जित देखौं तित स्याममई है।
स्याम कुंज बन, जमुना स्यामा, स्याम गगन घनघटा छई है।।

सब रंगन में स्याम भरो है, लोग कहत यह बात नई है।
मैं बौरी, की लोगन ही की स्याम पुतरिया बदल गई है।।

चंद्रसार रबिसार स्याम है, मृगमद स्याम काम बिजई है।
नीलकंठ को कंठ स्याम है, मनो स्यामता बेल बई है।।

श्रुति को अक्षर स्याम देखियत, दीपसिखा पर स्यामतई है।
नर-देवन की कौन कथा है, अलख-ब्रह्म-छवि स्याममई है।।

भाई हनुमानप्रसादजी के शब्दों में–

नवजलधरविद्युद्धौतवर्णौ प्रसन्नौ, वदननयनपद्मौ चारूचन्द्रावतंसौ ।
अलकतिलकभालौ केशवेशप्रफुल्लौ, भज भजतु मनो रे राधिकाकृष्णचन्द्रौ ।।

भगवान चाहे राम हो, कृष्ण हो या विष्णु; सभी का वर्ण नीला ही है। इसीलिये इन्हें नीलाम्बुज, मेघवर्ण, नीलमणि, गगनसदृश आदि उपमाएं दी जाती हैं। प्रश्न यह है कि भारतीय संस्कृति में चित्रों व प्रतिमाओं में भगवान को नीलवर्ण का क्यों दिखाया जाता है?

नीलवर्ण विशाल, व्यापकता और अनन्तता का द्योतक है। अगाध आकाश का रंग नीला है, वैसे ही अनन्त महासागर का रंग भी नीला है।

प्रभु का स्वरूप विशाल है, उनकी महिमा अपार है, हम किसी भी भौतिक वस्तु से भगवान की तुलना नहीं कर सकते। नमक की पुतली यदि सागर की गहराई नापने जायेगी तो क्या वह स्वयं गल नहीं जायेगी?

प्रभु के दर्शन करने वाले भगवद्भक्त उनकी विशालता, व्यापकता और अनन्तता का सतत अनुभव कर सकें, इसी लिए भगवान के चित्रों और प्रतिमाओं में प्रभु को नीलवर्ण का रखा गया है।

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