‘जैसे भूमि पर रहने वाले सभी प्राणी वर्षा की बाट जोहते रहते हैं, उसी प्रकार पितृलोक में रहने वाले पितर श्राद्ध की प्रतीक्षा करते रहते हैं। पितर सभी लोकों में पूजनीय होते हैं, वे देवताओं के भी देवता हैं।’ (महाभारत, अनुशासनपर्व)

पितृपक्ष और पितृविसर्जनी अमावस्या

आश्विनमास (क्वार) के कृष्णपक्ष के पन्द्रह दिन ‘पितृपक्ष’ के नाम से जाने जाते हैं। इन पन्द्रह दिनों में लोग अपने पितरों को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर ‘श्राद्ध’ करते हैं। पितरों का ऋण श्राद्ध द्वारा चुकाया जाता है।

यद्यपि प्रत्येक अमावस्या पितरों की पुण्यतिथि है, तथापि आश्विन कृष्ण अमावस्या को ‘पितृविसर्जनी अमावस्या’ या महालया कहते हैं। जिनको अपने पितरों की तिथि याद नही हो, या जो पितृपक्ष में पन्द्रह दिनों में श्राद्ध नहीं करते हैं, वे अपने पितरों के निमित्त श्राद्ध, तर्पण, दान आदि इस दिन करते हैं। इस दिन के बाद सभी पितरों का विसर्जन होता है और वे अपने वंशजों को आशीर्वाद देकर अपने लोक को लौट जाते हैं।

चौदह दिनों तक पितरों के लिए अन्न-जल दान से होती है चौदह फलों की प्राप्ति

प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक की चौदह तिथियों में श्राद्ध-दान करने से मनुष्य इन चौदह फलों को पाता है–
1. रूप-शील युक्त कन्या,
2. बुद्धिमान व रूपवान दामाद,
3. श्रेष्ठ पुत्र,
4. पशुधन,
5. विजय,
6. व्यापार में लाभ,
7. खेती व नौकरी में लाभ,
8. समृद्धि,
9. ओज-तेज,
10. नीरोगता,
11. बल,
12. जाति भाईयों में श्रेष्ठता,
13. सम्पूर्ण मनोरथों की प्राप्ति,
14. परम गति।

श्राद्ध के लिए सबसे पवित्र स्थान गयातीर्थ है। उसी प्रकार माता के लिए काठियावाड़ का सिद्धपुर नामक स्थान परम पवित्र माना गया है। यहां माता का श्राद्ध करने से पुत्र अपने मातृ-ऋण से सदा-सर्वदा के लिए मुक्त हो जाता है।

श्राद्ध में ‘क्या करें’ और ‘क्या न करें’

पितरों के कार्य में बहुत सावधानी रखनी चाहिए, अत: श्राद्ध में इन बातों का ध्यान रखना चाहिए–

▪️वर्ष में दो बार श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। जिस तिथि पर व्यक्ति की मृत्यु होती है, उस तिथि पर वार्षिक श्राद्ध करना चाहिए। पितृपक्ष में मृत व्यक्ति की जो तिथि आए, उस तिथि पर मुख्यरूप से पार्वणश्राद्ध करने का विधान है।

▪️मनु ने श्राद्ध में तीन चीजों को अत्यन्त पवित्र कहा है–

  1. कुतप मुहूर्त (दोपहर के बाद कुल 24 मिनट का समय)–ब्रह्माजी ने पितरों को अपराह्नकाल दिया है। असमय में दिया गया अन्न पितरों तक नहीं पहुंचता है। सायंकाल में दिया हुआ कव्य राक्षस का भाग हो जाता है।
  2. तिल, श्राद्ध की जगह पर तिल बिखेर देने से वह स्थान शुद्ध व पवित्र हो जाता है।
  3. दौहित्र (लड़की का पुत्र)।

▪️पिता का श्राद्ध पुत्र को ही करना चाहिए। पुत्र न हो तो पत्नी कर सकती है।

▪️श्राद्ध में पवित्रता का बहुत महत्व है। पितृकार्य में वाक्य और कार्य की शुद्धता बहुत जरुरी है और इसे बहुत सावधानी से करना चाहिए।

▪️श्राद्धकर्ता को क्रोध, कलह व जल्दबाजी नही करनी चाहिए।

▪️श्राद्धकर्म करने वाले को पितृपक्ष में पूरे पन्द्रह दिन क्षौरकार्य (दाढ़ी-मूंछ बनाना, नाखून काटना) नहीं करना चाहिए और ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए।

▪️श्राद्ध में सात्विक अन्न-फलों का प्रयोग करने से पितरों को सबसे अधिक तृप्ति मिलती है। काला उड़द, तिल, जौ, सांवा चावल, गेहूँ, दूध, दूध के बने सभी पदार्थ, मधु, चीनी, कपूर, बेल, आंवला, अंगूर, कटहल, अनार, अखरोट, कसेरु, नारियल, तेन्द, खजूर, नारंगी, बेर, सुपारी, अदरक, जामुन, परवल, गुड़, मखाना, नीबू आदि अच्छे माने जाते हैं।

▪️कोदो, चना, मसूर, कुलथी, सत्तू, काला जीरा, टेंटी, कचनार, कैथ, खीरा, लौकी, पेठा, सरसों, काला नमक व कोई भी बासी, गला-सड़ा, कच्चा व अपवित्र फल और अन्न श्राद्ध में प्रयोग नहीं करना चाहिए।

