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‘राम’ नाम लिखे तुलसीपत्र की महिमा

सबका पालनहार एक ‘राम’ ही है । संसारी प्राणी तो दान ही दे सकते हैं; परन्तु मनुष्य की जन्म-जन्म की भूख-प्यास नहीं मिटा सकते हैं । वह तो उस दाता के देने से ही मिटेगी । इसलिए मांगना है तो मनुष्य को भगवान से ही मांगना चाहिए, अन्य किसी से मांगने पर संसार के अभाव मिटने वाले नहीं हैं । लेकिन मनुष्य सोचता है कि मैं कमाता हूँ, मैं ही सारे परिवार का पेट भरता हूँ । यह सोचना गलत है । इसलिए देने वाले के नेत्र सदैव नीचे और लेने वाले के ऊपर होते हैं ।

गुरु कृपा रूपी रक्षा कवच

एक दिन मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम सरयू नदी में स्नान कर जब बाहर निकले तो हनुमान जी ने देखा कि प्रभु की कमर पर पांच अंगुलियों का एक नीला निशान स्पष्ट दिखाई दे रहा है । आश्चर्यचकित होकर हनुमान जी सोचने लगे कि मेरे प्रभु की कमर पर इतनी गहरी चोट का निशान कहां से आया ? मेरे रहते हुए किसने प्रभु को चोट पहुंचाई है ।

भगवान श्रीराम ने लंका का सेतु क्यों भंग किया ?

लंका विजय के बहुत दिनों बाद एक बार भगवान श्रीराम को विभीषण की याद आई । उन्होंने सोचा—‘मैं विभीषण को लंका का राज्य दे आया हूँ, वह धर्मपूर्वक शासन कर भी रहा है या नहीं । राज्य के मद में कहीं वह कोई अधर्म का आचरण तो नहीं कर रहा है । मैं स्वयं लंका जाकर उसे देखूंगा और उपदेश करुंगा, जिससे उसका राज्य अनन्तकाल तक स्थायी रहे ।’

जग में सुंदर हैं दो नाम, चाहे कृष्ण कहो या राम

परमात्मा के सभी अवतारों की अपनी अलग विशेषता होती है । किसी अवतार में धर्म ही विशेंष रूप से प्रधान रहता है तो किसी में प्रेम और आनंद । कोई परमात्मा का मर्यादा पुरुषोत्तम अवतार है तो कोई लीला पुरुषोत्तम अवतार कहलाता है ।

संत-कृपा से ईश्वरीय विधान भी बदल जाता है

भगवान समुद्र हैं तो संत मेघ हैं, भगवान चंदन हैं तो संत पवन हैं । समुद्र जल से भरा रहता है परंतु वह किसी के काम नहीं आता । परंतु बादल जब उसी समुद्र से जल उठा कर समय-समय पर बरसाते हैं तो सारे संसार में आनंद की लहर छा जाती है । इसी तरह परमात्मा सब जगह हैं; परंतु जब तक संतजन उस परमात्मा का सब जगह गुणगान नहीं करते, तब तक लोग उस परमात्मा को नहीं जान सकते । इसलिए मुझे लगता है राम से अधिक राम का दास (संत) है ।

गिलहरी पर भगवान राम की कृपा

गिलहरी के निष्काम सेवा-भाव से प्रभु श्रीराम प्रसन्न हो गए । उन्होंने गिलहरी को बांये हस्त पर बैठा रखा था । एक छोटे-से प्राणी को उन्होंने वह आसन दे रखा था जिसकी कल्पना त्रिभुवन में कोई कर भी नहीं सकता । श्रीराम जी ने अपने दाहिने हाथ की तीन अंगुलियों से गिलहरी की पीठ थपथपा दी ।

वाल्मीकीय रामायण की ‘राम गीता’

जो रात बीत जाती है, वह लौट कर फिर नहीं आती, जैसे यमुना जल से भरे हुए समुद्र की ओर जाती ही है, उधर से लौटती नहीं । दिन-रात लगातार बीत रहे हैं और इस संसार में सभी प्राणियों की आयु का तीव्र गति से नाश कर रहे हैं; ठीक वैसे ही, जैसे सूर्य की किरणें ग्रीष्म ऋतु में जल को तेजी से सोखती रहती हैं । तुम अपने ही लिए चिन्ता करो, दूसरों के लिए क्यों बार-बार शोक करते हो ?

सबसे बड़ा मूर्ख कौन ?

अंतकाल में जब बोलने की भी शक्ति नहीं होगी, प्राण-पखेरु इस देह रूपी पिंजरे को छोड़ कर उड़ गया होगा, तब सभी लोग कहेंगे—‘राम नाम सत्य है’; परंतु जब तक शरीर में शक्ति है, देह में आत्मा है, तब तक ‘रामनाम’ लेने की सीख कोई नहीं देता । यही इस संसार की सबसे बड़ी मूर्खता है ।

राम जी की चरण-पादुकाएं

वन में राम जी के तपस्वी जीवन की तुलना में भरत जी का तपस्वी जीवन अधिक श्रेष्ठ है; क्योंकि वन में रह कर तप करना बहुत कठिन नहीं है । राजमहल में रह कर तप करने वाला सच्चा ब्रह्मनिष्ठ साधु है । सब प्रकार की अनुकूलता हो, विषयभोग के साधन हों फिर मन विषयों में न लगे; यही सच्ची साधुता है, सच्चा वैराग्य है । भिखारी को खाने को न मिले और फिर वह उपवास करे तो उसका कोई विशेष अर्थ नहीं है । सब कुछ होने पर भी मन किसी विषय में न जाए, यही सच्चा वैराग्य है ।

लक्ष्मण-गीता : लक्ष्मण और निषादराज गुह संवाद

कैकेयी ने श्रीराम को वनवास दिया, उस समय माता कौसल्या को अत्यंत दु:ख हुआ । लेकिन श्रीराम ने माता को समझाते हुए कहा—‘मां ! यह मेरे कर्मों का फल है । मैंने पूर्वजन्म में माता कैकेयी को दु:ख दिया था, उसके फलस्वरूप मुझे वनवास मिला है । मैंने परशुराम अवतार में जो किया, उसका फल रामावतार में मुझे भोगना ही है ।