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भगवान शंकर का अंगराग चिताभस्म

जैसे राजा अपने राज्य में कर लगाकर उन्हें ग्रहण करता है, जैसे मनुष्य भोज्य पदार्थों को पकाकर उसका सार ग्रहण करता है तथा जैसे जठरानल तरह-तरह के भोज्य पदार्थों को अधिक मात्रा में ग्रहणकर उसको पचाकर उसका सारतत्त्व पोषण रूप में लेता है, उसी प्रकार परमेश्वर शिव ने भी संसाररूपी प्रपंच को जलाकर भस्मरूप से उसके सारतत्त्व को ग्रहण किया है।

परब्रह्म की सृष्टिकामना और गोलोक का प्राकट्य

अव्यक्त से व्यक्त होना, एक से अनेक होना, निराकार से साकार होना, सूक्ष्म का स्थूल होना सृष्टि है। वे स्वयं ही अपने-आपकी, अपने-आप में, अपने-आप से ही सृष्टि करते हैं। वे ही स्रष्टा, सृज्य और सृष्टि हैं। उनके अतिरिक्त और कोई वस्तु नहीं है। सृष्टि को अनादि माना जाता है। सृष्टि के बाद प्रलय और प्रलय के बाद सृष्टि--यह परम्परा अनादिकाल से चली आ रही है। विभिन्न कल्पों में सृष्टि वर्णन में भी भिन्नता पाई जाती है। कभी आकाश से, कभी तेज से, कभी जल से और कभी प्रकृति से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। रजोगुण की प्रधानता से सृष्टि होती है और तमोगुण की प्रधानता से प्रलय होता है।