तमन्ना हो श्याम से मिलने की,
तो बंद आंखों में भी नजर आएंगे
महसूस करने की कोशिश तो कीजिए
दूर होते हुए भी पास नजर आएंगे।।

ध्यान है मन को वश में करने की कुंजी (चाबी)

‘ध्यान’ का अर्थ एकाग्र होकर ध्येय (परमात्मा) में स्थिर होना है। परमात्मा के पास पहुंचने का मार्ग ध्यान है। संसार के सारे क्लेशों व आसक्तियों से मन को अलग कर भगवान में चित्त लगाना ही ‘ध्यानयोग’ है। यदि निरन्तर दीर्घकाल तक भगवान के स्वरूप या उनके चरणकमलों का ध्यान किया जाए तो मन की स्थिरता के साथ भगवान की प्राप्ति तक संभव है।

भगवान में मन कैसे लगे ?

प्रश्न यह है कि मन कैसे स्थिर हो? मन बड़ा चंचल है। श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि सब देवता मन के वश में हो गए पर मन किसी के वश में नहीं हुआ। यह ऐसा भीष्मदेव है, बलवानों से भी बलवान् है, जो किसी के भी वश में नहीं है। ऐसे मन को जो वश में करता है, वह देवों का देव है।

मन लोभी, मन लालची, मन चंचल, मन चौर।
मन के मत चलिए नहीं, पलक पलक मन और।।

मन की चंचलता को दूर करने के लिए दिन-रात किसी भी समय एकान्त में बैठकर पहले कई बार गहरी  व लम्बी सांस लें व छोड़े, इसी से मन शान्त व एकाग्र हो जाता है। फिर मन में ऐसा विचार करें कि एक ऐसी परमशक्ति सब जगह भरी हुई है जो सर्वज्ञ है, सर्वशक्तिमान है, आनन्द का समुद्र है; वह परमात्मा मेरे अंदर-बाहर, ऊपर-नीचे सब जगह पूर्ण है क्योंकि मैं उसी का अंश हूँ—‘ईश्वर अंश जीव अविनाशी।’

परमात्मा एक ही है। वह एक ही तत्त्व अनेक रूपों में व्यक्त दिखाई देते हैं। साधक जिस रूप में उन्हें पकड़ना चाहे, वे उसी रूप में पकड़ में आ जाते हैं। निर्गुण, निराकार, सगुण, साकार सभी उनके रूप हैं।

ध्यान करने सम्बधी महत्वपूर्ण जानकारियां

—ध्यान करते समय मन में अपने इष्टदेव या गुरु की छवि, रूप या गुणों के बारे में सोचें। मन में उनसे प्रार्थना करें, किसी मंत्र का या ओंकार का या गायत्री मन्त्र का जाप करें या कोई सकारात्मक विचार दोहरायें जैसे—मै परमात्मा का अंश हूँ आदि। इस तरह ध्यान करने से मन में एकाग्रता आती है।

—ध्यान एकान्त में करना चाहिए। अपने घर के मन्दिर में या किसी शान्त व पवित्र स्थान में आसन पर बैठकर उत्तर या पूर्व की ओर मुख करके ध्यान किया जा सकता है। ध्यान के लिए पद्मासन या सुखासन सबसे उत्तम हैं।

—आंखें मूंदकर नाक के अग्र भाग पर दृष्टि जमाकर ध्यान करना चाहिए।

—ध्यान के समय शरीर, गर्दन व रीढ़ की हड्डी सीधी रहनी चाहिए, कुबड़ाकर न बैठें।

—ध्यान सच्ची लगन से नियमपूर्वक बिना उकताये हुए करना चाहिए।

—ध्यान के लिए सबसे अच्छा समय उषाकाल या रात्रि का समय होता है क्योंकि उस समय बुद्धि सात्विक रहती है, किन्तु अन्य समय भी ध्यान किया जा सकता है।

शयन शीघ्र निशि में करें, जागें प्रात:काल।
ध्यान ईश्वर का करें, वे जन होयँ निहाल।।
प्रात: समय ही बरसता, ईश्वर का वरदान।
दोनों हाथ समेटिये, धर कर प्रभु का ध्यान।। (स्वामी नर्मदानन्दजी सरस्वती)

