shiv ji

शास्त्रों में मानव शरीर को ‘व्याधिमन्दिरम्’ कहा गया है। कई बार कर्मभोग के कारण जब कोई जटिल रोग अनेक चिकित्सा उपायों को करने पर भी ठीक नहीं हो पाता तो उस रोग की शान्ति के लिए शास्त्रों में महामृत्युंजय-मन्त्र के जप का विधान बतलाया गया है। इस मन्त्र-जप से मृत्यु को जीतने वाले महारुद्र प्रसन्न हो जाते हैं और मनुष्य को रोग, दु:ख व अकालमृत्यु से मुक्ति प्रदान करते हैं।

काल के भी महाकाल भगवान मृत्युंजय शिव

सारा संसार जिस कालकूट विष व नागों से भयभीत रहता है उसे भगवान शिव अपने गले में धारण करते हैं। देवता अमृतपान कर भी अमर नहीं हुए किन्तु भगवान शिव ने कालकूट विष पीकर देवताओं को अभयदान दिया। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने मृत्यु पर विजय प्राप्त की है, वे अमृत रूप हैं, इसलिए उन्हें ‘मृत्युंजय’ कहते हैं।

भगवान मृत्युंजय (त्र्यम्बक) का ध्यान

भगवान मृत्युंजय (त्र्यम्बक) की आठ भुजाएं हैं। वे अपने ऊपर के दो हाथों से दो कलशों में अमृतरस लेकर उसे अपने मस्तक पर उड़ेल रहे हैं और दो हाथों से उन्हीं कलशों को थामे हुए हैं। सबसे नीचे के दो हाथों में भी दो अमृतकलश लेकर उन्हें अपनी गोद में रख लिया है। शेष दो हाथों में से एक में रुद्रा़क्षमाला और दूसरे में मृगमुद्रा धारण किए हुए है। वे श्वेत कमल पर बैठे हैं, मुकुट पर बालचन्द्र और मुख पर तीन नेत्र सुशोभित हैं। उनके सिर पर स्थित चन्द्र से निरन्तर अमृतवृष्टि होने के कारण उनका शरीर भीगा हुआ है। उन्होंने मृत्यु को जीत लिया है। उनके वामभाग में गिरिराजनन्दिनी उमा विराजमान हैं।

shiv ji maha mritunjayaभगवान शिव के गोदी में रखे हाथों में दो अमृतकलश हैं जिसका अर्थ है कि वे उपासक की साधना से प्रसन्न होकर उसे अमृतत्व (मोक्ष) प्रदान करते हैं और जिन दो अमृतकलशों को वे अपने ऊपर उड़ेल रहे हैं उसका अर्थ है कि वे स्वयं अमृत से सराबोर अमृतरूप ही हैं।

मृत्युंजय-जप का मूल मन्त्र

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। (शुक्लयजु. ३।६०)

मृत्युंजय-मन्त्र का अर्थ

‘मैं परमब्रह्म परमात्मा त्रिनेत्रधारी शंकर की वन्दना करता हूँ, जिनका यश तीनों लोकों में फैला हुआ है और जो विश्व के बीज हैं एवं उपासकों के धन-धान्य आदि पुष्टि को बढ़ाने वाले हैं। जैसे पके हुए ककड़ीफल (फूट) की उसके वृक्ष से मुक्ति हो जाती है; वैसे ही काल के आने पर इस मन्त्र के प्रभाव से हम कर्मजन्य पाशबंधन से और मृत्युबंधन से मुक्त हो जाएं और भगवान त्र्यम्बक हमें अमृतत्व (मोक्ष) प्रदान करें।’

ॐकार रूप शिवलिंग पर दृष्टि स्थिर रखकर, महामृत्युंजय-मन्त्र का जप करते हुए यदि अनवरत जलधारा प्रवाहित की जाए तो एक विलक्षण आनन्द की अनुभूति होती है। ऐसा प्रतीत होता है कि साधक अपने-आप को श्रीत्र्यम्बकेश्वर के प्रति समर्पित कर रहा है। श्रीत्र्यम्बकेश्वर की कृपा की सुगन्ध फैल रही है और उपासक के रोम-रोम में स्फूर्ति होने लगती है।

सम्पुटित महामृत्युंजय-मन्त्र

‘ॐ हौं जूं स:, ॐ भूर्भुव: स्व:, ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्। स्व: भुव: भू: ॐ। स: जूं हौं ॐ।’

