वल्लभ सम्प्रदाय में श्रीकृष्ण की वात्सल्यपूर्ण अष्टयाम सेवा


‘शास्त्र एक गीता ही है जिसको कि देवकीनन्दन श्रीकृष्ण ने गाया। देव भी एक देवकीसुत कृष्ण ही हैं, मन्त्र भी बस उनके नाम ही हैं और कर्म भी केवल उनकी सेवा ही है।’ (महाप्रभु श्रीमद्वल्लभाचार्यजी)


भगवान के सुख का विचार करना ही पुष्टि-भक्ति है

श्रीमद्वल्लभाचार्यजी ने वात्सल्यरस से ओतप्रोत (प्रेमलक्षणा) भक्ति पद्धति की सीख दी जिसे ‘वल्लभ सम्प्रदाय’ या ‘पुष्टिमार्ग’ कहा जाता है। भक्त को प्रेमरस में डुबाकर, अहंता-ममता को भुलाकर, दीनतापूर्वक प्रभु की सेवा कराने वाली भक्ति पुष्टि-भक्ति कहलाती है। ‘पुष्टि’ अर्थात् पोषण का अर्थ है–’भगवान श्रीकृष्ण का अनुग्रह या कृपा’।

पुष्टिमार्ग में पूजा का अर्थ है ठाकुरजी की सेवा

अन्य भक्तिमार्गों में भगवान की अर्चना को ‘पूजा’ कहा जाता है परन्तु पुष्टिमार्ग में प्रभु की अर्चना को ‘सेवा’ कहा जाता है। ‘चित्त को भगवान से जोड़ देना ही सेवा है।’ पुष्टिमार्ग में भगवान की सेवा पूर्ण समर्पण के साथ नंदनन्दन को प्रसन्न करने और सुख देने के लिए की जाती है। पुष्टिमार्ग में भाव ही साधन और भाव ही फल है। पुष्टिभक्त के हृदय में भावात्मक भगवान विराजते है और इस भाव की सिद्धि के लिए वह प्रभु के अनेक मनोरथ करता है। प्रभु को आरती, स्नान, भोग, वस्त्रालंकार, पुष्पमाला, कीर्तन और विभिन्न उत्सव आदि से रिझाया जाता है। पुष्टि-भक्ति की सिद्धि प्रभु के चरण में सर्वस्व—तन-धन का समर्पण करने से होती है।

महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी का कथन है कि ‘सदा-सर्वत्र पति, पुत्र, धन, गृह–सब कुछ श्रीकृष्ण ही हैं; इस भाव से श्रीकृष्ण की सेवा करनी चाहिए, भक्तों का यही धर्म है। इसके अतिरिक्त किसी भी समय अन्य कोई धर्म नहीं है।’

अष्टयाम सेवा का अर्थ, उद्देश्य और अंग

अष्टयाम सेवा आठ प्रहरों (यामों) में की जाती है। प्रात:काल से शयन तक इसके–मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या-आरती और शयन–ये आठ रूप हैं। अष्टयाम सेवा का उद्देश्य भगवान की लीलाओं में मन को लगाये रखना है।

पुष्टिसम्प्रदाय में बालभाव एवं गोपीभाव से प्रभु की सेवा होती है। सेवा के अंग हैं–भोग, राग तथा श्रृंगार। भोग में विविध व्यंजनों का भोग प्रभु को लगता है। राग में वल्लभीय (अष्टछाप) भक्त कवियों के पदों का कीर्तन होता है तथा श्रृंगार में ऋतुओं के अनुसार भगवान के विग्रह का श्रृंगार होता है।

पुष्टिमार्ग में अष्टयाम दर्शन सेवा-भावना

‘मंगला’ दर्शन की भावना

मंगला की झांकी में पहले श्रीकृष्ण को जगाया जाता है, उसके बाद मंगल-भोग (दूध, माखन, मिश्री, बासुन्दी) रखा जाता है, फिर आरती की जाती है। यशोदाजी द्वारा सेवित मंगला का भाव इस प्रकार है–

