shri krishna

सुन्दरगोपालम् उरवनमालं नयनविशालं दु:खहरम्।
वृन्दावनचन्द्रमानन्दकन्दं परमानन्दं धरणिधरम्।।
वल्लभघनश्यामं पूर्णकामम् अत्यभिरामं प्रीतिकरम्।
भज नन्दकुमारं सर्वसुखसारं तत्त्वविचारं ब्रह्मपरम्।। (श्रीनन्दकुमाराष्टकम्)

(जिनके हृदय पर वनमाला है, बड़े-बड़े नेत्र हैं, जो शोकहारी, वृन्दावन के चन्द्रमा, परमानन्दमय और पृथ्वी को धारण करने वाले हैं, जो सबके प्रिय, मेघ के समान श्यामल, पूर्णकाम, अत्यन्त सुन्दर और प्रेम करने वाले हैं; उन समस्त सुखों के सारभूत, परब्रह्मस्वरूप, नन्दनन्दन, मनमोहन, गोपाल श्रीकृष्ण को तत्त्वरूप जानकर भजो।)

जन-जन के आराध्य, मधुरता के स्वामी श्रीबालकृष्ण की सेवा-पूजा बड़े लाड़-चाव से विभिन्न वस्तुओं से की जाती है परन्तु कई बार कई कारणों से उनकी रागमयी पूजा सम्भव नहीं होती है। आराध्य तो भक्त के हृदय में बसता है अत: मानसी सेवा से भी मनुष्य बाहरी पूजा जैसा फल प्राप्त कर सकता है। परन्तु यह तभी संभव है जब मनुष्य यह निश्चय कर लेता है कि उसके एकमात्र आराध्य, सर्वस्व, जीवनधन, हृदयेश्वर कोई सांसारिक जीव नहीं बल्कि श्रीकृष्ण ही हैं, तभी मानसी-सेवा प्रारम्भ होती है।

मानसी-सेवा में सबसे पहले सुबह ब्राह्ममुहुर्त में जाग जाना चाहिए फिर बालकृष्ण के एक-एक अंग के दर्शन अपने हृदय में करिए। भावना करें कि हृदय-कमल के आसन पर नीलमणि, कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण विराजमान हैं। उनकी काली घुंघराली अलकावलि माथे पर लटक रही है, गले में वनमाला, हाथों में कंकण, कानों में मकराकृति कुण्डल, कमर में छोटी-छोटी घंटियों वाली करधनी सुशोभित है। केसर-युक्त चंदन से उनका श्रृंगार किया हुआ है। वे हाथ में मुरली लिए हैं। ठाकुरजी के लाल-लाल चरण हैं जिनमें कमल, स्वस्तिक, जौ आदि चिह्न हैं। प्रभु के नख तो रत्न जैसे हैं, मेघश्याम श्रीअंग पर सुन्दर पीताम्बर है, रत्नजटित मोरमुकुट है जिससे चारों ओर सुन्दर प्रकाश प्रकट हो रहा है। बालकृष्ण की ऐसी सुन्दर छवि का ध्यान चित्त को चुरा लेने वाला है।

वैसे तो ईश्वर हृदय में ही रहते हैं, कहीं जाते नहीं हैं और कहीं से आते भी नहीं है। मन जब उनके सम्मुख होता है, तभी वह आ जाते हैं और जब विमुख होता है तब वह चले जाते है। मन में जब भगवान के मुखारविन्द का ध्यान किया जाता है और आराधक व आराध्य की जब आंख से आंख मिलती है, तब दोनों ओर से आनन्द की लहर उठना ही भगवान का स्वागत है।

इसके बाद ऐसी भावना करना कि मैं गंगाजी/यमुनाजी को प्रणाम करके स्नान कर रहा हूँ और ठाकुरजी के स्नान के लिए पवित्र यमुनाजल ले आया हूँ। अभी बालकृष्ण सुन्दर शय्या पर नरम-नरम बिछौने पर सोये हुए हैं। सोते हुए कन्हैया मरकतमणि के समान बहुत सुन्दर दिखाई पड़ रहे हैं। सोते हुए उनके नेत्र बंद कमलपुष्प के समान जान पड़ते हैं। फिर ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे’ कीर्तन करते हुए ताली बजाकर बालकृष्ण को जगाना। कीर्तन करते हुए जब हृदय गद्गद् हो जाए तब ठाकुरजी जागेंगे तब उन्हें तुम सुवर्ण के सिंहासन पर मखमल की गद्दी पर बैठा देना और चांदी के कटोरे में केसरयुक्त गाय का दूध, माखन-मिश्री के साथ अर्पण करना। बालकृष्ण अपने सखाओं को भी इसमें से देते हैं अत: ऐसी भावना करना कि ठाकुर तुम्हें भी माखन दे रहे हैं।

