राम माथ, मुकुट राम, राम सिर, नयन राम,
राम कान, नासा राम, ठोड़ी राम नाम है।
राम कंठ, कंध राम, राम भुजा, बाजूबंद,
राम हृदय, अलंकार, हार राम नाम है।।
राम उदर, नाभि राम, राम कटि, कटि-सूत्र,
राम वसन, जंघ राम, जानु-पैर राम हैं।
राम मन, वचन राम, राम गदा, कटक राम,
मारुति के रोम रोम व्यापक राम नाम है।।

अपने आराध्य श्रीराम की सेवा के लिए शंकरजी का हनुमान अवतार

त्रेतायुग में जब मर्यादापुरुषोत्तम भगवान श्रीराम ने पृथ्वी पर अवतार लेने का निश्चय किया, तब उनके पृथ्वी पर आने से पहले ही सभी देवता अपने-अपने अंशों से वानर तथा भालुओं के रूप में पृथ्वी पर अवतीर्ण हुए। भगवान शंकर तो श्रीराम के अनन्य भक्त ठहरे, अत: वे भी अपने आराध्य की सेवा करने के लिए अपने ग्यारहवें रुद्ररूप के अंश से वानरश्रेष्ठ केसरी की पत्नी अंजना से प्रकट हुए। चैत्र शुक्ल पूर्णिमा को शंकरजी ने श्रीहनुमान के रूप में अवतार ग्रहण किया। गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं–

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्र देह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।। (दोहावली १४२)

अर्थात् सज्जन उसी शरीर का आदर करते हैं जिसको श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश रुद्रदेह त्यागकर शंकरजी ने हनुमानजी के रूप में वानर शरीर धारण किया। श्रीरामजी की सेवा में परम आनन्द की बात जानकर पितामह ब्रह्माजी जामवन्त के रूप में उनके सेवक बन गए।

हनुमानजी भगवान श्रीराम की दास्यभक्ति के आचार्य हैं। वे अपने आराध्य के परमप्रिय दास हैं और श्रीराम उनके सर्वसमर्थ स्वामी हैं। वे स्वयं कहते हैं–’दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य’ अर्थात् ‘मैं कोसलेन्द्र श्रीरामचन्द्र का दास हूं।’  

हनुमानजी के रोम-रोम में राम

श्रीरामदूत हनुमानजी का विग्रह राम-नाममय है। उनके रोम-रोम में राम-नाम अंकित है। उनके वस्त्र, आभूषण, आयुध–सब राम-नाम से बने हैं। उनके भीतर-बाहर सर्वत्र आराध्य-ही-आराध्य हैं। उनका रोम-रोम श्रीराम के अनुराग से रंजित है। हनुमानजी भगवान श्रीराम से कहते हैं कि आपका नाम जप करते हुए मेरा मन कभी तृप्त नहीं होता–’त्वन्नामजपतो राम न तृप्यते मनो मम।’ राम मन्त्र की एक लाख आवृत्तियों के पुरश्चरण के बाद ही हनुमानजी सीताजी की खोज के लिए लंकापुरी गये थे और इस कार्य में उन्हें सफलता भी मिली।

आनन्दरामायण में हनुमानजी की सभी शक्तियों का मूल ‘रामनाम’ बताया गया है। हनुमानजी ने सम्पूर्ण जगत को राममय देखा। ‘राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम’ ही उनके जीवन का मूल मन्त्र है। हनुमानजी ने इतना राम-नाम जप किया कि स्वयं राम को भी उनके वश में हो जाना पड़ा–

सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू।। (राचमा १।२५)

