hanuman shiv ram

जेहि सरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान।
रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान।। (दोहावली १४२)

अर्थात्–सज्जन उसी शरीर का आदर करते हैं, जिसे श्रीराम से प्रेम हो। इसी स्नेहवश रुद्र देह त्यागकर हनुमान ने वानर का शरीर धारण किया।

भगवान शंकर और श्रीरामजी में अनन्य प्रेम है। जब-जब भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, तब-तब भोले-भण्डारी भी अपने आराध्य की मनमोहिनी लीला के दर्शन के लिए पृथ्वी पर उपस्थित हो जाते हैं। भगवान शंकर एक अंश से अपने आराध्य श्रीराम की लीला में सहयोग करते हैं और दूसरे रूप में उनकी लीलाओं को देखकर मन-ही-मन प्रसन्न होते हैं।

शिवभक्त रावण की एक भूल से रुद्र बने हनुमान

एक बार कैलासपर्वत पर भगवान शंकर ने पार्वतीजी से कहा–’जिनके नामों को मैं रात-दिन रटता रहता हूँ, वे ही मेरे प्रभु अवतार धारण करके संसार में आ रहे हैं। सभी देवता उनके साथ अवतार-ग्रहणकर उनकी सेवा करना चाहते हैं, तब मैं ही उससे क्यों वंचित रहूँ? मैं भी वहीं चलूं और उनकी सेवा करके अपनी युगों की लालसा पूरी करूं।’

सतीजी ने कुछ सोचकर कहा–’भगवान का अवतार रावण को मारने के लिए हो रहा है और रावण आपका अनन्य भक्त है। उसने अपने सिरों को काटकर आपको अर्पित किया है। ऐसी स्थिति में आप उसे मारने के कार्य में कैसे सहयोग कर सकते हैं?’

भगवान शंकर ने हंसते हुए कहा–’जैसे रावण ने मेरी भक्ति की है, वैसे ही उसने मेरे एक अंश की अवहेलना भी की है। मैं ग्यारह स्वरूपों (एकादश रुद्र) में रहता हूँ। जब उसने अपने दस सिर अर्पित कर मेरी पूजा की थी तो एक अंश को बिना पूजा किए ही छोड़ दिया था। अब मैं उसी अंश से उसके विरुद्ध युद्ध करके अपने प्रभु की सेवा कर सकता हूँ। मैंने वायुदेवता के द्वारा अंजना के गर्भ से अवतार लेने का निश्चय किया है।’ इस प्रकार ग्यारहवें रुद्र ही हनुमानजी के रूप में अवतरित हुए।

दास्यभक्ति का रस चखने के लिए शंकरजी बने हनुमान

भगवान सदाशिव ने केवल सती के शरीर का ही त्याग नहीं किया वरन् श्रीराम की सेवा के लिए स्वयं के शरीर का भी त्याग कर दिया। वानररूप हनुमान बनकर भगवान शंकर ने श्रीरामजी व उनके परिवार की ऐसी सेवा की, आज भी कर रहे हैं और भविष्य में भी अनन्तकाल तक करते रहेंगे, कि सभी को अपना ऋणी बना लिया।

श्रीरामलला के दर्शन के लिए अवध की गलियों में घूमें उमानाथ

जब श्रीराम ने दशरथनन्दन के रूप में कौसल्या के अंक में जन्म लिया तो अयोध्या के जन-जन में नित नूतन उत्साह छा गया। अयोध्यापुरी में नित नूतन महोत्सव होने लगे। अथाह अतिथियों का सैलाब अयोध्या की ओर उमड़ पड़ा। श्रीरामलला के दर्शन के लिए भोलेभण्डारी सहित विभिन्न देवता अवध में आए। ब्रह्मा आदि देवता तो भगवान का दर्शन-स्तुति कर वापस लौट गए; किन्तु शंकरजी का मन अपने आराध्य श्रीराम की शिशुक्रीड़ा की झांकी में ऐसा उलझा कि वे अवध की गलियों में विविध वेष बनाकर घूमने लगे। कभी वे राजा दशरथ के राजद्वार पर प्रभु-गुन गाने वाले गायक के रूप में, तो कभी भिक्षा मांगने वाले साधु के रूप में उपस्थित हो जाते थे। कभी भगवान के अवतारों की कथा सुनाने के बहाने प्रकाण्ड विद्वान बनकर राजमहल में पहुंच जाते।

वे काकभुशुण्डिजी के साथ बहुत समय तक अयोध्या की गलियों में घूम-घूमकर आनन्द लूटते रहे। एक दिन शंकरजी काकभुशुण्डि को बालक बनाकर और स्वयं त्रिकालदर्शी वृद्ध ज्योतिषी का वेष धारणकर शिशुओं का फलादेश बताने के बहाने अयोध्या के रनिवास में प्रवेश कर गए।

अवध आजु आगमी एकु आयो।
करतल निरखि कहत सब गुनगन, बहुतन्ह परिचौ पायो।। (गीतावली)

