रावण और कुबेर

सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के पौत्र मुनि विश्रवा की दो रानियां थी–मंदाकिनी और कैकसी। मंदाकिनी के पुत्र कुबेर थे, जिनकी बुद्धि सदा धर्म में लगी रहती थी। कैकसी विद्युन्माली दैत्य की पुत्री थी, जिसके रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण तीन पुत्र हुए। रावण और कुम्भकर्ण की बुद्धि अधर्म में लगी रहती थी। भगवान शिव को तपस्या बहुत प्रिय है। कुबेर ने भगवान शिव को तपस्या से प्रसन्न कर लंका का निवास, मन के समान वेगशाली पुष्कर विमान, लोकपाल का पद  तथा राज्य-सम्पत्ति प्राप्त कीं।

एक बार कुबेर पुष्पक विमान पर आरुढ़ होकर अपने माता-पिता के पास आए। रावण ने कुबेर को देखकर अपनी मां कैकसी से पूछा कि इन्होंने किस तपस्या से ऐसा वायु के समान वेगवान विमान प्राप्त किया है। अपने सौतेले पुत्र के ऐश्वर्य  को देखकर रोष से भरी कैकसी ने कहा–’कुबेर ने भगवान शंकर को संतुष्ट कर लंका का राज्य और पुष्पक विमान प्राप्त किया है, परन्तु तुम तो कीड़े की भांति अपना पेट भरने में ही लगे रहते हो।’

क्रोध में भर कर रावण ने कहा–’कीड़े की-सी हस्ती रखने वाला यह कुबेर क्या चीज है? उसकी थोड़ी-सी तपस्या किस गिनती में है? लंका की क्या बिसात? थोड़े से सेवकों वाला उसका राज्य किस काम का है? मैं भी अन्न, जल, निद्रा का परित्याग कर दुष्कर तपस्या से ब्रह्माजी को प्रसन्न कर सभी लोकों को अपने वश में कर लूंगा।’

अभिमानी रावण की दुष्कर तपस्या

रावण ने सूर्य की ओर दृष्टि लगाए एक पैर पर खड़े होकर दस हजार वर्षों तक घोर तपस्या की। ब्रह्माजी ने प्रसन्न होकर रावण को बहुत बड़ा राज्य और सुन्दर स्वरूप प्रदान किया। रावण ने वर पाने के बाद अपने भाई कुबेर को बहुत सताया। उनका पुष्पक विमान और लंका का राज्य जबरदस्ती छीन लिया। उसने समस्त लोकों को बहुत दु:ख पहुंचाया। देवता स्वर्ग छोड़कर भाग गए। मुनियों को भी उसने बहुत त्रास दिया।

अभिमानी रावण की शिव-भक्ति

एक बार राक्षसराज रावण कैलास पर्वत पर शिवजी को प्रसन्न करने के लिए तपस्या करने लगा। जब उसने तप से शिवजी को प्रसन्न होते हुए नहीं देखा, तब वह यज्ञ-वेदी पर अपना मस्तक काट-काटकर चढ़ाने लगा। जब वह अपना अंतिम शीश काटने को उद्यत हुआ तो भगवान शंकर प्रसन्न होकर उसके सामने उपस्थित हो गए।

भगवान सदाशिव ने रावण को ज्ञान-विज्ञान, अतुल बल, युद्ध में अजेयता और अपने से दुगुने सिर प्रदान किए। भगवान शिव के पांच मुख हैं, इसलिए शिव से दुगुने सिर पाकर रावण दशमुख हुआ। भगवान शिव ने उसे त्रिकूट पर्वत का राजा बना दिया। शिवलिंग की पूजा के फलस्वरूप रावण ने तीनों लोकों को वश में कर लिया। उसने देवताओं और ऋषियों को परास्त कर उन सब पर अपनी प्रभुता स्थापित कर ली।

इस वर की प्राप्ति से देवगण और ऋषिगण बहुत दुखी हुए। उन्होंने नारदजी से पूछा कि इस दुष्ट रावण से हम लोगों की रक्षा कैसे हो? नारदजी ने देवताओं को आश्वस्त करते हुए कहा–’मैं इसका उपाय करता हूँ। तब जिस मार्ग से रावण जा रहा था, उसी मार्ग पर वीणा बजाते हुए नारदजी उपस्थित हुए और रावण से बोले–’राक्षसराज! तुम कहां से आ रहे हो और बहुत प्रसन्न दीख रहे हो?’ रावण ने सारा वृतान्त सुना दिया। नारदजी ने कहा–’शिव तो उन्मत्त हैं, तुम मेरे प्रिय शिष्य हो, इसलिए कह रहा हूँ, शिव पर विश्वास मत करो। दिए हुए वरदान को प्रमाणित करने के लिए कैलास को उठाओ। यदि तुम उसे उठा लेते हो, तो तुम्हारा प्रयास सफल माना जाएगा।’