प्रभु श्रीराम भी हनुमानजी के उपकार के ऋणी

अयोध्या के राजसिंहासन पर बैठने के बाद श्रीरामजी के मन में एक कसक है कि अयोध्या का राजसिंहासन तो मैंने ले लिया, किष्किन्धा का राज्य सुग्रीव को दे दिया और स्वर्णनगरी लंका का अधिपति विभीषण को बना दिया, किन्तु अपने परम प्रिय दास जिसकी निष्काम सेवा से मैं कभी उऋण नहीं हो सकता, उसे देने के लिए मेरे पास कुछ भी शेष नहीं रहा। भगवान श्रीराम ने कहा–’आज हनुमान ने जनकनन्दिनी सीता का पता लगाकर, उन्हें अपनी आंखों से देखकर मेरी, समस्त रघुवंश की और लक्ष्मण की भी रक्षा की है। आज मेरे पास पुरस्कार देने योग्य वस्तु का अभाव है, यह बात मेरे मन में बड़ी कसक पैदा कर रही है।’

सुनु कपि तोहि समान उपकारी।
नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी।।
प्रति उपकार करौं का तोरा।
सनमुख होइ न सकत मन मोरा।। (राचमा ५।३२।५-६)

श्रीहनुमानजी की दासभक्ति से अभिभूत होकर प्रभु श्रीराम ने कहा–‘मैं तुम्हें न स्वर्ग का सुख दे सकता हूँ और न मुक्ति का ही सुख। मैं तुम्हें कुछ भी देने में असमर्थ हूँ। मैं तो स्वयं तुमसे प्रेमरस ग्रहण करता हूँ। मैं तुम्हारे अतुलनीय प्रेमरस का स्वाद चखने के लिए ही बार-बार पृथ्वी पर अवतार ग्रहण करता हूँ।’

श्रीराम के वचनों को सुनकर हनुमानजी फूट-फूटकर रोने लगे और बोले–’भगवन्! मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए। इस प्रशंसा से मुझमें कहीं अहंकार न उत्पन्न हो जाए। आपकी चरण-रज-सेवा से बढ़कर मेरे लिए सृष्टि में कुछ भी नहीं है।’

नाथ भगति अति सुखदायनी।
देहु कृपा करि अनपायनी।।
सुनि प्रभु परम सरल कपि बानी।
एवमस्तु तब कहेउ भवानी।। (राचमा ५।३४।१-२)

श्रीरामजी जब पूछते हैं कि तुमने लंका-दहन कैसे किया? तब हनुमानजी उत्तर देते हैं कि कर्ता तो आप ही हैं और आपने ही अपनी लीला दिखाने के लिए मुझे निमित्त बनाया है। मैं भी आपका और मेरे अंदर विद्यमान पुरुषार्थ भी आपका वरदान है। आपके अतिरिक्त और कौन है? सब कुछ आपको सेवार्पित है।

सो सब तव प्रताप रघुराई।
नाथ न कछू मोरि प्रभुताई।। (राचमा ५।३३।९)

जिस वस्तु में राम-नाम न हो, वह वस्तु पवनपुत्र के पास कैसे रह सकती है?

रतन अपार सार सागर उद्धार किये,
लिये हिय चाव सों बनाय माला करी है।
सब सुख साज रघुनाथ महाराज जू को,
भक्त जो विभीषण सो आनि भेंट धरी है।
सभी केरी चाह अवगाह हनुमान गरे,
डारि दई सुधि भई मति अरबरी है।
राम बिन काम कौन फोरि मणि डारि दिये,
खोल त्वचा नाम सो दिखायी बुद्धि हरी है।। (स्वामी श्रीप्रियादासजी)