‘बालकृष्ण यशोदाजी की गोद में विराजमान हैं, मां उनके मुखकमल का दर्शनकर उसे चूम रही हैं। नन्दबाबा प्रभु को गोद में लेकर लाड़ लड़ा रहे हैं। सखा गोपाल के गुणों का गान कर रहे हैं। व्रजसुन्दरियां अपने नयनकटाक्ष से ही उनका पूजन कर रही हैं। नंदनन्दन मिश्री और माखन का कलेवा कर रहे हैं। प्रभु की मंगल आरती हो रही है।

मंगल माधो नाम उच्चार।
मंगल वदन कमल कर मंगल, मंगल जन की सदा संभार।।१।।
देखत मंगल पूजत मंगल, गावत मंगल चरित उदार।
मंगल श्रवण कथा रस  मंगल, मंगल तनु वसुदेव कुमार।।२।।

माहात्म्य—मंगला के दर्शन करने से मनुष्य कभी दरिद्र नहीं होता है।

‘श्रृंगार’ दर्शन की भावना

मंगला की सेवा के बाद माता यशोदा अपने बालगोपाल का ऋतु अनुकूल श्रृंगार करती हैं। उबटन लगाकर तथा स्नान कराकर वे श्यामसुन्दर को पीताम्बर धारण कराती हैं। प्रभु के मुखकमल की और हाथ में वेणु व मस्तक पर मोरपंख की शोभा अनुपम है। व्रजसुन्दरियां और भक्त उनके दर्शन कर अपने को धन्य मानते हैं।

आवो गोपाल श्रृंगार बनाऊं।
विविध सुगंधन करूं उबटनों पाछे उष्णजल सों न्हवाऊं।।
अंग अंगोछ गुहूं तेरी बेनी फूलन रचरच भाल बनाऊं।
सुरंग पाग जरतारी चीरा रत्नखचित सिरपेच बंधाऊं।।
बागो लाल सुन्हेरी छापो हरि इजार चरणन विरचाऊं।
पटुका सरस बैंगनी रंग को हंसुली हार हमेल धराऊं।।
गजमोतिन के हार मनोहर वनमाला ले उर पहेराऊं।
ले दर्पण देखो मेरे प्यारे निरख निरख उर नयन सिराऊं।।
मधुमेवा पकवान मिठाई अपने कर ले तुम्हें जिमाऊं।
विष्णुदास को यही कृपाफल बाललीला निशिदिन गाऊं।।

माहात्म्य—श्रीकृष्ण के श्रृंगार के दर्शन करने से मनुष्य स्वर्गलोक प्राप्त करता है।

‘ग्वाल’ दर्शन की भावना

श्रृंगार के बाद ग्वाल सेवाभावना में श्रीकृष्ण ग्वालबालों के साथ गोचारण के लिए जा रहे हैं। माता यशोदा सीख देती हैं–’गोपाल! गहन वन और जलाशय की ओर न जाना, गोपबालकों के साथ रहना, जीवजन्तु वाली जमीन पर अपने सुन्दर चरणों को मत रखना और दौड़ती हुई गायों के पीछे मत दौड़ना।’

गोचारण के लिए बालगोपालों के साथ जाते हुए श्यामसुन्दर वेणु बजाकर गौओं को अपनी ओर बुला रहे हैं। प्रभु के वेणुनाद से चराचर जगत मुग्ध है, बंशीध्वनि से श्रीकृष्ण गोपियों का धैर्य हर लेते हैं। श्रीकृष्ण की ग्वालमण्डली नृत्यगीत आदि में लीन है।

