नम: शिवाभ्यां नवयौवनाभ्यां परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्।
नगेन्द्रकन्यावृषकेतनाभ्यां नमो नम: शंकरपार्वतीभ्याम्।। (उमामहेश्वरस्तोत्रम्)
अर्थात्–नवीन युवा अवस्थावाले, परस्पर आलिंगन से युक्त शरीरधारी, ऐसे शिव और शिवा को नमस्कार है, पर्वतराज हिमालय की कन्या और वृषभचिह्नित ध्वजवाले शंकर इन दोनों–शंकर और पार्वती को मेरा बारम्बार नमस्कार है।
अनादिकाल से गिरिराजकिशोरी जगदम्बा पार्वती एवं भगवान शिव हिन्दू कन्याओं के परमाराध्य रहे हैं। जब से ये कन्याएं होश संभालती हैं, तभी से मनोऽभिलाषित वर की प्राप्ति के लिए गौरीपूजन किया करती हैं। जगज्जनी माता जानकी व कृष्णप्रिया रुक्मिणीजी भी अपने स्वयंवर से पूर्व गिरिजापूजन के लिए जाती हैं।
गोपकन्याएं भी श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए हेमन्त ऋतु में एक मास तक ब्राह्ममुहुर्त में यमुना में स्नान कर मां कात्यायनी की पूजा करती हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने अपनी लेखनी द्वारा देवाधिदेव भगवान महादेव के द्वारा मां जगदम्बा पार्वती के मंगलमय पाणिग्रहण का बड़ा ही रसमय व काव्यमय चित्रण किया है। जगदम्बा पार्वती ने निरन्तर समाधि में लीन रहने वाले, परम योगी, वीतराग शिरोमणि भगवान शंकर को पतिरूप में प्राप्त करने के लिए कैसी कठोर तपस्या की, कैसे-कैसे क्लेश सहन किए, किस प्रकार उनके आराध्य ने उनके प्रेम की परीक्षा ली, और किस प्रकार उनकी अदम्य निष्ठा की जीत हुई–इन सबका गोस्वामी तुलसीदासजी ने बड़ा ही मनोरम और हृदयग्राही चित्रांकन अपनी लेखनी से किया है। शिवजी की बारात का वर्णन करने में उन्होंने हास्यरस का मधुर पुट दिया है तो माता पार्वती के विवाह और विदाई का बड़ा ही रोचक एवं हृदयस्पर्शी वर्णन किया है।
जगदम्बा पार्वती द्वारा शिवजी को पति रूप में प्राप्त करने के लिए तपस्या करना
पर्वतराज हिमालय और उनकी पत्नी महारानी मेना के यहां जब से मंगलों की खान पार्वतीजी प्रकट हुईं, तभी से उनके घर नित्य नवीन ऋद्धि-सिद्धियां और सम्पत्तियां निवास करने लगीं।
मंगल खानि भवानि प्रगट जब ते भइ।
तब ते रिधि-सिधि संपति गिरि गृह नित नइ।।
पार्वतीजी उसी प्रकार वयस्क (सयानी) हो रही थी जैसे शुक्ल पक्ष में चन्द्रमा की कला वृद्धि को प्राप्त होती है। एक बार नारदजी पर्वतराज हिमवान के घर आए तो माता मेना ने उन्हें पार्वती के अनुरूप कोई वर बतलाने के लिए कहा। नारदजी ने कहा–
दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चिंता नई।
बरु प्रथम बिरवा बिरचि बिरच्यो मंगला मंगलमई।।
अर्थात्–’तुम्हारे समान बड़भागी कोई नहीं है। ईश्वर तुम्हारे अनुकूल सिद्ध हुए हैं, अत: तुम्हारे लिए सब कुछ सुलभ है। ब्रह्माजी ने वर (दुलहा) रूप पौधे को पहले रचा है और तब मंगलमयी मंगला (पार्वती) को। एक बार ब्रह्मलोक में तुम्हारी चर्चा चल रही थी, उस समय चतुरानन ब्रह्माजी ने कहा था कि हिमवान की कन्या पार्वती के योग्य वर है तो बावला, परन्तु निश्चय ही वह देवताओं से भी वन्दित है।’ ऐसा सुनकर हिमवान-दम्पत्ति ने नारदजी से कहा कि वह उपाय बतलाइए जिससे पार्वती के इस भाग्य-दोष का नाश हो जाए। नारदजी ने कहा–’सारे दोषों का नाश करने वाले शशिभूषण महादेवजी ही हैं–कोटि कलप तरु सरिस संभु अवराधन। शिवजी की आराधना करोड़ों कल्पवृक्षों के समान सिद्धिदायक है।’ पार्वती से कहो कि दृढ़ता से, मनसा-वाचा-कर्मणा शिवजी की आराधना करे।
माता-पिता के आदेश से अत्यन्त आदर, प्रेम और भक्ति से अपने मन को तर कर पार्वतीजी ने तपस्या आरम्भ कर दी। उन्होंने भोगों को रोग के समान और लोगों को सर्पों के झुंड के समान त्याग दिया और ऐसे तप में मन लगा दिया जो मुनियों के लिए भी अगम्य था।
नीद न भूख पियास सरिस निसि बासरु।
नयन नीरु मुख नाम पुलक तनु हियँ हरु।।
कंद मूल फल असन, कबहुँ जल पवनहि।
सूखे बेल के पात खात दिन गवनहि।।