श्रीराम की शिशुक्रीड़ा देखकर परमानन्द में डूबे भोलेनाथ

माता कौसल्या ने जैसे ही शिशु श्रीराम को ज्योतिषी की गोद में बिठाया तो शंकरजी का रोम-रोम पुलकित हो उठा। वे बालक का हाथ देखने के बहाने कभी उनके कोमल करकमलों को सहलाते। कभी अपनी जटाओं से उनके रक्ताभ तलवों को थपथपाते और देवताओं के लिए भी दुर्लभ उन चरणकमलों का दर्शन कर परमानन्द में निमग्न हो जाते। इस प्रकार कभी वे अपने आराध्य का हाथ देखें, कभी सहलाएं, कभी चरणों को देखें और गोद में सहलाएं। इस बात को स्वयं शंकरजी पार्वतीजी से कहते हैं–

औरउ एक कहउँ निज चोरी।
सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।।
कागभुसुंडि संग हम दोऊ।
मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।
परमानंद प्रेमसुख फूले।
बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।।
यह सुभ चरित जान पै सोई।
कृपा राम कै जापर होई।। (राचमा १।१९६।३-६)

भगवान शंकर बने स्वयं ही मदारी और स्वयं ही बंदर

अब दशरथनन्दन श्रीराम भाईयों सहित पैदल चलने लगे, फिर वे एक ही जगह कैसे रह सकते थे। जिधर मन आए उधर ही राजमहल के द्वार तक दौड़ लगाने लगे। एक बार उमापति भगवान शंकर मदारी के वेष में डमरु बजाते हुए अवध के राजमहल के द्वार पर पहुंचे। उनके साथ नाचने वाला एक सुन्दर बंदर भी था। मदारी और बंदर का खेल देखने के लिए राजमहल के द्वार पर लोगों की भीड़ जमा हो गई। डमरु की आवाज सुनकर श्रीराम सहित चारों भाई भी महल के द्वार पर आ गए। तभी मदारी ने जोर से डमरु बजाया और बंदर ने श्रीराम को देखकर दोनों हाथ जोड़ लिए। यह देखकर सभी भाईयों सहित श्रीराम हंसने लगे। मदारी जैसे निहाल हो गया। वह और भी जोर से डमरु बजाने लगा। डमरु की आवाज के साथ बंदर भी ठुमुक-ठुमुक कर नाचने लगा।।

नाचने और नचाने वाले दोनों ही भगवान शंकर

भगवान शंकर एक अंश से वानररूप में अपने आराध्य के सामने नाच रहे थे और दूसरे अंश से स्वयं ही मदारी बनकर अपने को नचा रहे थे। सम्पूर्ण सृष्टि को नचाने वाले कौसल्यानन्दन श्रीराम नाच से मुग्ध होकर हाथ से ताली बजाकर प्रसन्न हो रहे थे।

अब भगवान ने लीला की। शिशु राम मचल उठे–’मुझे यह वानर चाहिए।’ मदारी तो यह चाहता ही था। अपने आराध्य के चरणों में रहने की अभिलाषा लेकर ही उसने वानररूप धरा था। महाराज दशरथ के पुत्र की कामना अधूरी कैसे रहती? अब उस वानर की डोर कौसल्यानन्दन के हाथ में थी।

नाचें भोले नचावें श्रीराम

अब तक भोलेनाथ बंदर के रूप में अपने को ही नचा रहे थे, परन्तु अब वह स्वयं नाच रहे थे और नचाने वाले थे अवधकिशोर श्रीराम। बंदर के सुख और आनन्द की सीमा न थी। अब मदारी अदृश्य हो गया; शायद अपनी समाधिवस्था में अपने आराध्य का दर्शन करने के लिए कैलासपर्वत चला गया था।

हनुमानजी को अपने स्वामी के समीप रहने का अवसर मिल गया। अब वे भगवान श्रीराम को जैसे सुख मिले, उनका मनोरंजन हो, वही करते थे। इस प्रकार कई वर्ष क्षण में ही बीत गए।

एक दिन महर्षि विश्वामित्र श्रीराम को वन में ले जाने के लिए आए तब श्रीराम ने हनुमानजी को एकान्त में ले जाकर कहा–‘मेरे अंतरंग सखा हनुमान! मेरे पृथ्वी पर अवतरित होने का प्रमुख कार्य अब शुरु होने वाला है। अब मैं रावण का वध कर पृथ्वी पर धर्म की स्थापना करुंगा। मुझे इस कार्य में तुम्हारी सहायता चाहिए होगी। अत: तुम ऋष्यमूकपर्वत पर जाकर सुग्रीव से मित्रता कर लो। कुछ ही दिनों में मैं वहां आऊंगा। वहां तुम मुझसे सुग्रीव की मित्रता करवाकर वानर-भालुओं के साथ मेरे अवतार-कार्य में सहायता करना।’

हनुमानजी अपने आराध्य से दूर नहीं होना चाहते थे; किन्तु प्रभु की आज्ञा का पालन करने के लिए भरे मन से ऋष्यमूकपर्वत पर चले गए। यही ‘रामकाज’ है और इसी कार्य में सहायक होने के कारण हनुमानजी पूज्य हैं।

इस प्रकार भगवान शंकर ने कभी देवरूप से, कभी मनुष्यरूप से और कभी वानररूप हनुमान के रूप में श्रीराम की सेवा की और उपासकों के सामने अपने आराध्य की किस प्रकार सेवा की जाती है, किस प्रकार उन्हें प्राप्त किया जा सकता है–इसका उदाहरण प्रस्तुत किया।

प्रवनउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानघन।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर।।

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