—भोजन के तुरन्त बाद ध्यान करने से मन एकाग्र नहीं होता, आलस्य आता है; अत: खाली पेट ध्यान करना चाहिए।

—शुरु में ध्यान में यदि ध्येय (परमात्मा) में मन स्थिर न हो तो इष्टमन्त्र का जप करते हुए चित्त को ध्येय में लगाने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रकार कुछ समय बाद ध्यान स्वत: होने लगता है, और ध्यान करते-करते साधक आनन्दमय ब्रह्म में एकाकार होते हुए दिव्य आनन्द को प्राप्त कर लेता है।

ध्यान से भगवत्प्राप्ति

ध्यान अपने आराध्य का किया जाए तो सर्वोत्तम है क्योंकि ध्यान की दीर्घकालीन साधना से भगवान का साक्षात्कार होना भी संभव है।

करु मन नँदनंदन को ध्यान।
यहि अवसर तोहि फिरि न मिलैगो,
मेरो कह्यो अब मान।।
घूँघरवारी अलकें मुखपै,
कुंडल झलकत कान।
‘नारायन’ अलसाने नैना,
झूमत रूप-निधान।। (नारायणस्वामीजी)

इस लेख में दिन के विभिन्न प्रहरों में भगवान श्रीकृष्ण के अलग-अलग स्वरूपों के ध्यान का वर्णन किया गया है।

भगवान श्रीकृष्ण का प्रात:कालीन ध्यान

आंखें मूंदकर नाक के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर देखें कि एक कल्पवृक्ष के नीचे रत्ननिर्मित कमलपीठ पर इन्द्रनीलमणि के समान सुंदर बालकृष्ण विराजमान हैं। खिले हुए दुपहरिया के फूल के समान लाल रंग के उनके करारविन्द और चरणारविन्द हैं। उन्होंने वक्ष:स्थल पर सुन्दर आभूषण और बघनखा धारण किया है। केसर मिले चंदन से उनका श्रृंगार किया हुआ है। काले-काले घुंघराले केश कपोलों पर गिरते हुए बहुत ही सुन्दर दिखाई दे रहे हैं। कमर में घुंघरुदार करधनी की लड़ बंधी हैं जिससे मधुर झनकार हो रही है। दाहिने हाथ में खीर व बांये हाथ में तुरन्त का निकाला हुआ मक्खन लिए बालकृष्ण मन्द-मन्द मुस्करा रहे हैं। गौ, गोप और गोपियों की मंडली से घिरे बालकृष्ण की छवि मन को मोह ले रही है। बालकृष्ण का असंख्य सूर्यों से बढ़कर तेज, असंख्य चन्द्रमाओं से बढ़कर शीतलता, असंख्य समुद्रों से बढ़कर गाम्भीर्य, असंख्य कुबेरों से बढ़कर ऐश्वर्य, असंख्य कामदेवों से बढ़कर सौन्दर्य, असंख्य अग्नियों से बढ़कर तेज, असंख्य पृथ्वियों से बढ़कर क्षमाशीलता व  असंख्य प्रियतमों से बढ़कर उनका माधुर्य मेरे मन को अपनी ओर खींच रहा है। इस प्रकार बालकृष्ण की तेजोमयी मूर्ति मन में प्रकट कर स्वयं को उसमें विलीन कर दें।

