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भगवान श्रीकृष्ण का चतुर्भुज रूप

भगवान ने अपने चतुर्भुज दिव्य रूप के दर्शन की दुर्लभता और उसकी महत्ता बताते हुए अर्जुन से कहा—‘मेरे इस रूप के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं; मेरे इस रूप के दर्शन की इच्छा देवता भी करते हैं । मेरा यह चतुर्भुजरूप न वेद के अध्ययन से, न यज्ञ से, न दान से, न क्रिया से और न ही उग्र तपस्या से देखा जा सकता है । इस रूप के दर्शन उसी को हो सकते हैं जो मेरा अनन्य भक्त है और जिस पर मेरी पूर्ण कृपा है ।

कल्पवृक्ष के समान श्रीकृष्ण के नाम

भगवान श्रीकृष्ण का नाम चिन्तामणि, कल्पवृक्ष है--सब अभिलाषित फलों को देने वाला है। यह स्वयं श्रीकृष्ण है, पूर्णतम है, नित्य है, शुद्ध है, सनातन है। भगवान के नाम अनन्त हैं, उनकी गणना कर पाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। यहां कुछ थोड़े से प्रचलित नामों का अर्थ दिया जा रहा है ।

गरुड़, सुदर्शन चक्र और श्रीकृष्ण की पटरानियों का गर्व-हरण

जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है । इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना । भगवान ऐसे ही अकिंचन भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं । भगवान अहंकार को शीघ्र ही मिटाकर भक्त का हृदय निर्मल कर देते हैं ।

भगवान श्रीकृष्ण का पांचजन्य शंख

भगवान श्रीकृष्ण अपने चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण करते हैं । उनके शंख का नाम ‘पांचजन्य’ है, जिसे उन्होंने महाभारत युद्ध के आरम्भ में कुरुक्षेत्र के मैदान में बजाया था । श्रीकृष्ण और अर्जुन ने जब भीष्म पितामह सहित कौरव सेना के द्वारा बजाये हुए शंखों और रणवाद्यों की ध्वनि सुनी, तब इन्होंने भी युद्ध आरम्भ की घोषणा के लिए अपने-अपने शंख बजाए ।

मनुष्य के बार-बार जन्म-मरण का क्या कारण है ?

प्रत्येक जीव इंद्रियों का स्वामी है; परंतु जब जीव इंद्रियों का दास बन जाता है तो जीवन कलुषित हो जाता है और बार-बार जन्म-मरण के बंधन में पड़ता है । वासना ही पुनर्जन्म का कारण है । जिस मनुष्य की जहां वासना होती है, उसी के अनुरूप ही अंतसमय में चिंतन होता है और उस चिंतन के अनुसार ही मनुष्य की गति—ऊंच-नीच योनियों में जन्म होता है । अत: वासना को ही नष्ट करना चाहिए । वासना पर विजय पाना ही सुखी होने का उपाय है ।

रोम रोम से श्रीकृष्ण नाम

भगवान के नाम में विलक्षण शक्ति है । जिस प्रकार किसी व्यक्ति का नाम लेने पर वही आता है; ठीक उसी तरह ‘श्रीकृष्ण’ नाम का उच्चारण करने पर वह तीर की तरह लक्ष्यभेद करता हुआ सीधे भगवान के हृदय पर प्रभाव करता है; जिसके फलस्वरूप मनुष्य श्रीकृष्ण कृपा का भाजन बनता है । जहाँ कहीं और कभी भी शुद्ध हृदय से ‘कृष्ण’ नाम का उच्चारण होता है; वहाँ-वहाँ स्वयं कृष्ण अपने को व्यक्त करते हैं ।

देवर्षि नारद द्वारा भगवान श्रीकृष्ण के गृहस्थ जीवन का दर्शन

भगवान की लीलाओं को पढ़ने-सुनने का अभिप्राय यह है कि उनकी भक्ति हमारे हृदय में आये । जैसे सुगंधित चीज को नाक से सूंघने पर, स्वादिष्ट चीज को जीभ से चखने पर और सुंदर चीज को आंखों से देखने पर उससे अपने-आप ही प्रेम हो जाता है; वैसे ही बार-बार भगवान की लीला कथाओं को पढ़ने-सुनने से भगवान से अपने-आप प्रेम हो जाता है । भगवान श्रीकृष्ण की प्रत्येक दिव्य लीला के पीछे मानव के कल्याण की ही भावना निहित थी ।

शिवलिंग के पूजन से श्रीकृष्ण और अर्जुन को अजेयता की प्राप्ति

‘जयद्रथ को यदि सूर्यास्त के पहले न मार सकूं तो मैं चिता-प्रवेश’ करुंगा’—ऐसी प्रतिज्ञा जब अर्जुन ने की, तब सारी रात भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को शिवलिंग-पूजन में लगा कर उसे पाशुपतास्त्र पुन: प्राप्त कराया । ‘मेरे रथ के आगे यह त्रिशूलधर कौन हैं ?’ युद्धभूमि में जब अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से इस प्रकार पूछा, तब श्रीकृष्ण ने कहा—‘जिसकी तू आराधना करता है, वही तेरी रक्षा के लिए यहां उपस्थित हैं और उन्हीं की कृपा से सब जगह तेरी विजय होती है ।’

भगवान श्रीराधाकृष्ण की बिछुआ लीला

श्रीकृष्ण ने अपनी प्रिया श्रीराधा का चरण-स्पर्श किया । यह देख कर श्रीराधा की सभी सखियां ‘बलिहारी है बलिहार की’—इस तरह का उद् घोष करने लगीं । सारा वातावरण सखियों के परिहास से रसमय हो गया । श्रीकृष्ण ने भी लजाते हुए श्रीराधा के पैर की अंगुली में बिछुआ धारण करा दिया ।

श्रीराधा-कृष्ण का अनुपम प्रेम

राधारानी ने ललिता सखी से कहा—‘सखी ! यदि श्रीकृष्ण के हृदय में करुणा नहीं है तो इसमें तुम्हारा तो कोई दोष नहीं है । अब जो मैं कहती हूँ सो तुम करो । थोड़ी देर में जब मेरे शरीर से प्राण निकल जायें, तब तुम मेरी अन्त्येष्टि-क्रिया इस प्रकार करना । मेरे इस शरीर को तमाल वृक्ष से सटाकर बांध देना और उसकी डाल में मेरे दोनों हाथ लटका देना जिससे जीवित अवस्था में न सही, मरने के बाद इस शरीर को श्रीकृष्ण का आलिंगन मिलता रहे ।’