आगे गाय पाछे गाय इत गाय उत गाय
गोविंद को गायन में बसबोई भावे।।
गायन के संग धावे गायन में सचु पावे
गायन की खुररेणु अंग लपटावे।।
गायन सों ब्रज छायो बैकुण्ठ बिसरायो
गायन के हेत कर गिरि ले उठावे।
छीतस्वामी गिरिधारी विट्ठलेश वपुधारी
ग्वारिया को भेष धरें गायन में आवे।।

माहात्म्य—ग्वाल सेवा के दर्शन करने से मनुष्य की मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है।

‘राजभोग’ दर्शन की भावना

ग्वाल सेवाभावना के बाद राजभोग का दर्शन होता है। प्रभु के गोचारण के लिए चले जाने के बाद माता यशोदा मन में सोच-सोचकर व्याकुल हैं कि वन में कड़ी धूप में गौएं चराने के बाद मेरा गोपाल भूखा होगा। इसलिए स्वर्ण व रजत पात्रों में तरह-तरह के पकवान गोपी के हाथ वन में भेज रही हैं। माता यशोदा गोपी को सावधान करती है कि सब सामग्री अच्छी तरह से रख दी है न, एक-दूसरे में मिल न जाए। ऐसा कहते हुए उनकी आंखों से प्रेमाश्रु झरने लगते हैं। गोपी राजभोग नंदनन्दन के सामने परोसती है। प्रभु यमुनातट पर गोपमण्डली के साथ राजभोग अरोग रहे हैं।

वृंदावन वन में स्याम चरावत गैया।
वृंदावन में बंसी बजाई बैठे कदम्ब की छैया।
भांति भांति के भोजन कीनै पठये यशोमति मैया।
सूरदास प्रभु तुम चिरजीवो मेरे कुंवर कन्हैया।।

माहात्म्य—राजभोग के दर्शन करने से मनुष्य भाग्यवान होता है।

‘उत्थापन’ दर्शन की भावना

राजभोग के बाद श्रीकृष्ण दोपहर में कुंज में शयन करते हैं। छ: घड़ी दिन शेष रहने पर जब उन्हें जगाया जाता है, उसे उत्थापन-दर्शन कहते हैं। सखियां कुंजभवन के सामने आकर खड़ी हो जाती हैं और प्रभु की लीलाओं का वर्णन करके उन्हें जगाती हैं—‘हे राधिकाकान्त! आपके जागने का समय हो गया है। गायों के साथ गोपबालक व्रज में जाने के लिए आपकी बाट जोह रहे हैं। गोवर्धन पर पुलन्दियों (भीलनियों) के साथ गोपियां वन के विभिन्न प्रकार के कन्द-फलों को लिए आपकी बाट जोह रही हैं; आप वहां पधारकर उनका मनोरथ पूर्ण कीजिए।’

ग्वाल कहत सुनों हों कन्हैया।।
घर जेवे की भई है बिरीयां दिन रह्यो घड़ी छैयां।।
शंखधुन सुन उठे हैं मोहन लावो मुरली कहां धरैया।।
गैया सगरी बगदावो रे घर को टेर कहत बलदाऊ भैया।। (परमानन्ददासजी)

माहात्म्य—उत्थापन के दर्शन करने से मनुष्य उत्साही बना रहता है। मनुष्य की अकर्मण्यता दूर हो जाती है।

‘भोग’ दर्शन की भावना

सखियों के ऐसा कहने पर लीलापुरुषोत्तम नन्दलाल शय्या से उठकर गिरिराज पर पधारते हैं और कन्द-मूल-फल आदि अरोगते हैं। यह भोग के दर्शन हैं। भोग अरोगने के बाद बाट देखती मां की व्याकुलता की जब प्रभु को याद आती है तो वे संध्याकाल में घर की ओर चल पड़ते हैं।

कंदमूल फल तरमेवा धरी ओटि किये मुरकैया
आरोगत व्रजराय लाडिलो झूंठन देत लरकैया।।
उत्थापन भयो पहोर पाछलो व्रजजन दरस दिखैया।
परमानन्द प्रभु आये भवन में शोभा देख बलजैया।।