मंगला-भोग के बाद बालकृष्ण से प्रार्थना करें कि हे गोविन्द! मैं स्नेह का जल, श्रद्धा के फूल, भाव के अक्षत, सद्गुणों की सुगन्ध लेकर पाद्य, अर्घ्य, आचमन और मधुपर्क आदि लाया हूँ। मेरे हृदय की झारी, भाव के जल से भरी हुई है, आप यह सब उपचार मुझे समर्पित करने की आज्ञा दें। इसके बाद एक-एक उपचार भावना से ही बालगोपाल को अर्पित करें।

  • हे गोविन्द! आपके चरणों को पखारने के लिए सोने के पात्र में सुगन्धित पुष्पों से युक्त गुनगुने जल से आपको पाद्य अर्पित करता हूँ।
  • हे नाथ! आपके करकमलों पर चंदन, पुष्पयुक्त जल का अर्पण करके अर्घ्य के द्वारा आपके हाथ धुलाता हूँ।
  • मन से ही ठाकुर के श्रीअंग पर सुगन्धित तैल लगाकर मालिश करने की भावना करना।
  • फिर हे गोपाल! चम्पा, मोगरा की सुगन्ध से पूर्ण यह अत्यन्त सुगन्धयुक्त उबटन है, जिसे मैं आपकी सेवा में लाया हूँ, कृपया इसे स्वीकार करो। इसके बाद आंवले के चूर्ण में सुगन्धित पदार्थ मिलाकर केशों का संस्कार करने की भावना करना।
  • हे नन्दनन्दन! आपको शुद्ध यमुनाजल से स्नान और आचमन कराता  हूँ। भगवान का श्रीअंग अत्यन्त कोमल है इसलिए भावना में भी यह ध्यान रखना है कि उन्हें जरा भी कष्ट न हो।
  • हे माधव! इस कोमल वस्त्र से आपके श्रीअंग को पौंछकर यह केसर में रंगा पीताम्बर जिससे परम प्रकाशमान सूर्यमण्डल की सी दिव्य कान्ति निकल रही है, आपको धारण करा रहा हूँ।
  • हे रूपसिन्धो! आपको अगरु-केसर-कस्तूरी मिश्रित चंदन का तिलक, कुंकुम की बिन्दी, गुलाब-मोगरा-केसर-खस आदि का इत्र समर्पित कर गुंजामाला, रत्नमाला, मोरमुकुट आदि नवरत्नों का श्रृंगार धारण कराता हूँ।
  • हे वृन्दापति! यह आपके चरणों में चंदन-चर्चित मंजरी सहित तुलसीदल है। तुलसी, कमल, मालती, मल्लिका, कुमुद, मोगरा, बेला, चमेली, कनेर आदि सुगन्धित पुष्पों की मालाएं आपको समर्पित करता हूँ।  
  • हे दामोदर! यह बहुत ही रुचिकर नैवेद्य जिसमें भांति-भांति के छौंक-बघारकर बनाये गये भात, घृतयुक्त खीर, दूध, दधि, मिश्री-माखन सहित नाना प्रकार की मिठाइयां–लड्डू, मेवे, शाक, पके फल, अचार तथा केवड़े व गुलाब से सुवासित मीठा जल लाया हूँ। ये सब मन के द्वारा ही बनाकर प्रस्तुत किए हैं, कृपया इन्हें स्वीकार कीजिए।

उपनिषद् कहते हैं–परमात्मा आनन्दमय है। उनको भूख नहीं लगती है। प्यास नहीं लगती है। वे खाते नहीं, पीते नहीं हैं। वे सभी को खिलाते हैं, सभी का पोषण करते हैं। परन्तु जब किसी वैष्णव का हृदय प्रेम से आकण्ठ भर जाता है, तब परमात्मा को भूख लगती है। प्रेम परमात्मा को बालक बना देता है। भक्ति तभी सफल है, जब भगवान को भूख लगती है और वे भक्त से मांग कर खाते हैं। बड़े-बड़े राजा और ऋषियों ने निमन्त्रण दिया पर श्रीकृष्ण किसी के घर नहीं गए। वे ही परमात्मा बिना निमन्त्रण पाए विदुरजी के घर पहुंच गए। जहां अतिशय प्रेम है, जहां अतिशय पवित्रता है, वहां परमात्मा बिना निमन्त्रण जाते हैं और मांग कर खाते हैं। अच्छे-से-अच्छा भोजन ठाकुरजी के लिए अर्पण करना चाहिए।

