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भगवान शंकर का सिद्ध स्तोत्र शिव महिम्न:-स्तोत्र

परम शिवभक्त गन्धर्वराज पुष्पदंत द्वारा रतित शिव महिम्न:-स्तोत्र उपासक को अवश्य फल देने वाला है।

श्रावणमास में शिवपूजा संवारती है जीवन

दरिद्रता, रोग, दु:ख और शत्रुपीड़ा को दूर भगाए श्रावण में शिवपूजा |

भगवान शिव और पार्वती के परिहास में छिपा जगत का कल्याण

’पार्वती! तुम अपने पिता हिमाचल की तरह पत्थर-दिल प्रतीत होती हो। तुम्हारी चाल में भी पहाड़ी मार्गों की तरह कुटिलता है। ये सब गुण तुम्हारे शरीर में हिमाचल से ही आए प्रतीत होते हैं।’ शिवजी के इन वचनों ने पार्वतीजी की क्रोधाग्नि में घी का काम किया। उनके होंठ फड़कने लगे, शरीर कांपने लगा।

शिवावतार महायोगी गुरु गोरक्षनाथ

महायोगी गोरखनाथजी मनुष्यों को योग का अमृत प्रदान करने के लिए चारों युगों में विद्यमान हैं। ऐसी मान्यता है कि त्रेतायुग में भगवान श्रीराम ने अश्वमेधयज्ञ के समय गोरखनाथ मन्दिर, गोरखपुर में गुरु गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए आमन्त्रित किया था। द्वापर में धर्मराज युधिष्ठिर ने गोरखनाथजी को अपने यज्ञ में शामिल होने के लिए बुलाया था। महायोगी गोरखनाथजी ने श्रीकृष्ण और रुक्मिणीजी का कंगन-बंधन सिद्ध किया था। वे श्रीराम, हनुमान, युधिष्ठिर, भीम आदि सभी के पूज्य थे। मां ज्वाला ने स्वयं अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाने का उनसे अनुरोध किया था।

व्रज में गोपी बने त्रिपुरारि

महारास में गोपियों के मण्डल में मिलकर गोपीरूप शंकरजी अतृप्त नेत्रों से मनमोहन श्रीकृष्ण की रूपमाधुरी का पान करने लगे। रासेश्वर श्रीकृष्ण और रासेश्वरी श्रीराधा को गोपियों के साथ नृत्य करते देखकर भोलेनाथ स्वयं भी ‘तत थेई थेई’ कर नाचने लगे। तभी श्यामसुन्दर ने ऐसी मोहनी वंशी बजाई कि भोलेनाथ अपनी सुध-बुध भूल गए और उनके सिर से घूंघट हट गया और उनकी जटाएं बिखर गईं।

शिवरात्रि पर शिवपूजन की विधि

भगवान शिव के षोडशोपचार अर्थात् सोलह उपचारों से पूजा की सामग्री व विधि दी जा रही है। अपने समय, स्वास्थ्य व सामर्थ्य के अनुसार जैसे भी बने, पूजा की जा सकती है। भगवान सदाशिव की पूजा जहां एक ओर राजसी उपचारों व वैभव से की जाती है; वहीं दूसरी ओर वह केवल जल, अक्षत, बिल्वपत्र और मुखवाद्य (मुख से बम-बम भोले की ध्वनि) से ही पूरी हो जाती है। शिवजी की प्रसन्नता के लिए गाल बजाना भी श्रेष्ठ माना गया है; इसीलिए वे ‘आशुतोष’ कहे जाते हैं।

फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को क्यों कहते हैं महाशिवरात्रि?

महाशिवरात्रि फाल्गुनमास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी तिथि को मनाई जाती है। भगवान शिव के निराकार से साकाररूप में अवतरण की रात्रि ही महाशिवरात्रि है। कहा जाता है कि इस दिन शिवजी समस्त शिवलिंगों में प्रवेश करते हैं। ईशान-संहिता के अनुसार फाल्गुन कृष्ण चतुर्थी की रात्रि को भगवान शिव करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाले लिंगरूप में प्रकट हुए। इसलिए इसे महाशिवरात्रि कहते हैं जबकि प्रत्येक मास की कृष्णपक्ष की चतुर्दशी ‘शिवरात्रि’ कहलाती है।

भगवान शिव का संसार को दान

ब्रह्माजी इसलिए परेशान हैं कि जिन लोगों के मस्तक पर मैंने सुख का नाम-निशान भी नहीं लिखा था, आपके पति शिवजी अपनी परम उदारता और दानशीलता के कारण उन कंगालों को इन्द्रपद दे देते हैं, जिससे उनके लिए स्वर्ग सजाते-सजाते मेरे नाक में दम आ गया है। शिवजी ब्रह्मा का लिखा भाग्य पलटकर अनधिकारियों को स्वर्ग भेज रहे हैं। दीनता और दु:ख को कहीं भी रहने की जगह न मिलने से वे दु:खी हो रहे हैं। याचकता व्याकुल हो रही है। अर्थात् शिवजी की दानशीलता ने सभी दीनों व कंगालों को सुखी और राजा बना दिया है। शिवजी ने प्रकृति के सारे नियम ही पलट दिए हैं।

भगवान कृष्ण के बालरूप के दर्शन के लिए शंकरजी की जोगी...

भगवान शिव के इष्ट हैं विष्णु। जब विष्णुजी ने श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लिया तो अपने इष्ट के बाल रूप के दर्शन और उनकी लीला को देखने के लिए शिवजी ने जोगी रूप बनाया।