उनके लिए रात-दिन बराबर हो गए हैं; न नींद है न भूख अौर न प्यास ही है। नेत्रों में आंसू भरे रहते हैं, मुख से शिव-नाम उच्चारण होता रहता है, शरीर पुलकित रहता है और हृदय में शिवजी बसे रहते हैं। कभी कन्द-मूल फल का भोजन होता है, कभी जल और वायु पर ही निर्वाह होता है और कभी बेल के सूखे पत्ते खाकर ही दिन बिता देती हैं। जब उन्होंने सूखे पत्तों का भी त्याग कर दिया तो उनका नाम ‘अपर्णा’ पड़ा। माता मेना ने स्नेहवश होकर उ (वत्से) मा (ऐसा तप न करो) कहा, इससे उनका नाम ‘उमा’ हो गया। प्रेमवश व्याकुल होकर पार्वतीजी अपनी सुध-बुध खो बैठी मानो वन में बढ़ती हुई कल्पलता को विषम पाले ने मार दिया हो। देवताओं ने अनुकूल अवसर देखकर कामदेव को बुलाया। कामदेव जगत को जीत लेने के अभिमान में अपना साजो-सामान सजा कर आया। कामदेव ने रसाल वृक्ष के सौरभ पल्लवों में छिपकर शिवजी के वक्ष:स्थल में बाण का संधान कर दिया। हृदय में विषम बाण चुभने से शिवजी समाधि से जाग गए। उन्होंने समाधि तोड़ने वाले की ओर क्रोधभरी दृष्टि से देखा, और देखते ही कामदेव जलकर भस्म हो गया। शंकरजी की समाधि टूटने की बात सुनकर ब्रह्माजी सहित सभी देवता उनके पास गए और शीघ्र ही विवाह करने के लिए प्रार्थना करने लगे। इधर सप्तर्षियों ने पार्वतीजी के पास जाकर कहा कि तुम्हारी तपस्या व्यर्थ चली गई क्योंकि शिवजी ने तो काम को ही जला डाला। अब निष्काम पति से विवाह करके क्या करोगी? पार्वतीजी ने अत्यन्त सटीक उत्तर देते हुए कहा–
जौं मैं शिव सेये अस जानी। प्रीति समेत कर्म मन बानी।।
तौ हमार पर सुनहु मुनीसा। करिहहिं सत्य कृपानिधि ईसा।।
पार्वतीजी के उत्तर से संतुष्ट होकर सप्तर्षि लौट आए और ब्रह्माजी के आदेशानुसार शिवजी के विवाह की तैयारी में लग गए।
वृद्ध ब्रह्मचारी के वेष में शिवजी द्वारा पार्वतीजी के प्रेम की परीक्षा
शिवजी वृद्ध ब्रह्मचारी का वेष बनाकर पार्वतीजी के प्रेम, कठोर नियम, प्रतिज्ञा और दृढ़ संकल्प की परीक्षा करने के लिए तपोभूमि में आए। उस समय पार्वतीजी की दशा देखकर शिवजी दु:खी हो गए और मन-ही-मन कहने लगे मेरा स्वभाव बड़ा ही कठोर है। यही कारण है कि मेरी प्रसन्नता के लिए साधकों को इतना तप करना पड़ता है। पार्वतीजी द्वारा फल-पुष्पादि से पूजित होकर शिवजी ने कहा–’तुम्हारा शिव के साथ विवाह करने का संकल्प सर्वथा अनुचित है। तुम ऐसे कुलहीन वर पर रीझ गयीं। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं–
भांग धतूर अहार छार लपटावहिं।
जोगी जटिल सरोष भोग नहिं भावहिं।।
सुमुखि सुलोचनि हर मुख पंच तिलोचन।
बामदेव फुर नाम काम मद मोचन।।
एकउ हरहिं न बर गुन कोटिक दूषन।
नर कपाल गज खाल ब्याल बिष भूषन।।
कहँ राउर गुन सील सरूप सुहावन।
कहाँ अमंगल बेषु बिसेषु भयावन।। (पार्वती मंगल)
अर्थात्–’भांग-धतूरा ही इनका भोजन है; ये शरीर में राख लपटाए रहते हैं। ये योगी, जटाधारी और क्रोधी हैं; इन्हें भोग अच्छे नहीं लगते। तुम सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रों वाली हो, किन्तु शिवजी के तो पांच मुख और तीन आंखें हैं। उनका वामदेव नाम सही है। वे कामदेव के मद को चूर करने वाले कामविजयी हैं। उनमें एक भी श्रेष्ठ गुण नहीं है, वरं करोड़ों दूषण हैं। वे नरमुण्ड व हाथी की खाल को धारण करने वाले तथा सांप और विष से विभूषित हैं। कहां तो तुम्हारा गुण, शील और सुन्दर रूप और कहां शंकर का अमंगल वेष, जो अत्यन्त भयानक है।’
‘जो शंकर शशिकला की चिन्ता में रहते हैं, वे क्या तुम्हारा ध्यान रखेंगे? जिस समय वे भूत-पिशाच और प्रेतों की बरात सजाकर आयेंगे तब तुम्हें पछताना पड़ेगा। ग्रन्थिबंधन के समय अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्र को गजचर्म के साथ जोड़ते हुए सखियां मुंह फेरकर हंसेंगी और कहेंगी कि अमृत के साथ विष घोलकर मिलाया जा रहा है। जरा सोचो तो सही, कहां तुम्हारा फूलों-सा सुकुमार शरीर व त्रिभुवन को लुभाने वाला सौंदर्य और कहां जटाधारी, चिताभस्मलेपनकारी, श्मशानविहारी, त्रिनेत्र, भूतपति, महादेव। कहां तुम्हारे घर के देवता लोग और कहां शिव के पार्षद भूत-प्रेत! कहां तुम्हारे पिता के घर बजने वाले सुन्दर बाजों की ध्वनि और कहां उन महादेव के डमरु, सिंगी और गाल बजाने की ध्वनि। न महादेव के मां-बाप का पता है, न जाति का। न उनमें विद्या है और न शौचाचार ही। सदा अकेले रहने वाले, उत्कट विरागी, रुण्डमालाधारी शिव के साथ रहकर तुम क्या सुख पाओगी?’