रावण द्वारा कैलास पर्वत को उठाना

अभिमानी दशानन ने कैलास पर्वत को मूल से उखाड़कर अपने कंधों पर उठा लिया। पर्वत हिलते देखकर शिवजी ने कहा–’यह क्या हो रहा है? तब पार्वतीजी ने हँसते हुए कहा–’आपका शिष्य आपको गुरुदक्षिणा दे रहा है। जो हो रहा है, वह ठीक ही है।’

यह बलदर्पित अभिमानी रावण का कार्य है, ऐसा जानकर शिवजी ने उसे शाप देते हुए कहा–’अरे दुष्ट! शीघ्र ही तुझे मारने वाला उत्पन्न होगा।’ शिवजी ने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा दिया। दशानन का कंधा और हाथ पर्वत के नीचे दब गए तो वह जोर-जोर से रुदन करने लगा। पार्वतीजी के कहने पर भगवान ने अपने पैर का अंगूठा पर्वत से उठा लिया। दीर्घकाल तक रुदन करते-करते उसने भगवान शंकर की स्तुति की, जो ‘ताण्डव स्तुति’ के नाम से प्रसिद्ध है।

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजंगतुंगमालिकाम्।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
चकार चण्डताण्डवं तनोतु न: शिव: शिवम्।। (शिवताण्डव स्तोत्रम्)

अर्थात्–जिन्होंने जटारूपी वन से निकलती हुई गंगाजी की गिरती हुई धाराओं से पवित्र हुए गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारणकर, डमरु के डम-डम शब्दों से मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया, वे शिवजी हमारा कल्याण करें।

दशानन ने मुक्त होकर तांडव किया और कैलास पर यज्ञ किया भगवान शंकर ने दशानन से कहा–’तुम दीर्घकाल तक पर्वत के नीचे दबे रहने के कारण रोते रहे हो इसलिए भविष्य में तुम्हारा नाम रावण होगा।’

नन्दीश्वर द्वारा रावण को श्राप

एक बार राक्षसराज रावण कुबेर से छीने हुए पुष्पक विमान में बैठकर कैलास पर्वत पर गया। वहां पर नन्दीश्वर पहरे पर थे। रावण अपने पराक्रम की डींगें मारने लगा। नन्दी ने कहा–’तुम और मैं दोनों शिव के उपासक हैं, इसलिए तुम्हारा डींगें मारना मुझे अच्छा नहीं लग रहा है। पराक्रम तो हमारे आराध्य का प्रसाद है।’

रावण बोला–’तुम मेरे समान शिव के आराधक नहीं हो क्योंकि तुम्हारा मुख मेरे समान न होकर वानर समान है।’ नन्दी ने कहा–’भगवान शंकर तो मुझे अपने जैसा रूप प्रदान कर रहे थे परन्तु मैंने यह सोचकर कि सेवक का स्वामी के समकक्ष होना उचित नहीं है, वानर का मुख मांग लिया। इससे अपने में अभिमान नहीं आता है। अभिमानी, दम्भी, परिग्रही व्यक्ति भगवान शंकर की कृपा प्राप्त नहीं कर सकता।’

रावण बोला–’तुम्हें वानर मुख क्या मिला, तुम्हारी बुद्धि भी वानर बुद्धि हो गई है। मैं बुद्धिमान हूँ, मैंने भगवान शिव से दस मुख मांगे हैं। अधिक मुखों से शिवजी की अद्भुत स्तुति की जा सकती हैं। तुम्हारे इस वानर के समान मुख से क्या होगा?’

रावण की उपहासपूर्ण बातें सुनकर नन्दी ने उसे शाप देते हुए कहा–’सारे संसार को रुलाने वाले रावण ! मैं तुझे श्राप देता हूँ कि जब कोई तपस्वी श्रेष्ठ मानव वानरों के साथ मुझे आगे करके तुम पर आक्रमण करेगा, तब तुम्हारी मृत्यु निश्चित है। तुम्हारे ये सब सिर भूमि पर कट-कट कर धूल धूसरित हो जाएंगे।’

नन्दी की बात सुनकर सभी देवता बहुत प्रसन्न हुए और ब्रह्मा, शंकर सहित सभी देवता वैकुण्ठ में आए और भगवान विष्णु की स्तुति करने लगे।

देवताओं द्वारा भगवान विष्णु की स्तुति

देवदेव जगदीश्वर! आप छहों ऐश्वर्यों से युक्त होने के कारण भगवान कहलाते हैं। आपको नमस्कार है। यह सम्पूर्ण चराचर जगत आपके आधार पर टिका हुआ है। हम लोगों के लिए पहले भी आपने अनेक बार अवतार धारण किया है। आप ही सम्पूर्ण विश्व के पालक हैं अत: रावण के भय से अवश्य हमारा उद्धार करें।