▪️श्राद्ध-कर्म में इन फूलों का प्रयोग नहीं करना चाहिए–कदम्ब, केवड़ा, बेलपत्र, कनेर, मौलसिरी, लाल व काले रंग के पुष्प और तेज गंध वाले पुष्प। इन पुष्पों को देखकर पितरगण निराश होकर लौट जाते हैं।

▪️श्राद्ध में अधिक ब्राह्मणों को निमन्त्रण नहीं देना चाहिए। पितृकार्य में एक या तीन ब्राह्मण पर्याप्त होते हैं। ज्यादा ब्राह्मणों को निमन्त्रण देकर यदि उनके आदर-सत्कार में कोई कमी रह जाए तो वह अकल्याणकारी हो सकता है।

▪️श्राद्ध के लिए उत्तम ब्राह्मण को निमन्त्रित करना चाहिए जो योगी, वैष्णव, वेद-पुरान का ज्ञाता, विद्या, शील व तीन पीढ़ी से ब्राह्मणकर्म करने वाला व शान्त स्वभाव का हो। श्राद्ध में केवल अपने मित्रों और गोत्र वालों को खिलाकर ही संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए।

▪️अंगहीन, रोगी, कोढ़ी, धूर्त, चोर, नास्तिक, ज्योतिषी, मूर्ख, नौकर, काना, लंगड़ा, जुआरी, अंधा, कुश्ती सिखाने वाले व मुर्दा जलाने वाले ब्राह्मण को श्राद्ध-भोजन के लिए नहीं बुलाना चाहिए।

▪️श्राद्ध में निमन्त्रित ब्राह्मण को आदर से बैठाकर पाद-प्रक्षालन (पैर धोना) चाहिए।

▪️श्राद्धकर्ता हाथ में पवित्री (कुशा से बनाई गई अंगूठी) धारण किए रहे।

▪️ब्राह्मण-भोजन से श्राद्ध की सम्पन्नता–ब्राह्मणों को भोजन कराने से वह पितरों को प्राप्त हो जाता है। मृत व्यक्तियों की तिथियों पर केवल ब्राह्मण-भोजन कराने की परम्परा है। किसी कारणवश ब्राह्मण-भोजन न करा सकें तो मन में संकल्प करके केवल सूखे अन्न, घी, चीनी, नमक आदि वस्तुओं को श्राद्ध-भोजन के निमित्त किसी ब्राह्मण को दे दें। यदि इतना भी न कर सकें तो कम-से-कम दो ग्रास निकालकर गाय को श्राद्ध के निमित्त खिला देना चाहिए।

▪️श्राद्ध में हविष्यान्न के दान से एक मास तक और खीर के दान से एक वर्ष तक पितरों की तृप्ति बनी रहती है।

▪️यदि कुछ भी न बन सके तो केवल घास ले आकर पितरों की तृप्ति के निमित्त से गौओं को अर्पित करे या जल और तिल से पितरों का तर्पण करे।

▪️यदि पत्नी रजस्वला है तो ब्राह्मण को केवल दक्षिणा देकर श्राद्ध-कर्म करे।

▪️तुलसी से पिण्डार्चन करने पर पितरगण प्रलयपर्यन्त तृप्त रहते हैं।

▪️भोजन करते समय ब्राह्मणों से ‘भोजन कैसा बना है?’ यह नहीं पूछना चाहिए; इससे पितर अप्रसन्न होकर चले जाते हैं।

▪️श्राद्ध में भोजन करने व कराने वाले को मौन रहना चाहिए। यदि कोई ब्राह्मण उस समय हंसता या बात करता है तो वह हविष्य राक्षस का भाग हो जाता है।

▪️श्राद्ध-कर्म में ताम्रपात्र का बहुत महत्व है। परन्तु लोहे के पात्र का उपयोग नहीं करना चाहिए। केवल रसोई में फल, सब्जी काटने के लिए उनका प्रयोग कर सकते हैं।

▪️श्राद्ध में भोजन कराने के लिए चांदी, तांबे और कांसे के बर्तन उत्तम माने जाते है। इन बर्तनों के अभाव में पत्तलों में भोजन कराना चाहिए किन्तु केले के पत्ते पर श्राद्धभोजन नहीं कराना चाहिए।

▪️श्राद्ध की रात्रि में यजमान और ब्राह्मण दोनों को ब्रह्मचारी रहना चाहिए।

पितरों से क्या मांगना चाहिए?

महर्षि वेदव्यास ने ‘पितरों से क्या-क्या मांगना चाहिए’ का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है। श्राद्ध के अंत में पितररूप ब्राह्मणों से यह आशीर्वाद मांगना चाहिए–

दातारो नोऽभिवर्धन्तां वेदा: सन्ततिरव च।
श्रद्धा च नो मा व्यगमद् बहुदेयं च नोऽस्त्विति।। (अग्निपुराण)

अर्थात्–’पितरगण आप ऐसा आशीर्वाद प्रदान करें कि हमारे कुल में दान देने वाले दाताओं की वृद्धि हो, नित्य वेद और पुराण का स्वाध्याय करने वालों की वृद्धि हो, हमारी संतान-परम्परा लगातार बढ़ती रहे, सत्कर्म करने में हमारी श्रद्धा कम न हो और हमारे पास दान देने के लिए बहुत-सा धन-वैभव हो।’

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