माहात्म्य—भोग के दर्शन करने से मनुष्य की भगवान के चरणकमलों में प्रीति बनी रहती है।

‘संध्या-आरती’ दर्शन की भावना

गोधूलि-वेला में श्रीकृष्ण मन्द-मन्द वेणु बजाते हुए घर लौट रहे हैं। गोपियां प्रभु का मुखारविन्द निहारती हैं और वेणुवादन सुनकर रसमग्न हो जाती हैं। पुत्र को देखकर यशोदाजी का वात्सल्य उमड़ पड़ता है। उनके सारे शरीर में स्वेद (पसीना), रोमांच, कम्पन और स्तम्भन होने लगता है। वे कपूर, घी व कस्तूरी से सनी सुगन्धित बाती से उनकी आरती उतारती हैं। श्रीकृष्ण उनके इस भाव से मुग्ध हो रहे हैं।

लाल के बदन कमल पर आरती वारुं।
चारु चितवन करों साज नीकी युक्ति सों,
बाती अनगित घृत कपूर की बारुं।।

माहात्म्य—संध्या-आरती के दर्शन करने से मनुष्य की दूषित भावनाएं (स्वार्थीपन आदि) व नकारात्मकता समाप्त हो जाती है।

‘शयन’ दर्शन की भावना

संध्या-आरती के बाद शयन सेवा होती है। यशोदा अपने लाल को शयनभोग अरोगने के लिए कहती हैं–’मैंने अनेक प्रकार की स्वादिष्ट सामग्री सिद्ध (बनायी) की है। सोने के कटोरे में नवनीत और मिश्री भी है।’ प्रभु भोजन करते हैं। इसके बाद दूध के समान धवल शय्या पर शयन के लिए जाते हैं। माता यशोदा उनकी पीठ पर हाथ फेरकर सो जाने का अनुरोध करती हैं और उनकी लीलाओं का गुणगान कर सुलाती हैं।

मां अपने लाल को सोया जानकर उनके पास एक गोपी को बिठाकर अपने कक्ष में चली जाती हैं। सखियों का समूह प्रभु का दर्शन करके निवेदन करता है कि श्रीस्वामिनी (पुष्टिमार्ग में श्रीराधा को स्वामिनीजी कहा जाता है) आपकी बाट देख रही हैं, शय्या आदि सजाकर प्रतीक्षा कर रही हैं। श्रीस्वामिनीजी की विरहावस्था का वर्णन सुनकर करोड़ों कामदेवों के लावण्य वाले श्यामसुन्दर शय्या त्यागकर तुरन्त मन्द-मन्द गति से सखियों के बताये मार्ग पर धीरे-धीरे चलने लगते हैं। मन्द-मन्द मुरली बजाते वे केलिमन्दिर में प्रवेश करते हैं। यही प्रिया-प्रियतम की दिव्य झांकी है।

दोउ मिल पोढ़े ऊंची अटा हो।
श्यामघन दामिनी मानो उनयी घटा हो।।
अंगसों अंग मिले तनसों तन ओढे पीतपटा हो।
देखत बने कहत नही आवे सूर स्याम छटा हो।।

माहात्म्य—शयन के दर्शन करने से मनुष्य के मन में शान्ति व भगवान के चरणकमलों में प्रीति बनी रहती है।

श्रीकृष्ण को ही अपना एकमात्र अनन्य आश्रय मानना पुष्टिमार्गीय जीवन-प्रणाली की आवश्यक शर्त है। ‘श्रीकृष्ण शरणं मम’ इस मन्त्र की दीक्षा से भक्त अपने को भगवान में अर्पित कर देता है। इस प्रकार भगवत्स्वरूप की प्राप्ति का आनन्द ही पुष्टिभक्ति का एकमात्र फल है।

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