  • हे माधव! यह सुन्दर रत्नमय पात्र में सजाकर ताम्बूल बनाया है जिसमें पान के पत्तों पर जावित्री, कपूर, इलायची और सोपारी पड़ी हैं। इस ताम्बूल को आप भावना से ही ग्रहण करें।
  • हे केशव! जटामांसी, गुग्गुल, चन्दन, अगुरु-चूर्ण, कपूर, शिलाजीत, मधु, कुंकुम तथा घी मिलाकर उत्तम रीति से बनाया गया यह धूप मैं रत्नमय पात्र में लाया हूँ; इसकी सुगन्ध आपको संतोष प्रदान करे।
  • हे मुकुन्द! आपकी प्रसन्नता के लिए मैंने रत्नमय दीयट में कपूर और घी में डुबोई हुई बाती जलाई है जो मेरे जीवन के सारे अंधकार दूर कर दे। भगवान की शुद्ध घी में डुबोई बाती से आरती करनी है। आरती में पांच वस्तुएं रहती हैं। पृथिवी की गंध, जल की स्नेहधारा घी, अग्नि की लौ, वायु का हिलना, आकाश की ध्वनि। वैसे अपने देह का दीपक, जीवन का घी, प्राण की बाती और आत्मा की लौ संजोकर भगवान के इशारों पर नाचना–यह आरती है। इस सच्ची आरती के करने पर संसार का बंधन छूट जाता है। आरती के प्रकाश में भगवान के चमकते हुए आभूषण और श्रीअंग की कान्ति की जगमगाहट का दर्शन करके आनन्दित होना चाहिए। मानसिक रूप से ही आरती करते समय तीन बार चरणों के ऊपर से, तीन बार जंघा के पास, तीन बार वक्ष:स्थल पर से, तीन बार मुखारबिन्द पर से करके सात बार सारे श्रीअंग पर से उतारनी चाहिए। फिर मन से ही ठाकुरजी को साष्टांग प्रणाम कीजिए।
  • हे व्रजराज! आपके मुख की शोभा निहारने के लिए चन्द्रमा की किरणों के समान यह सुवर्ण और मोती-मूंगे जड़ित दर्पण हैं। प्रचण्ड वेग से घूमने वाले मन्दराचल की मथानी से जब क्षीरसागर मथा गया, उस समय यह दर्पण उसी से प्रकट हुआ था।
  • हे वासुदेव! अब मैं आपके हर्ष को बढ़ाने और पसीने के कष्टों को दूर करने के लिए चन्द्रमा और कुन्द के समान उज्जवल और श्वेत चंवर डुला रहा हूँ।
  • मानसी सेवा पूर्ण होने के बाद वंदन करके प्रार्थना कीजिए कि प्रभु आप मेरे हृदय में विराजें। दयाबाई के शब्दों में–

जनम जनम के बीछुरे, हरि! अब रह्यौ न जाय।
क्यों मन कूँ दुख देत हो, बिरह तपाय तपाय।।

  • हे करुणासिन्धु! इस भक्ति रस से भावित मेरे द्वारा की गई मानसी सेवा में यदि कहीं पर भी आपको कुछ भक्ति का अंश मिले तो प्रभु उसी से प्रसन्न हो जाओ। तुम्हारी भक्ति के लिए मेरे चित्त में जो आकुलता है, वही एकमात्र जीवन का फल है जो कोटि-कोटि जन्म धारण करने पर भी इस संसार में तुम्हारी कृपा के बिना सुलभ नहीं है। हाथों से, पैरों से, वाणी से, शरीर से, कर्म से, कर्णों से, नेत्रों से अथवा मन से जो भी अपराध मैंने किए हों, उन सबको हे करुणासिन्धु आप क्षमा कीजिए।
  • ईश्वर के लिए हमारे मन में जो उत्तम भाव उठते लगते हैं वही पुष्प हैं। इन्हीं सब भावों को बार-बार भगवान के साथ जोड़ना, इसी को पुष्पांजलि कहते हैं। यही सब करते-करते भगवान में समा जाना–मानो आनन्द के समुद्र में डूब रहे हों। यही डूबना-उतरना भगवान की मानसी-सेवा-पूजा है।

परमात्मा श्रीकृष्ण की एक आंख में ज्ञान और एक आंख में वैराग्य है। भगवान जिसे प्रेम से देखते हैं, उसकी बुद्धि में ज्ञान प्रस्फुटित होता है। इसलिए श्रीकृष्ण में दृष्टि स्थिर करके प्रभु की आंखों में आंखें मिलाकर प्रभु के नाम का जप करना चाहिए। क्योंकि–

सुखावसाने त्विदमेव सारं दु:खावसाने त्विदमेव गेयम्।
देहावसाने त्विदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।

अर्थात्–सुख के अंत में यही सार है, दु:ख के अन्त में यही गाने योग्य है और शरीर का अंत होने के समय भी ‘हे गोविन्द! हे दामोदर! हे माधव!’ यही मन्त्र जपने योग्य है।

3 COMMENTS

  1. namaste anubhavanisandeh apki vidwta ka labh jitno ko milta hoga vah anupam hai apka shuru mein blog padha to laga ki ye kewal prakanvidwan hi nahin likh sakta balki jisne param tatv ka nirgun ya sagun anubhav kiya ho vah hi likh sakta hai lekin jitne bhi satwan apke pade nischit tor par bahut kuch badal sakten hain ye sabhi ke liye hai han main itna zarur kahunga ki aapka meiri f b par swagat hai aap jaise maha anubhavon ka jahan bhi padarpan hoga kalyankari hoga apka abhar

  2. Hare Krishna,
    Excellent article . full of devotion and dedication to Krishna. Keep writing so we can also get the Nector of devotion.

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