गिरिराजकुमारी पार्वती और अधिक शिव-निन्दा न सह सकीं और तमककर बोलीं–’मालूम होता है तुम शिव के विषय में कुछ भी नहीं जानते, इसी से मिथ्या-प्रलाप कर रहे हो। शिव वस्तुत: निर्गुण हैं, करुणावश ही वे सगुण होते हैं। उन सगुण और निर्गुण–उभयात्मक शिव की जाति कहां से होगी! जो सबके आदि हैं, उनके माता-पिता कौन होंगे? सृष्टि उनसे उत्पन्न होती है, अत: उनकी शक्ति का पता कौन लगा सकता है? वही अनादि, अनन्त, नित्य, निर्विकार, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, सर्वगुणाधार, सर्वज्ञ, सर्वोपरि सनातनदेव हैं। तुम कहते हो कि शिव विद्याहीन हैं। अरे, ये सारी विद्याएं आईं कहां से हैं? तुम मुझे शिव को छोड़कर किसी अन्य देवता का वरण करने को कहते हो। अरे, इन देवताओं को जिन्हें तुम बड़ा समझते हो, देवत्व प्राप्त ही कहां से हुआ है? यह उन भोलेनाथ की कृपा का ही तो फल है। इन्द्रादि देवगण तो उनके दरवाजे पर ही स्तुति-प्रार्थना करते रहते हैं और बिना उनके गणों की आज्ञा के अंदर घुसने का साहस नहीं कर सकते। तुम उन्हें अमंगलवेश कहते हो? जिस चिता-भस्म की तुम निंदा करते हो, नृत्य के अंत में जब वह उनके श्रीअंगों से झड़ती है, उस समय देवतागण उसे अपने मस्तक पर धारण करने के लिए लालायित होते हैं। तुम उनके दुर्गम-तत्त्व को बिल्कुल नहीं जानते। बस, अब मैं यहां से जाती हूँ, कहीं ऐसा न हो कि यह दुष्ट फिर से शिव की निन्दा आरम्भ कर मेरे कानों को अपवित्र करे। पार्वतीजी के इन वचनों को सुनकर उनका सत्य, दृढ़ और पवित्र प्रेम जानकर बटुक-वेशधारी शिव ज्यादा देर पार्वतीजी से छिपे न रह सके। पार्वतीजी जिस रूप का ध्यान करती थीं, उसी रूप में करुणासिन्धु शिव उनके सामने प्रकट हो गए। पार्वतीजी की इच्छा पूर्ण हुई। शिवजी की मनोहर मूर्ति को निहारकर पार्वतीजी के नेत्रों में जल भर आया। जिस प्रकार जन्म का दरिद्री पारसमणि को पा जाए और उसको साक्षात् देखते हुए भी उसमें विश्वास न हो, उसी प्रकार, पार्वतीजी महादेवजी को नेत्रों के सामने देखती हैं, तो भी उन्हें विश्वास नहीं होता। पार्वतीजी के रूप और अनुराग को देखकर शिवजी उनके वश में हो गए और प्रेमामृत में सानकर मधुर वचन बोले–’हमको आज तक किसी ने कृतज्ञ नहीं बनाया; परन्तु हे पार्वती! तुमने तो अपने तप और प्रेम से मुझे मोल ले लिया। ‘तीय रतन तुम उपजिहु भव रतनाकर’–तुम संसारसमुद्र में स्त्रियों के बीच रत्न-सदृश्य उत्पन्न हुई हो। अब तुम जो कहो, मैं इसी क्षण वही करुंगा।’ पार्वतीजी ने शिवजी के पैरों में गिरकर अपने को पिता के अधीन होना बताया और शिवजी को हृदय में धारणकर घर चली गईं।
तब शिवजी ने सप्तर्षियों (कश्यप, अत्रि, जमदग्नि, विश्वामित्र, वशिष्ठ, भरद्वाज और गौतम) को स्मरण किया। सप्तर्षियों के आने पर शिवजी ने कहा–’तुम लोग हिमाचल के घर जाओ और इसकी चर्चा चलाकर यदि जंच जाए तो लग्न धरा आना।’ उसी समय आकाशवाणी हुई कि वशिष्ठजी की पत्नी अरुन्धती महारानी मेना से मिलकर बात चलाएंगी क्योंकि स्त्रियां इस काम में बहुत कुशल होती हैं। सप्तर्षि हिमवान के घर गए और कहा–’आज से एक सप्ताह के बाद अत्यन्त शुभ और दुर्लभ मुहुर्त आने वाला है। मार्गशार्ष मास में सम्पूर्ण दोषों से रहित सोमवार को तुम अपनी कन्या मूलप्रकृति ईश्वरी जगदम्बा पार्वती को जगत्पिता भगवान शिव के हाथ में देकर कृतार्थ हो जाओ।’ इस प्रकार शिवजी के कहने पर सप्तर्षि हिमवान के घर जाकर शुभ दिन का शोधन कराकर लग्न लिखवा आए।
भगवान शिव और जगदम्बा पार्वती के विवाह की तैयारी का वर्णन
पर्वतराज हिमालय ने अपने पुरोहित गर्गजी से लग्न-पत्रिका लिखवाई और कैलास पर जाकर शिव को तिलक कर लग्नपत्रिका उनके हाथ में दी। पर्वतराज ने विभिन्न देशों में रहने वाले अपने बन्धुओं, वन, नदी, समुद्र और सरोवर आदि को निमन्त्रण भेजा। शिवा और शिव का विवाह है, यह जानकर सभी निमन्त्रित बंधु-बांधव दिव्य रूप धारणकर उपहार के लिए चँवर, वस्त्र, हार और मणियां आदि बहुमूल्य भेंट लेकर हिमाचल के घर आए। पर्वतराज हिमाचल ने विभिन्न प्रकार के खाद्य-पदार्थों को इतनी अधिक मात्रा में एकत्रित किया कि सूखे पदार्थों के पहाड़ खड़े हो गए और द्रव पदार्थों की बावड़ियां बन गयीं। शैलराज हिमाचल ने ब्राह्मणों का सम्मानकर कुलगुरु व देवताओं की पूजा की। नगाड़ों पर चोट की जाने लगीं, सुहागिन स्त्रियां मंगलगीत गाने लगीं।