यह सम्पुटित महामृत्युंजय मन्त्र है। भगवान मृत्युंजय का ध्यान करके रुद्राक्षमाला से मन्त्र का जप करना चाहिए। इसको ‘त्र्यम्बक-मन्त्र’ भी कहते हैं। इसका सवा लाख जप सभी कामनाओं की पूर्ति करता है। जप के अंत में दशांश हवन, उसका दशांश तर्पण, उसका दशांश मार्जन तथा ब्राह्मण भोजन आदि कराना चाहिए।

मृत्युंजय-मन्त्र के जप के बाद भगवान महारुद्र से प्रार्थना करनी चाहिए–

मृत्युंजय महारुद्र त्राहि मां शरणागतम्।
जन्ममृत्युजरारोगै: पीडितं कर्मबन्धनै:।।

अर्थात्–‘हे मृत्युंजय! महारुद्र! जन्म-मृत्यु, बुढ़ापा आदि विभिन्न रोगों एवं कर्मों के बन्धन से पीड़ित मैं आपकी शरण में आया हूँ, मेरी रक्षा करो।’

महामृत्युंजय-मन्त्र जप के लाभ

–यह मन्त्र ‘संजीवनी’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। आज की आपाधापी भरी जिन्दगी में जीवन को कोई भरोसा नहीं है। सड़क दुर्घटनाएं प्रतिदिन ही सुनने को मिलती हैं। इस मन्त्र के जप से बिजली, सड़क-दुर्घटना, सांप के काटने से व अन्य प्रकार की अकालमृत्यु से जीवन की रक्षा होती है।

–यह मन्त्र रोगों से भी रक्षा करता है। यदि श्रद्धा-भक्तिपूर्वक विधि सहित इस मन्त्र का जप किया जाए तो जिन रोगों को डॉक्टर्स असाध्य कह देते हैं, उन रोगों से भी छुटकारा मिल जाता है।

–इस मन्त्र के जप से दीर्घायु, शान्ति, धन, सम्पत्ति, तुष्टि तथा सद्गति प्राप्त होती है। यह मन्त्र मोक्षदायक है।

–महादेवजी की पूजा करके त्र्यम्बक मन्त्र का जप करने से मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है व अतुलनीय सौभाग्य प्राप्त करता है और पुत्र-पौत्रों के साथ सुखमय जीवन प्राप्त करता है।

–सबसे बड़ा लाभ इस मन्त्र-जप का यह है कि इससे भगवान शिव के श्रीचरणों में अखण्ड प्रेम प्राप्त हो जाता है।

महामृत्युंजय-मन्त्र की महिमा

भगवान मृत्युंजय के जप-ध्यान से मार्कण्डेयजी व राजा श्वेत आदि का कालभय निवारण हुआ। दशार्ण देश के राजा वज्रबाहु की सुमति नामक रानी जब गर्भवती थीं तो अन्य रानियों ने सौतिया-डाह के कारण उसे विष दे दिया। विष के प्रभाव से रानी और गर्भस्थ शिशु का शरीर घावों से भर गया। शिशु के जन्म के बाद भी उसका सारा शरीर व्रणयुक्त था। अन्य रानियों की सलाह पर राजा ने रानी सुमति को वन में छुड़वा दिया। वन में रानी बड़े ही कातरभाव से भगवान शंकर की प्रार्थना करने लगी। फलस्वरूप भगवान आशुतोष ‘शिवयोगी’ के रूप में प्रकट हो गए और उन्होंने सुमति को मृत्युंजय-मन्त्र का जप करने को कहा और बच्चे के शरीर पर लगाने के लिए भस्म दी। शिवयोगी ने बच्चे का नाम ‘भद्रायु’ रखा। रानी व बड़े होकर भद्रायु दोनों मृत्युंजय-मन्त्र का जप करने लगे। उधर राजा वज्रबाहु का राज्य शत्रुओं ने छीन लिया। एक दिन भद्रायु के मन्त्र जप से प्रसन्न होकर शिवयोगी पुन: प्रकट हो गए और उन्होंने उसे एक तलवार व शंख दिया और बारह हजार हाथियों का बल प्रदान किया। भद्रायु ने अपने पिता के शत्रुओं को मारकर राज्य पुन: प्राप्त कर लिया और मन्त्र जप के प्रभाव से सुख-शान्तिपूर्वक राज्य करते हुए अंत में वह शिवसायुज्य को प्राप्त हुआ।

भगवान की शरण में आने पर वे सदैव रक्षा करते हैं। भगवान त्र्यम्बक के समान दयालु और सरलता से प्रसन्न होने वाला कोई देवता नहीं है। उनका मन्त्र भी वैसा ही है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here