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योगमाया किसे कहते हैं ?

भगवान की अचिन्त्य शक्ति का नाम ‘योगमाया’ या ‘महामाया’ है । ‘अचिन्त्य’ का अर्थ होता है अचिंतनीय (unthinkable) । भगवान की लीला के लिए पहले से ही मंच, पात्र आदि तैयार कर देना, संसारी जीवों के सामने भगवान की भगवत्ता को छुपा कर रखना आदि काम योगमाया ही करती हैं ।

कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्

गुरु माता ने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया—‘तुम्हारे मुख में सरस्वती का वास होगा, चरणों में लक्ष्मी का वास होगा, तुम्हारी कीर्ति सारे संसार में फैली रहेगी, तुम कभी भी ज्ञान को नहीं भूलोगे ।’ ज्ञान प्राप्त करना इतना कठिन नहीं है जितना कि उसको स्थिर रखना । सद्गुरु की कृपा से ही प्राप्त ज्ञानस्थिर रहता है ।

साग विदुर घर खायो

विदुरजी बड़ी सावधानी से भगवान को केले का गूदा खिलाने लगे तो भगवान ने कहा—‘आपने केले तो मुझे बड़े प्यार से खिलाए, पर न मालूम क्यों इनमें छिलके जैसा स्वाद नहीं आया ।’ इसी से कहा गया है—‘सबसे ऊंची प्रेम सगाई ।’

मधुरता के ईश्वर श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण प्रेम, आनन्द और माधुर्य के अवतार माने जाते हैं । अपनी व्रज लीला में उन्होने सबको इन्हीं का ही वितरण किया । अपनी माधुर्य शक्ति से वे जीव को अपनी ओर आकर्षित कर कहते हैं--’तुम यहां आओ ! मैं ही सच्चा आनन्द हूँ । मैं तुमको आत्मस्वरूप का दान करने के लिए बुलाता हूँ ।’

भगवान के हरिहर स्वरूप का क्या है रहस्य ?

इतने में देवर्षि नारद वीणा बजाते, हरिगुण गाते वहां पधारे । तब पार्वतीजी ने नारदजी से इस समस्या का हल निकालने के लिए कहा । नारदजी ने हाथ जोड़कर कहा–‘मैं इसका क्या हल निकाल सकता हूँ । मुझे तो हरि और हर एक ही लगते हैं; जो वैकुण्ठ है वही कैलाश है ।’

‘दोषों में गुण देखना’ यही है संत का स्वभाव

यह कह कर भट्टजी ने अपनी दोनों भुजाओं में महंतजी को भर कर हृदय से लगा लिया । भट्टजी की सरल और प्रेमपूर्ण वाणी सुन कर और उनके अंगस्पर्श से आज सचमुच महंतजी का हृदय पिघल गया और उनकी आंखों से अश्रुधारा बह निकली । दोष में गुण देखना—यही संत का सहज स्वभाव है ।

भगवान विट्ठल और भक्त कान्होपात्रा

यह कहते-कहते कान्होपात्रा की देह अचेतन हो गई । उसमें से एक ज्योति निकली और वह भगवान की ज्योति में मिल गई । कान्हूपात्रा की अचेतन देह भगवान पण्ढरीनाथ के चरणों पर आ गिरी । कान्होपात्रा की अस्थियां मंदिर के दक्षिण द्वार पर गाड़ी गईं । मंदिर के समीप कान्होपात्रा की मूर्ति खड़ी-खड़ी आज भी पतितों को पावन कर रही है ।

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी विरचित ‘कृष्णाश्रय’ स्तोत्र

कृष्णाश्रय का अर्थ है सदा-सर्वदा पति, पुत्र, धन, गृह--सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं-- इस भाव से व्रजेश्वर श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है । इसके अतिरिक्त किसी भी देश, किसी भी वर्ण, किसी भी आश्रम, किसी भी अवस्था में और किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है ।

सबके प्यारे, सबसे न्यारे भगवान श्रीकृष्ण

भगवान श्रीकृष्ण ने संसार को उपदेश दिया कि कलियुग में मुख्यरूप से ब्रह्मचर्य और गृहस्थ दो ही आश्रम रहेंगे । इसलिए उन्होंने अर्जुन, उद्धव, अक्रूर और गोपियां आदि गृहस्थों को ही अपना दिव्य ज्ञान दिया । भगवान ने यह बतलाया कि गृहस्थाश्रम में रहकर संसार के समस्त व्यवहारों को करते हुए किस प्रकार भगवान की प्राप्ति हो सकती है ।

भक्ति हो तो भक्त सुधन्वा जैसी

सुधन्वा का कटा मस्तक ‘गोविन्द ! मुकुन्द ! हरि !’ पुकारता हुआ श्रीकृष्ण के चरणों पर जा गिरा । श्रीकृष्ण ने झट से उस सिर को दोनों हाथों में उठा लिया । उसी समय उस मुख से एक ज्योति निकली और सबके देखते श्रीकृष्ण के श्रीमुख में लीन हो गई ।