। तब गोविन्दस्वामी ने भी गुस्से में आकर एक बड़ा कंकड़ श्रीनाथजी पर दे मारा। कंकड़ की चोट से श्रीनाथजी विचलित हो गए और गुंसाईंजी का पहनाया हुआ सारा बहुमूल्य श्रृंगार पृथ्वी पर आ गिरा। गुंसाईंजी को गोविन्दस्वामी पर बहुत क्रोध आया पर श्रीनाथजी ने अपनी गलती बताकर गुंसाईंजी का सारा गुस्सा शांत कर दिया। आज भी इस लीला की याद में ग्वालसेवा के समय श्रीनाथजी मिश्री की बनी आठ कंकरिया अरोगते हैं।
गोविन्दस्वामी जिनके साथ खेले बिना ठाकुरजी का मन ही नहीं मानता
कभी किसी कारणवश यदि गोविन्दस्वामी श्रीनाथजी की सेवा में नहीं आते तो प्रभु अवकाश मिलते ही स्वयं उनकी कुटी पर पहुंच जाते थे। एक बार श्रीनाथजी श्यामढाक के कदम्बवृक्ष की शाखा पर बैठकर वंशी बजाने लगे। गोविन्ददास दूर बैठकर उनको देख रहे थे। इसी बीच श्यामढाक से श्रीनाथजी ने देखा कि गुंसाईंजी स्नानकर उत्थापन के लिए आ गए हैं। मन्दिर में उत्थापन का समय होने पर प्रभु उतावलेपन में वृक्ष से कूद कर भागे। जल्दी-जल्दी कूदने पर उनका वागा (वस्त्र) वृक्ष की टहनी में उलझकर फट गया। उत्थापन के समय गुंसाईंजी ने प्रभु का फटा वस्त्र देखकर गोविन्दस्वामी से इसका कारण पूछा। गोविन्दस्वामी ने गुंसाईंजी को वृक्ष की टहनी में फंसे वस्त्र के बारे में बताया जो कूदते समय फट गया था और साथ ले जाकर वृक्ष पर लटका हुआ चीर दिखलाया। श्रीनाथजी और गोविन्दस्वामी की मित्रता देखकर गुंसाईंजी का हृदय भर आया और कहने लगे–’धन्य है गोविन्दसखा, जिनके साथ खेले बिना ठाकुरजी का मन ही नहीं मानता।’
इस प्रकार गोविन्दस्वामी की अपने परमाराध्य के साथ आंख-मिचौनी जिन्दगी भर चलती रही। उनका कवि रूप अपने आराध्य के लिए काव्य करता था और भक्ति रूप में अपने इष्ट के सख्य सुख को बढ़ाते थे। तभी तो उन्होंने कहा–वैकुण्ठ में जाकर क्या होगा, वहां न तो श्यामल कालिन्दी होगी, न ही नंद-यशोदा के वात्सल्य की झांकी देखने को मिलेगी, न मुरली सुनने को मिलेगी और न राधारानी के चरणारविन्दों के दर्शन होंगे–
कहा करौं बैकुण्ठे जाइ।
जहां नहीं बंसीवट जमुना, गिरि गोवर्द्धन, नंद की गाइ।।
जहां नहीं ए कुंज लता द्रुम, मंद सुगंध बाजत नहिं बाइ।
कोकिल मोर हंस नहिं कूंजत, ताको बसिबो कहा सुहाइ।।
जहां नहीं बंसीधुन बाजत कृष्ण न पुरवत अधर लगाइ।
प्रेम पुलक रोमांचय उपजत मन क्रम वच आवत नहिं दाइ।।
जहां नहिं ए भुव वृन्दावन बाबा नंद जसोमति माइ।
‘गोविन्द’ प्रभु तजि नंद सुवन कों ब्रज तज वहां बसति बलाइ।।
धन्य हैं वे जो प्रभु प्रेम के पाश में फंस कर, मर कर अमर हो गए।
🙏 Words have their limitations. There is nothing in this world as wonderful as these bhakt charitras.