हनुमानजी ने रामनाम कीर्तन की साधना से भगवान श्रीराम को अपने वशीभूत कर रखा है। कीर्तन की अति ऊंची अवस्था में पहुंचे हुए साधक का कण-कण भगवन्नाममय हो जाता है। समुद्रदेव ने बहुत ही उत्तम रत्न विभीषणजी को भेंट किए। भक्त अच्छी वस्तु अपने भगवान को अर्पित कर देता है। अत: विभीषण ने भी उन रत्नों की माला बनाई और भगवान श्रीराम की सभा में जाकर उन्हें भेंट कर दी। भगवान ने उस सुन्दर माला को, जिसके प्रकाश एवं सौन्दर्य से सारे सभासद मुग्ध थे, अपने पास रखकर सभासदों से पूछा कि यह अनुपम माला किसे दी जाए। सभी सभासदों ने एकमत से कहा कि यह माला हनुमानजी को मिलनी चाहिए क्योंकि भगवान को सबसे अधिक प्रिय हनुमानजी ही हैं। राज्याभिषेक समारोह के उपहार के रूप में स्वयं प्रभु श्रीराम ने वह माला हनुमानजी के गले में डाल दी। उस समय हनुमानजी भगवान की विजय व उनके सिंहासनासीन होने के उत्साह में राम-नाम कीर्तन में मग्न होकर नाच रहे थे। गले में माला डालने से उनका ध्यान टूटा और उनकी दृष्टि माला पर गई। हनुमानजी के मुख के भाव थे–’प्रभु ने यह क्या अद्भुत वस्तु दे दी, मैं इसका भला क्या करुंगा?’ हनुमानजी ने कण्ठ से वह मणिमाला निकाल ली और दोनों हाथों से मस्तक पर लगाया और राजसभा में एक किनारे जा बैठे। वे घुमा-फिराकर उसकी मणियों को देखने लगे लेकिन उसके किसी भी दाने पर उन्हें राम-नाम अंकित नहीं दिखाई दिया। हनुमानजी उन बहुमूल्य मणियों को अपने लिए अनुपयोगी मानकर अपने वज्र के समान दांतों से तोड़कर फेंकने लगे। सभा में सभी लोग हंसने लगे और किसी ने मन्द स्वर में कहा–’वानर इन रत्नों का मूल्य क्या जाने?’

‘जिस वस्तु में राम-नाम नहीं, वह वस्तु तो दो कौड़ी की भी नहीं। उसके रखने से क्या लाभ?’ अयोध्या के भरे दरबार में यह बात हनुमानजी ने कही। विभीषण उन अमूल्य मणियों की दुर्गति सहन न कर सके। उन्होंने हनुमानजी से पूछा–’आप देवताओं को भी दुर्लभ इन अत्यन्त मूल्यवान मणियों को क्यों नष्ट किए दे रहे हैं? इनमें एक-एक मणि स्वर्ग की समस्त सम्पत्ति से अधिक मूल्यवान है।’

हनुमानजी ने उत्तर दिया–’राम-नाम रहित मणियां फोड़कर फेंकने लायक ही हैं। इनमें न तो श्रीसीताराम का साकार विग्रह है और न ही उनका नाम। इन मणियों की मूल्यवानता ही मैं ढूंढ़ रहा हूँ। सृष्टि में मेरे स्वामी के नाम और दिव्य रूप के अतिरिक्त और कुछ भी मूल्यवान नहीं है।’

विभीषण ने उनसे चिढ़कर हंसते हुए कहा कि क्या आपके विशाल शरीर में भी राम-नाम अंकित है? हनुमानजी ने विश्वासपूर्ण स्वर में कहा–’देखा तो मैंने नहीं है पर आप ठीक कहते हैं। मुझे देख लेना चाहिए। जिस वस्तु में राम-नाम न हो वह देखने, छूने और रखने-योग्य हो ही नहीं सकती।’

कोई समझ नहीं सका कि हनुमानजी क्या करने जा रहे हैं? भावुक हनुमानजी ने तुरन्त शरीर की त्वचा और वक्ष:स्थल को अपने वज्रनखों से चीरकर देखा तो उनके रोम-रोम में ‘राम’ यह परम दिव्य नाम अंकित था और उनके हृदय में जनकनन्दिनी के साथ श्रीराम विराजित थे।

प्रनवऊं पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।

यह देखकर सभी अाश्चर्यचकित रह गए। राजसभा में उपस्थित सभी के कण्ठ से निकला–‘श्रीराममय रामदूत हनुमान की जय।’ विभीषण दौड़कर पवनकुमार के चरणों में गिर पड़े। भगवान ने हनुमानजी को हृदय से लगा लिया। प्रभु श्रीराम के करकमलों के स्पर्श से उनका शरीर पहले जैसा हो गया।