पर्वतराज हिमवान ने अपने नगर को सुन्दर-सुन्दर मांगलिक द्रव्यों से सजवाना शुरु किया। प्रत्येक घर के द्वार को केले के खंभों से सजाया गया। बंदनवारों, तोरणों और मालती के पुष्पों की मालाओं से सारे नगर को सजाया गया। मंगल कलश, चंवर, ध्वज-पताकाओं और रेशमी वस्त्रों से पार्वतीजी का नैहर ऐसा सज गया मानो वसन्तऋतु और कामदेव की राजधानी हो। उसकी विचित्र साज-सज्जा को देखकर नेत्र जहां जाते, वहीं ठिठककर रह जाते। पर्वतराज हिमवान ने विश्वकर्मा को बुलाकर एक मंडप बनवाया जो विभिन्न प्रकार के आश्चर्यों से परिपूर्ण था। चतुर-से-चतुर मनुष्य भी यह नहीं जान पाते थे कि इसमें कहां जल है और कहां स्थल। उस मंडप में विश्वकर्मा ने सम्पूर्ण देवसमाज (महालक्ष्मी, ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, इन्द्र, नन्दी आदि) के कृत्रिम विग्रहों का निर्माण कराया और उन देवताओं के लिए उनके कृत्रिम लोकों का भी निर्माण किया। कहीं कृत्रिम सिंह बने थे तो कहीं सारसों की पंक्तियां। कहीं बनावटी मोर अपनी सुन्दरता से मन को मोहे लेते थे। कहीं कृत्रिम स्त्रियां पुरुषों के साथ नृत्य कर रही थीं। विश्वकर्मा को शिवजी का वरदान प्राप्त था अत: उन्होंने शिवजी की प्रसन्नता के लिए क्षण भर में इन सबकी रचना कर डाली।
इधर कैलास पर शिवजी ने ब्रह्माजी को बुलाकर लग्नपत्रिका पढ़वाई। ब्रह्माजी ने जहां-तहां शिवजी के गणों को दूत बनाकर भेजा और सब देवताओं को बुलाकर विवाह के लिए चलने को कहा। यह समाचार सुनकर देवता लोग अत्यन्त प्रसन्न हुए।
रचहिं बिमान बनाइ सगुन पावहिं भले।
निज निज साजु समाजु साजि सुरगन चले।।
मुदित सकल सिव दूत भूत गन गाजहिं।
सूकर महिष स्वान खर बाहन साजहिं।।
सभी देवतागण अपने साज-समाज व विमानों को सजाकर चल दिए। अच्छे-अच्छे शकुन होने लगे। शिवजी के समस्त दूत व भूतगण आनन्दित होकर गरज रहे हैं और सुअर, भैंसे, कुत्ते, गदहे (वाहनों) को सजाते हैं। इसी समय लक्ष्मीपति भगवान विष्णु व देवराज इन्द्र समस्त देवताओं के साथ वहां आए जहां ब्रह्माजी और शिवजी हैं। शिवजी ने सबका सम्मानकर अगवानी की और फिर धड़ाधड़ नगारे बजने लगे व बारात चल पड़ी। डमरुओं के डिम-डिम घोष से, भेरियों की गड़गड़ाहट से, शंखों के गम्भीर नाद से और दुन्दुभियों की ध्वनि से तीनों लोक गूंज उठे। बारात के साथ सम्पूर्ण देवसमाज, सिद्ध, लोकपाल और ऋषि अपने तेज के साथ प्रकाशित हो रहे थे।
महादेवजी के साथ भूत, प्रेत, पिशाच, शाकिनी, यातुधान, बेताल, ब्रह्मराक्षस, प्रमथ आदि गण; तुम्बुरु, नारद, हाहा और हूहू आदि गंधर्व व किन्नर–बरातियों के रूप में शोभायमान हो रहे थे। चण्डीदेवी रूद्रदेव की बहिन बनकर खूब उत्सव मनाती हुई बड़ी प्रसन्नता के साथ सर्पों के आभूषण पहिनकर, प्रेत पर आरुढ़ होकर बारात में चल रही थीं। सम्पूर्ण जगन्माताएं, सारी देवकन्याएं, गायत्री, सावित्री, लक्ष्मी और अन्य देवांगनाएं भी शंकरजी के विवाह में शामिल होने को आईं हैं। वृषभ पर आरूढ़, नाना प्रकार के आभूषणों से विभूषित शिवजी अपने दिव्य अंगों के लावण्य से सम्पूर्ण दिशाओं को प्रकाशित कर रहे थे। उनका श्रीअंग नूतन और अत्यन्त सुन्दर रेशमी वस्त्रों से सुशोभित था। उनके बांये भाग में भगवान विष्णु और दाहिनी ओर ब्रह्माजी चल रहे थे।
सभी देवता भगवान शिव की स्तुति करते हुए उनके पीछे चल रहे थे। वास्तव में भगवान शिव साक्षात् परब्रह्म परमात्मा, सबके ईश्वर, प्राकृत गुणों से रहित और सच्चिदानन्दस्वरूप है, अत: उन्होंने पूरा-पूरा ऐश्वर्य प्राप्त कर लिया। भगवान शंकर का वास्तविक स्वरूप अत्यन्त सौम्य एवं शान्तिदायक है–‘कर्पूरगौरं करुणावतारम्।’
