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भगवान विष्णु का शयनोत्सव
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु ने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी के दिन शंखासुर दैत्य का वध किया और युद्ध में किए गए परिश्रम से थक कर वे क्षीरसागर में अनन्त शय्या पर शयन करने चले गए ।
स्त्रियां अपने मन में कोई बात क्यों नहीं छिपा पाती हैं...
एक प्रसिद्ध कहावत है कि ‘स्त्रियों के पेट में कोई बात नहीं पचती है ।’ यह केवल कहावत नहीं है वरन् सच्चाई है जिसका वर्णन महाभारत के शान्तिपर्व में है ।
भगवान जगन्नाथजी का रथयात्रा उत्सव क्यों मनाया जाता है ?
भगवान जगन्नाथजी मानव-धर्म, मानव-संस्कृति और विराट विश्व-चेतना के साक्षात् मूर्तिमान रूप हैं । समस्त मानव जाति को दर्शन देने, दु:खी मनुष्यों का कल्याण करने व अज्ञानी और अविश्वासी लोगों का भगवान पर विश्वास बनाये रखने के लिए भगवान वर्ष में एक बार अपने साथ बड़े भाई और बहिन सुभद्रा को लेकर रथयात्रा करते हैं ।
जगन्नाथजी का महाप्रसाद अपवित्र और जूठा क्यों नहीं माना जाता है...
एक बार महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी पुरी आये तो प्रसाद में उनकी निष्ठा की परीक्षा करने के लिए किसी ने एकादशी के दिन मन्दिर में ही महाप्रसाद दे दिया । श्रीवल्लभाचार्यजी ने महाप्रसाद हाथ में लेकर उसका स्तवन करना शुरु कर दिया और एकादशी के पूरे दिन तथा रात्रि में महाप्रसाद का स्तवन करते रहे । दूसरे दिन द्वादशी में स्तवन समाप्त करके उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया ।
परमात्मा की प्राप्ति में भाव ही प्रधान है
बालगोपाल बोले—‘तुमने मेरा अर्चन किया ही कब ? तुम तो जड़ मूर्ति का पूजन करते रहे । तुमने मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा तो की पर उसमें मेरी उपस्थिति का भाव तुम्हें कभी नहीं आया । आज जब तुम्हें उस जड़ मूर्ति में मेरी उपस्थिति का आभास हुआ कि मैं मां को अर्पित किए गए हवन और भोग की गन्ध ग्रहण कर रहा हूँ तो मैं तुम्हारे सामने साक्षात् प्रत्यक्ष हो गया ।’
कब है गीता का अध्ययन सार्थक ?
गीता भगवान श्रीकृष्ण का संसार को दिया गया प्रसाद है । गीता को समझने के लिए सिर्फ और सिर्फ आवश्यक है श्रीकृष्ण की शरणागति । इसीलिए गीता में शरणागति की बात मुख्य रूप से आई है । गीता शरणागति से ही शुरु होती है और शरणागति में ही समाप्त हो जाती है ।
पुण्डरीक जिसके लिए भगवान श्रीकृष्ण ईंट पर खड़े हैं
महाराष्ट्र के शोलापुर में चन्द्रभागा (भीमा) नदी के तट पर पंढरपुर मन्दिर है जहां श्रीकृष्ण पण्ढरीनाथ, विट्ठल, विठोबा और पांडुरंग के नाम से जाने जाते हैं और महाराष्ट्र के संतों के आराध्य हैं । यह महाराष्ट्र का प्रधान तीर्थ है ।
श्रीकृष्ण : ‘वेदों में मैं सामवेद हूँ’
श्रीकृष्ण चरित्र भी सामवेद के इस मन्त्र की तरह मनुष्य को हर परिस्थिति में सम रह कर जीना सिखाता है । भगवान श्रीकृष्ण की सारी लीला में एक बात दिखती है कि उनकी कहीं पर भी आसक्ति नहीं है । द्वारकालीला में सोलह हजार एक सौ आठ रानियां, उनके एक-एक के दस-दस बेटे, असंख्य पुत्र-पौत्र और यदुवंशियों का लीला में एक ही दिन में संहार करवा दिया, हंसते रहे और यह सोचकर संतोष की सांस ली कि पृथ्वी का बचा-खुचा भार भी उतर गया ।
कालसर्प दोष से मुक्ति के लिए पढ़ें कालिय-नाग दमन लीला
भगवान ने कालिय नाग से कहा—‘मैंने तुम्हारे सिर पर अपने चरणों की मुहर लगा दी है, अब तुम वैष्णव हो गए और मेरे नित्य पार्षदों में शामिल हो गए हो । तुम्हारी और गरुड़जी की जो दुश्मनी थी वह मेरे चरण-चिह्न अंकित होने से समाप्त हो गयी है ।’
जब भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को दिखाया अपना मायाजाल
भगवान की माया क्या है ? संतों ने माया को ‘नर्तकी’ कहा है । इस नर्तकी माया के जाल से बचना है तो ‘नर्तकी’ का उल्टा कर दो । जो शब्द बनेगा वह है ‘कीर्तन’ अर्थात् जो भगवान का कीर्तन व नाम-स्मरण करता है, उसे माया रुलाती नहीं है ।