भगवान श्रीकृष्ण का मध्याह्नकालीन ध्यान

आंखें बंदकर नाक के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर विचार करें कि यमुनातट पर वृन्दावन में कदम्बवृक्ष के नीचे पृथ्वी पर अपने चरण पर चरण रखे हुए भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं। उनका नीलवर्ण है, पीताम्बर धारण किए हैं, श्रीअंग में कर्पूर-चंदन का लेप लगा है, कपोलों पर गेरु से सुन्दर पत्ररचना की गयी है, कानों तक फैले विशाल नेत्र हैं, कानों में कुण्डल झिलमिला रहे हैं, मुख पर मधुर मुसकान छा रही है। गोधूलि से धूसरित वक्ष:स्थल पर धारण किए हुए स्वर्ण आभूषणों से उसकी शोभा और भी बढ़ गई है। गुंजाओं से उन्होंने अपने अंगों को सजा रखा है, सिर पर भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। सुन्दर मयूरपिच्छ, वनमाला धारण किए भगवान श्रीकृष्ण कुंज के भीतर विराजमान होकर गोपों के साथ वन-भोजन कर रहे हैं। उनकी छवि से उदारता टपक रही है। इस छवि का ध्यान दोपहर के समय करना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण का सायंकालीन ध्यान

सायंकाल में आंखें बंदकर मन में ध्यान करें कि भगवान श्रीकृष्ण द्वारकापुरी में एक सुन्दर भवन में कमल की आकृति वाले मणिमय सिंहासन पर विराजमान हैं। मुनियों के समूह ने उन्हें चारों ओर से घेर रखा है और भगवान उन्हें तत्वज्ञान दे रहे हैं। भगवान की अंगकान्ति नीलकमल के समान है। नेत्र खिले कमलदल के समान व मुखारविन्द प्रसन्न हैं। वक्ष:स्थल में श्रीवत्स का चिह्न व कौस्तुभमणि अपनी प्रभा बिखेर रही हैं। रेशमी पीताम्बर पहने वे चारों हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए हैं। चारों ओर प्रकाश छा रहा है और उसमें से आनन्द का अपार सागर उमड़ रहा है। धीरे-धीरे मैं भी उस आनन्दसमुद्र में विलीन होता जा रहा हूँ।

भगवान श्रीकृष्ण का रात्रिकालीन ध्यान

सुखासन या पद्मासन में बैठकर नेत्र मूंदकर दृष्टि को नासिका के अग्रभाग में केन्द्रित कर देखें कि अमृतमयी चन्द्रकिरणों से प्रकाशित यमुना-पुलिन पर भगवान श्रीकृष्ण रासक्रीडा से थककर गोपांगनाओं की मण्डली के मध्य में विराजमान हैं। खिले हुए कुन्द, कल्हार, मालती, चमेली आदि पुष्पों के मकरन्द का पान करके भंवरे मधुर गुंजार कर रहे हैं। ऐसे मनोहारी वातावरण में श्यामसुन्दर मन्द-मन्द मुस्कराते हुए मुरली बजा रहे हैं। माथे पर मोरपंख से सजा मुकुट व बंधी हुई केशों की चोटी श्यामल शरीर पर बहुत सुन्दर लग रही है। गले में वनपुष्पों का हार, करधनी, नूपुर व कंगन धारण किए  हुए हैं। आभूषणों की मधुर झंकार से भगवान के अंग भी झंकारमय हो उठे हैं।

श्रीकृष्ण एक-दूसरी से अपनी बांहों को मिलाए नृत्य करने वाली गोपियों से घिरे हुए हैं। रासधारी श्रीकृष्ण ने अपनी ऐश्वर्यशक्ति से बहुत-से दिव्य स्वरूप प्रकट कर लिए हैं और उन स्वरूपों से वे प्रत्येक दो गोपी के बीच में स्थित हैं।

इस प्रकार ध्यान में यह देखे कि मैं उन्हीं आनन्दमय परमात्मा श्रीकृष्ण  में विलीन हो गया हूँ। ये श्रीकृष्ण मुझसे अलग नहीं हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण में आनन्द के अतिरिक्त कुछ भी नहीं, जो है सो आनन्द ही है। श्रीकृष्ण की आनन्दमयी मूर्ति चित्त में प्रकट करके अपने को उसी में विलीन कर देना सर्वोत्तम ध्यान है। इस प्रकार का ध्यान करने से एक-न-एक दिन श्रीकृष्ण साधक को अपने स्वरूप की प्राप्ति अवश्य करा देंगे।

जाहि देखि चाहत नहीं कछु देखन मन मोर।
बसै सदा मोरे दृगनि सोई नन्दकिशोर।।

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