इस तरह क्रीडा-कौतुक करते हुए बारात नगर के निकट पहुंच गयी। सम्पूर्ण हिमाचल पर्वत हृदय में उसी प्रकार आनन्दित हो गया, मानो पूर्णिमा के समय चन्द्रमा को देखकर समुद्र उमड़ आया हो। महारानी मेना ने पर्वतराज हिमवान से कहा–’गिरिजा के होने वाले पति को पहले मैं देखूंगी। शिव का कैसा रूप है, जिसके लिए मेरी बेटी ने ऐसी उत्कृष्ट तपस्या की है।’ भगवान शिव भी महारानी मेना के भीतर के अहंकार को जान गए और उन्होंने अद्भुत लीला की। पार्वतीजी के साथ विवाह के अवसर पर बारात में भगवान शिव के भयानक एवं सौम्य दोनों ही रूपों के दर्शन हुए हैं।
बारात में सबसे पहले खूब सजे-धजे विभिन्न वाहनों पर विराजित वसु और गंधर्व आए; फिर यक्ष, यमराज, वरुण, वायु, कुबेर इन्द्र, चन्द्रमा, सूर्य, भृगु आदि मुनि तथा ब्रह्मा आए। ये सब एक-से-बढ़कर एक शोभायमान हो रहे थे। महारानी मेना अपने महल की छत पर खड़ी नारदजी से बारात के प्रत्येक दल के स्वामी को देखकर पूछतीं क्या यही शिव हैं? नारदजी कहते–’यह तो शिव के सेवक हैं।’ महारानी मेना अत्यन्त प्रसन्न होतीं कि उनके सेवक ही जब इतने सुन्दर हैं, तो इनके स्वामी पता नहीं कितने सुन्दर होंगे? फिर लक्ष्मीपति भगवान विष्णु अप्रमेय प्रभापुंज से प्रकाशित होकर महारानी मेना को दिखाई पड़े। वह हर्ष से बोलीं–अवश्य ही ये मेरी शिवा के पति भगवान शिव होंगे। नारदजी ने कहा–’नहीं, ये तो उनके सम्पूर्ण कार्यों के अधिकारी हैं।’
तभी अद्भुत लीला करने वाले भगवान शिव महारानी मेना के सामने आए। वे वृषभ पर सवार थे। उनके पांच मुख थे और प्रत्येक मुख में तीन-तीन नेत्र। सारे अंगों में विभूति लगाये, मस्तक पर जटाजूट, चन्द्रमा का मुकुट, दस हाथ और उनमें कपाल, पिनाक, त्रिशूल और ब्रह्मरूपी डमरु आदि लिए, बाघंबर का दुपट्टा, भयानक आंखें, आकृति विकराल और हाथी की खाल का वस्त्र। भगवान शिव स्वयं जितने अद्भुत थे उनके अनुचर भी उतने ही निराले थे। शंकरजी के विकट वेष को देखकर देवांगनाएं मुसकराने लगीं।
भगवान शिव के अद्भुत अनुचर (गण)
भगवान शिव के कुछ गण बवंडर का रूप धारण करके आए थे। किन्हीं के मुंह टेढ़े, कुछ अत्यन्त कुरुप और विकराल थे। किन्हीं का मुंह दाढ़ी-मूंछों से भरा हुआ, कोई लंगड़े तो कोई अंधे। कोई दण्ड-पाश लिए तो कोई मुद्गर। कोई सींग, कोई डमरु और कोई गोमुख बजाते थे। कितने ही अपने वाहनों को उल्टे चला रहे थे। कुछ गणों के मुख ही नहीं थे, कितनों के मुख पीठ की ओर लगे थे और कितनों के बहुतेरे मुख थे। कोई बिना हाथ के तो कितनों के हाथ उल्टे थे, कोई नेत्रहीन तो कितनों के बहुत-से नेत्र थे, किन्हीं के कान ही नहीं थे तो कितनों के बहुत-से कान थे। स्वयं भगवान शंकर को भी अपने गणों के रूप, आकार और वाहनों को देखकर हंसी आ गयी–
नाना बाहन नाना बेषा।
बिहसे सिव समाज निज देखा।।
कोउ मुख हीन बिपुल मुख काहू।
बिनु पद कर कोउ बहु पद बाहू।।
बिपुल नयन कोउ नयन बिहीना।
रिष्ट पुष्ट कोउ अति तनु खीना।। (मानस १।९३।५-७)
स्वागत करने वाले प्रसन्न होकर आगे आए, परन्तु बरात को देखकर घबरा गए। उस समय उनसे न तो रहते ही बनता था और न भागते ही। हाथी, घोड़े भाग चले, वे लौटाने से भी नहीं लौटते थे। छोटे-छोटे बालक घबराहट के कारण अपने घर का रास्ता ही भूल गए और घर-घर जाकर कहने लगे–’प्रेत, बेताल और भयंकर भूत बराती हैं तथा बावला वर बैल पर सवार है। हम सत्य कहते हैं, जो जीते बच गए तो करोड़ों ब्याह देखेंगे।’
उस समय जहां-तहां बाजार, चौक एवं गलियों में बरात की ही चर्चा चल रही थी। उसे सुन-सुनकर भगवान विष्णु, देवराज इन्द्र तथा अन्य देवतालोग कमल के समान हाथों को जोड़कर (मुख को हाथों से ढककर) बार-बार मुंह फेरकर हंसते थे–’हँसहि कमल कर जोरि मोरि मुख पुनि पुनि।’
महारानी मेना का विलाप
महारानी मेना के मन में बड़ा सोच हुआ और वे कहने लगीं–’नारदजी को कहते तो परम उपकारी हैं परन्तु ये हैं घर को नष्ट करने वाले।’ महारानी मेना अपनी पुत्री शिवा को कटु वचन सुनाने लगीं–’अरी दुष्टे! तूने यह कौन-सा कर्म किया जो मेरे लिए दु:खदायक सिद्ध हुआ। तूने घर में रखी हुई यश की मंगलमयी विभूति को दूर हटाकर चिता की अमंगलमयी राख अपने पल्ले बांध ली; चंदन छोड़कर अपने अंगों में कीचड़ का ढेर पोत लिया; क्योंकि समस्त श्रेष्ठ देवताओं और विष्णु आदि परमेश्वरों को छोड़कर अपनी कुबुद्धि के कारण शिव को पाने के लिए ऐसा तप किया?’