नमो भगवते तुभ्यं देवदेव जगत्पते।
त्वदाधारमिदं सर्वं जगदेतच्चराचरम्।।

देवताओं का वानर व ऋक्षरूप में अवतार

देवताओं के प्रार्थना करने पर भगवान वासुदेव ने कहा–’रावण के द्वारा आप लोगों को जो भय प्राप्त हुआ है, उसे मैं जानता हूँ। अब अवतार धारण करके मैं उस भय का नाश करुंगा। नन्दी को आगे करके तुम सभी शीघ्र ही वानर व ऋक्ष (रीछ) रूप में अवतार लो। मैं माया से अपने स्वरूप को छिपाए हुए मनुष्य रूप में अयोध्या में राजा दशरथ के घर प्रकट होऊंगा। मैं आप लोगों के हित के लिए राजा की तीन रानियों के गर्भ से चार स्वरूपों में प्रकट होऊंगा। तुम्हारे कार्य की सिद्धि के लिए मेरे साथ ब्रह्मविद्या भी अवतार लेंगी। राजा जनक के घर साक्षात् ब्रह्मविद्या ही सीतारूप में प्रकट होंगी। रावण भगवान शिव का भक्त है। उसमें दु:सह तपस्या का बल है। जब वह ब्रह्मविद्यारूपी सीता को बलपूर्वक प्राप्त करना चाहेगा, तब वह पथभ्रष्ट होकर न तो तपस्वी रहेगा और न ही भक्त। धर्म से च्युत मनुष्य सदैव सुगमता से जीतने योग्य हो जाता है। उस समय मैं रावण का बल, वाहन और जड़मूल सहित संहार कर डालूंगा।’

भगवान विष्णु के वचन सुनकर सभी देवता अाशान्वित हो गए और अवतार धारण करने लगे। उन्होंने अपने-अपने अंश से ऋक्ष और वानर का रूप धारण करके समूची पृथ्वी को भर दिया।  इन्द्र के अंश से बालि उत्पन्न हुए। सुग्रीव सूर्य के पुत्र थे। जाम्बवान ब्रह्माजी के अंश से प्रकट हुए। शिलाद के पुत्र नन्दी जो भगवान शिव के अनुचर व ग्यारहवें रुद्र थे, महाकपि हनुमान हुए। इस तरह सभी देवता किसी-न-किसी वानर के रूप में प्रकट हुए। भगवान विष्णु माता कौसल्या का आनन्द बढ़ाने के लिए श्रीराम हुए। सम्पूर्ण विश्व उनके स्वरूप में रमण करता है, इसलिए उनको ‘राम’ कहते हैं।

तात राम नहिं नर भूपाला।
भुवनेस्वर कालहू कर काला।।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता।
व्यापक अजित अनादि अनंता।।
गो द्विज धेनु देव हितकारी।
कृपा सिंधु मानुष तनुधारी।।
जन रंजन भंजन खल ब्राता।
बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।। (रामचरितमानस, सुन्दरकाण्ड)

भगवान विष्णु के प्रति भक्ति से युक्त होने के कारण शेषनाग लक्ष्मण के रूप में अवतीर्ण हुए। भगवान विष्णु की भुजाओं से भरत-शत्रुघ्न हुए। राजा जनक की पुत्री सीता साक्षात् ब्रह्मविद्या थीं जो देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए अवतीर्ण हुईं थीं।

सीताजी के विभिन्न नाम

हल की नोंक के द्वारा पृथ्वी के खोदे जाने पर पृथ्वी से ये प्रकट हुईं थीं, इसलिए ‘सीता’ कहलाती हैं। मिथिला में अवतार लेने के कारण इन्हें ‘मैथिली’ कहते हैं। राजा जनक के कुल में जन्म लेने के कारण ये ‘जानकी’ नाम से जानी जाती हैं। राजा जनक ने ब्रह्मविद्यारूप सीता को परमात्मा ब्रह्मरूप श्रीराम को अर्पित कर दिया। श्रीराम ने देवताओं के कार्य की सिद्धि के लिए सीता व लक्ष्मण सहित वन में निवास किया। भरत और शत्रुघ्न ने भी बड़ी तपस्या की। तपोबल से सम्पन्न हो वानररूपधारी देवताओं को साथ लेकर श्रीराम ने छ: महीने तक युद्ध करके रावण का वध किया। भगवान विष्णुरूपी श्रीराम के शस्त्रों से मारा गया रावण अपने पुत्रों, बन्धुओं व गणों सहित भगवान शिव के सारुप्य को प्राप्त हुआ।

5 COMMENTS

    • नमस्कार राजेन्द्रजी! आपको ‘आराधिका’ द्वारा पोस्ट किए गए लेख पसन्द आते हैं, बहुत धन्यवाद!

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