पवनतनय संतन हितकारी।
हृदय विराजत अवध-बिहारी।। (विनयपत्रिका ३६)

जनकनन्दिनी ने रोषपूर्वक विभीषण को बन्दीगृह में डालने को कहा पर श्रीराम ने विभीषण को यह कहते हुए क्षमा कर दिया कि ‘ये राक्षसराज भी अपने ही हैं।’ हनुमानजी ने यह कहते हुए कि ‘आपको यह पाषाण मूल्यवान लगते हैं’, पृथ्वी पर पड़ी माला विभीषण की अंजलि में डाल दी।

भगवान के भजन से बढ़कर मीठी चीज कोई है ही नहीं। इसलिए भक्त निरन्तर भगवान के भजन में मस्त रहता है। वाल्मीकि रामायण के अंत में आता है कि भगवान श्रीराम के स्वधाम पधारने के समय हनुमानजी ने पृथ्वी पर तब तक रहना स्वीकार कर लिया था जब तक कि रामकथा का अस्तित्व रहेगा। राम नाम के बल से असंख्य रूप धारण करने की सिद्धि प्राप्त होने से वे रामनामरुपी रस के लिए जहां-जहां रामकथा होती है, वहां-वहां सजल नेत्रों के साथ प्रेमसागर में हिलोरें लेते हुए विराजमान रहते हैं।

राम नाम से तृप्त हुए हनुमानजी

लंका विजय के बाद श्रीराम, लक्ष्मण व सीताजी के साथ हनुमानजी भी अयोध्यापुरी आ गए। अवधपुरी में ही वे श्रीराम की सेवा करते हुए निवास करने लगे। श्रीहनुमान श्रीराम के सिंहासन के पादपीठ के पास दक्षिण में वीरासन में बैठे रहते।

भगवान श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद एक दिन माता जानकी ने वात्सल्यभाव से हनुमानजी से कहा–’कल मैं तुम्हें अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाऊंगी।’ हनुमानजी के आनन्द का क्या कहना? जगन्माता सीता स्वयं अपने हाथों से भोजन बनाकर खिलाएं, ऐसा सौभाग्य किसे मिलता है? दूसरे दिन जनकनन्दिनी सीता ने अनेक प्रकार के स्वादिष्ट व्यंजन बनाये और हनुमानजी को आसन पर बिठाकर परोसने लगीं। माता के स्नेह से भाव-विभोर होकर हनुमानजी बड़े प्रेम से भोजन करने लगे। माता सीता जो कुछ भी थाली में परोसतीं, एक ही बार में वह हनुमानजी के मुख में चला जाता। माता की रसोई का भोजन समाप्त होने को आया पर हनुमानजी के खाने की गति कम न हुई। माता जानकी बड़ी चिन्तित हुईं कि अब क्या किया जाए? लक्ष्मणजी यह देखकर सब समझ गए और सीताजी से बोले–’ये रुद्र के अवतार हैं, इनको इस तरह कौन तृप्त कर सकता है?’ लक्ष्मणजी ने एक तुलसीदल पर चन्दन से ‘राम’ लिखकर हनुमानजी की थाली में रख दिया। वह तुलसीदल मुख में जाते ही हनुमानजी ने तृप्ति की डकार ली और थाली में बचे हुए भोजन को पूरे शरीर पर मल लिया और राम-नाम का कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे।

अध्यात्मरामायण में हनुमानजी अपना परिचय देते हुए श्रीराम से कहते हैं–‘देहबुद्धि से मैं अपने आराध्य श्रीराम का दास हूँ, जीवदृष्टि से आपका अंश हूं और आत्मा की दृष्टि से तो आप और मैं एक हैं।’

प्रीति प्रतीति सुरीति सों राम राम जपु राम।
तुलसी तेरो है भलो आदि मध्य परिनाम।।

4 COMMENTS

  1. Ram Ram Didi, Aapka Pryas Atyant Slaaghniy Hai. Aasha hai isse shrey marg ke aneko pathik Labhanvit honge. Dhanyvad Sahit. Sadar! Kuldeep Upreti

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