अत्यन्त शोक व रोष से व्याकुल होने के कारण वे मूर्च्छित हो गयीं। तब नारदजी ने उन्हें समझाते हुए कहा– वास्तव में भगवान शिव का रूप बड़ा सुन्दर है; उन्होंने लीला से ऐसा रूप धारण कर लिया है। महारानी मेना जब अपनी पुत्री का विवाह शिवजी से न करने की हठ पर अड़ी रहीं तब स्वयं पार्वतीजी ने उन्हें समझाते हुए कहा–‘मां! तुम धर्म का अवलम्बन करने वाली होकर अब धर्म को क्यों छोड़ रही हो? भगवान शिव सबकी उत्पत्ति के कारणभूत साक्षात् ईश्वर हैं। इनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। इनके लिए ही सब देवता किंकर होकर तुम्हारे द्वार पर पधारे हैं और उत्सव मना रहे हैं। यदि तुम मुझे इनके हाथ में नहीं दोगी तो मैं दूसरे किसी वर का वरण नहीं करुंगी; क्योंकि जो सिंह का भाग है, उसे दूसरों को ठगने वाला सियार कैसे पा सकता है?’ तब पर्वतराज हिमवान बोले–’शिवजी की महिमा अगम्य है, उसे वेद भी नहीं जानता।’
मृत्युंजयो मृत्युमृत्यु: कालकालो यमान्तक:।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदांगपारग:।।
अर्थात्–परम शिव मृत्युंजय होने के कारण मृत्यु की भी मृत्यु, काल के भी काल तथा यम के भी यम हैं। वेद, वेदकर्ता तथा वेद-वेदांगों के पारंगत विद्वान भी आप (शिव) ही हैं।
भगवान विष्णु ने भी महारानी मेना को समझाते हुए कहा–’तुम शिव को नहीं जानतीं, वे निर्गुण भी हैं और सगुण भी हैं। कुरुप भी हैं और सुरुप भी। लोकों का हित करने के लिए वे रुद्र रूप से प्रकट हुए हैं। मैंने और ब्रह्माजी ने भी जिनका अन्त नहीं पाया, उसका पार दूसरा कौन पा सकता है?’
महारानी मेना ने भगवान विष्णु से कहा–’यदि भगवान शिव सुन्दर शरीर धारण कर लें, तब मैं उन्हें अपनी पुत्री दे सकती हूँ; अन्यथा कोटि उपाय करने पर भी नहीं दूंगी।’ देवताओं के मनाने पर शंकरजी ने कामदेव से भी अधिक दिव्य व ललित लावण्य से लसित, द्युतिमान्, चन्द्रलेखा से अलंकृत, आभूषणों से विभूषित रूप धारण कर लिया। लौकिक गति को देखकर वे सौ करोड़ कामदेवों से भी अधिक सुन्दर और मनोहर हो गए। उनका गजचर्म नीलाम्बर हो गया और जितने सर्प थे, वे मणिमय आभूषण हो गए। विष्णु आदि समस्त देवता बड़े प्रेम से उनकी सेवा कर रहे थे। सूर्यदेव ने छत्र लगा रखा था। चन्द्रदेव मस्तक पर मुकुट बनकर उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। गंगा और यमुना भगवान शिव को चंवर डुला रही थीं। आठों सिद्धियां उनके आगे नाच रही थीं। अप्सराओं के साथ गंधर्व शिवजी का यशोगान करते हुए चल रहे थे। उनको देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो शिवजी शारदीय पूर्णिमा के चन्द्रमा हैं, देवतालोग नक्षत्रों के समान हैं तथा उन्हें देखने के लिए उनके चारों ओर नगरवासी चकोरों के समुदाय की भांति सुन्दर लग रहे थे।
शिवजी के गणों का वेष भी मंगलमय हो गया और वे अपने सौंदर्य से कामदेव के मन को भी मोहने लगे। ऐसे सुन्दर रूप वाले उत्कृष्ट देवता भगवान शिव को जामाता के रूप में देखकर महारानी मेना चित्रलिखी-सी रह गयीं, उनकी सारी चिन्ता व शोक दूर हो गए और उन्होंने अपने पहले अक्षम्य व्यवहार के लिए शिवजी से क्षमा मांगी। इसी बीच नारदजी ने पार्वती के पूर्वजन्म की कथा सुनाकर और शिव के साथ उनका सनातन सम्बन्ध बताकर सभी का भ्रम दूर कर दिया।
गिरिराजकुमारी पार्वती का अम्बिकापूजन
जब गिरिराजकुमारी पार्वती अम्बिकापूजन को महल से बाहर आईं तो उनकी सुन्दरता को सभी देवता देखते ही रह गए। उनके शरीर की अंगकान्ति नील अंजन के समान, दांत मणियों के समान, मधु से पूरित अधर और ओष्ठ बिम्वफल के समान लाल थे। दोनों पैरों में महावर, कपोलों पर मनोहर पत्रभंगी, ललाट में कस्तूरी व सिंदूर की बिन्दी और अंगों में चन्दन-अगर-कस्तूरी और कुंकुम का अंगराग लगा था। भुजाओं में रत्नजटित केयूर, वलय और कंकण; वक्ष:स्थल पर रत्नों के सारभूत हार, पैरों में पायजेब अलंकृत थे। वह एक हाथ में रत्नमय दर्पण व दूसरे हाथ में क्रीडाकमल लेकर घुमा रही थीं। मुख पर मन्द मुस्कान और कटाक्षपूर्ण दृष्टि से जब वे देखतीं तो बहुत मनोहारिणी लग रहीं थीं। अम्बिकापूजन के बाद पार्वतीजी की सखियों ने उन्हें भगवान शिव द्वारा दिए गए दिव्य वस्त्राभूषणों से सुसज्जित किया।
लग्न का समय होने पर गिरिवर हिमवान बरातियों को अर्घ्य-पांवड़े देते हुए अपने साथ ले गए। भगवान शिव वृषभ पर बैठ कर चल रहे थे। उनके मस्तक पर बहुत बड़ा छत्र तना था और सब ओर से चंवर डुलाये जा रहे थे। उस महान उत्सव के समय शंख, भेरी, पटह, आनक और गोमुख आदि बाजे बज रहे थे।
भगवान शिव-पार्वती के विवाहोत्सव की रस्में
पहले ही द्वार पर दोनों समधी–ब्रह्माजी और पर्वतराज हिमवान का सम्मिलन हुआ। पर्वतराज हिमवान ने वर (दूलहे) को पाद्य-अर्घ्य आदि अर्पित कर दिव्य गन्धवाली मालाओं से अलंकृत किया और मणिजटित आसन पर बैठाकर मधुपर्क खिलाने की रीति पूरी की। तदन्तर पुरोहित के साथ वस्त्र, चंदन और आभूषणों द्वारा शिवजी का वर के रूप में वरण किया। वर (शिवजी) को चन्द्रमा के समान गौर और कान्तिपूर्ण अंगमय देखकर सास मैना मग्न होकर उनकी आरती उतारने लगीं।
तब महेश्वर ने ब्राह्मणों द्वारा अग्नि-स्थापना करवायी और पार्वतीजी को अपने वामभाग में बिठाकर वेदमन्त्रों से अग्नि में आहुतियां दीं। उस समय पार्वतीजी ऐसी लग रही थीं, मानो सौंदर्य मूर्ति प्रकट होकर जगत को मोह रही हो। पार्वतीजी को देखकर देवता लोग सिर नवाते हैं और अपना जन्म कृतार्थ हुआ जानकर सुखी होते हैं। ब्राह्मणलोग आशीर्वाद दे-देकर वेद की ध्वनि कर रहे हैं। फिर पर्वतराज हिमालय ने सब प्रकार की लौकिक-वैदिक विधियों को सम्पन्न करके हाथ में जल और कुश लेकर कन्यादान का संकल्प किया। पर्वतराज हिमालय ने हंसकर शिवजी से कहा–’शम्भो! आप अपने गोत्र का परिचय दें। प्रवर, कुल, नाम, वेद और शाखा का प्रतिपादन करें।’ नाम पूछे जाने पर वर का नाम ‘शिव’ बताया गया, पर इनके पिता का नाम पूछने पर सब चुप हो गए। कुछ समय सोचने के बाद ब्रह्माजी ने कहा कि इनका पिता मैं ‘ब्रह्मा’ हूँ और पितामह का नाम पूछने पर ब्रह्माजी ने ‘विष्णु’ बताया। इसके बाद प्रपितामह का नाम पूछने पर सारी सभा अत्यन्त मौन रही। अंत में मौन भंग करते हुए शिवजी स्वयं बोले कि सबके प्रपितामह तो हम ही हैं।
यह देखकर नारदजी ने हिमालय से कहा–’पर्वतराज! तुम्हारी यह बात अत्यन्त उपहासजनक है। महेश्वर से क्या कहना चाहिए और क्या नहीं, इसका तुम्हें पता नहीं है। इनके गोत्र, कुल और नाम को तो विष्णु और ब्रह्मा आदि भी नहीं जानते। जिनके एक दिन में करोड़ों ब्रह्माओं का लय होता है, उन्हीं भगवान शंकर को तुमने आज पार्वती के तपोबल से प्रत्यक्ष देखा है। इनका कोई रूप नहीं है। ये प्रकृति से परे निर्गुण, निर्विकार परब्रह्म परमात्मा हैं। गोत्र, कुल और नाम से रहित स्वतन्त्र परमेश्वर हैं। भक्तों की इच्छा से ही ये निर्गुण से सगुण, निराकार से सुन्दर शरीर वाले, अनामा होकर भी बहुत-से नाम वाले, गोत्रहीन होकर भी उत्तम गोत्र वाले और कुलहीन होकर भी कुलीन बन जाते हैं। लीलापूर्वक रूप धारण करने वाले सगुण महेश्वर का गोत्र और कुल केवल नाद है। शिव नादमय हैं और नाद शिवमय है। सृष्टि के समय सगुण रूप धारण करने वाले शिव से नाद ही प्रकट हुआ था।’ नारदजी की बात सुनकर हिमवान के मन का सारा विस्मय दूर हो गया और उन्होंने इस मन्त्र द्वारा भगवान शिव को अपनी कन्या का दान कर दिया–
इमां कन्यां तुभ्यमहं ददामि परमेश्वर।
भार्यार्थं परिगृह्णीष्व प्रसीद सकलेश्वर।।
अर्थात्–परमेश्वर! मैं अपनी यह कन्या आपको देता हूँ। आप इसे अपनी पत्नी बनाने के लिए ग्रहण करें। सर्वेश्वर! इस कन्यादान से आप संतुष्ट हों।
बहुरि बराती मुदित चले जनवासहि।
दूलह दुलहिन गे तब हास-अवासहि।।
रोकि द्वार मैना तब कौतुक कीन्हेउ।
करि लहकौरि गौरि हर बड़ सुख दीन्हेउ।।
सभी बाराती जनवासे को चले गए। महारानी मेना ने कोहबर में वर-वधू का द्वार रोका तो भगवान शिव-पार्वती ने लहकौरि की रीति करके सबको प्रसन्न कर दिया। वर-वधू ने लोकाचार सम्पन्न किए और उनके गठबंधन की गांठ खोलने का कार्य सम्पन्न हुआ। भगवान शिव ने पार्वतीजी के साथ मिष्टान्न भोजन करके कपूर डाला पान खाया। जुआ खिलाते समय सब स्त्रियां हिमाचल की पत्नी मैना को गाली गाती हैं। शिवजी प्रसन्न हैं कि हमारे तो माता है ही नहीं, फिर ये स्त्रियां गाली किसको देंगी?
जुआ खेलावत गारि देहिं गिरि नारिहि।
आपनि ओर निहारि प्रमोद पुरारिहि।।
वहां सोलह देवांगनाएं (सरस्वती, लक्ष्मी, सावित्री, गंगा, रति, अदिति, शची, लोपामुद्रा, अरुन्धती, अहल्या, तुलसी, स्वाहा, रोहिणी, वसुन्धरा, शतरूपा तथा संज्ञा), देवकन्याएं, नागकन्याएं व मुनिकन्याएं भी थीं, वे शंकरजी से विनोदपूर्ण बातें करने लगीं। भगवान शंकर ने उन परिहासपरायणा देवियों से कहा–’आप सब-की-सब साध्वी और जगन्माताएं हैं, फिर मुझ पुत्र के प्रति यह चपलता क्यों?’
भइ जेवनार बहोरि बुलाइ सकल सुर।
बैठाए गिरिराज धरम धरनि धुर।।
परुसन लगे सुआर बिबुध जन जेवहिं।
देहिं गारि बर नारि मोद मन भेवहिं।।
अनुकूल अवसर जानकर कामदेव की पत्नी रति ने शिवजी से प्रार्थना की–’महेश्वर! आपके इस विवाहोत्सव में सभी लोग सुखी हुए हैं। केवल मैं ही अपने पति के बिना दु:ख में डूबी हुई हूँ। आप प्रसन्न होइए और मुझे सनाथ कीजिए।’ ऐसा कहकर रति ने गांठ में बंधा हुआ कामदेव के शरीर का भस्म शिवजी को दे दिया। भगवान शूलपाणि की अमृतमयी दृष्टि पड़ते ही पहले जैसे रूप, वेष और चिह्न से युक्त कामदेव उस भस्म से प्रकट हो गये।
पर्वतराज हिमालय ने सभी देवताओं का सम्मान करके उन्हें पहिरावनी दी और मधुर वचनों से उनकी बड़ाई की। सास मेना ने शिवजी के चरणों को पकड़कर कहा–’हमारी एक विनती मानियेगा–पार्वती मेरे जीवन की मूल है ऐसा जानियेगा।’ पार्वतीजी माता के मुख को देखकर नेत्रों से जल बहा रही हैं और सखियां ‘संसार में स्त्री का जन्म ही व्यर्थ है’ इस प्रकार का सोच करती हैं। विवाह के पश्चात् गिरिजा को बिदा करते समय एक सती-साध्वी ब्राह्मणपत्नी को माध्यम बनाकर गिरिराजकिशोरी को पातिव्रत्य की दी गयी शिक्षा समस्त नारीजाति के लिए प्रकाश-स्तम्भ है–
धन्या पतिव्रता नारी नान्या पूज्या विशेषत:।
पावनी सर्वलोकानां सर्वपापौघनाशिनी।। (शिवपुराण रु. सं. पा. ५४।९)
हिमवान और परिजनों से विदा लेकर शिवजी पार्वतीजी के सहित कैलास चले गए और देवतालोग प्रणाम कर अपने-अपने स्थान को चले गए।
संकर गौरि समेत गए कैलासहि।
नाइ नाइ सिर देव चले निज बासहि।।
कैलास पर वायु, कुबेर, शुक्र, दुर्वासा, चन्द्रमा की पत्नियां, बृहस्पति की पत्नी तारा, अत्रि ऋषि की पत्नी अनुसूया, देवकन्याओं, नागकन्याओं व मुनिकन्याओं ने नवदम्पत्ति का उनके गृहमन्दिर में प्रवेश कराया। भगवान शिव ने पार्वती से कहा–’प्रिये! क्या तुम्हें अपने इस घर की याद आती है? यहीं से तुम अपने पिता के घर गयीं थीं। अन्तर इतना ही है कि इस समय तुम गिरिराजकुमारी हो और उस समय तुम यहां दक्षकुमारी के रूप में निवास करती थीं।’ पार्वतीजी ने कहा–’मुझे सब बातों का स्मरण है; किन्तु इस समय आप बीती बातों की चर्चा न करें।’
समस्त शिवगणों को इस विवाह से बड़ा सुख मिला। पार्वतीजी और शिवजी के विवाह के आनन्द से सारे भुवन भर गए। शिव से भिन्न शक्ति नहीं और शक्ति से भिन्न शिव नहीं। शिव में ‘इ’कार ही शक्ति है। इकार निकल जाने पर ‘शव’ ही रह जाता है। जैसे पुष्प में गन्ध, चन्द्र में चन्द्रिका, सूर्य में प्रभा नित्य है, उसी प्रकार शिव में शक्ति नित्य है। शक्ति-नटी शिव के अनन्त, शान्त एवं गंभीर वक्ष:स्थल पर अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों का रूप धारणकर तथा उनके अंदर सर्ग, स्थिति एवं संहार की त्रिविध लीला करती हुई नृत्य करती रहती है।
शिवा-शिव के सागर से भी गहन चरित का वर्णन करने के लिए पुष्पदन्ताचार्य की इन पंक्तियों को लिखा जा सकता है–
असितगिरिसमं स्यात् कज्जलं सिन्धुपात्रे
सुरतरुवरशाखा लेखनी पत्रमुर्वी।
लिखति यदि गृहीत्वा शारदा सर्वकालं
तदपि तव गुणानामीश पारं न याति।।
अर्थात्–’हे ईश! यदि काले पर्वत के समान स्याही हो, समुद्र की दावात हो, कल्पवृक्ष की शाखाओं की कलम बने, पृथ्वी कागज बने और इन साधनों से यदि सरस्वती स्वयं जीवनपर्यन्त आपके गुणों को लिखें तब भी वे आपके गुणों का पार नहीं पा सकेंगी।’
Aap ke durlabh gyan aur adhyayan se hame bahut important jankari milrahi hai aap ki bhakti aur ruchi dhanya hain.
Aapka dhanyawad
Aapka dhanyawad
Very nice parvrti pattya har har mahadev har
एक चीज़ गलत है शिवाजी ने मांग चिता की राख से भरी थी
शिवाजी ने माता सती की मांग चिता की राख से भरी थी