सुदर्शनचक्र अवतार भगवान श्रीनिम्बार्काचार्यजी

श्रीराधा रासेश्वरी मोहन मदनगुपाल।
अलबेले उर में रहैं ब्रजबल्लभ दोउ लाल।।

कलियुग के चार सम्प्रदाय और उनके आचार्य

भगवान श्रीहरि कभी स्वयं तो कभी अपने दिव्य पार्षदों के द्वारा भूलोक के अज्ञान-अंधकार को दूर करते हैं, असुरों का नाश करते व सनातन वैष्णव धर्म को सुदृढ़ करते हैं। जिस प्रकार सतयुग, त्रेता और द्वापरयुग में भगवान के चौबीस अवतार हुए, उसी प्रकार कलियुग में चार सम्प्रदाय—श्रीसम्प्रदाय, रुद्रसम्प्रदाय, ब्रह्मसम्प्रदाय और सनकादिक सम्प्रदाय प्रकट हुए। इन चार सम्प्रदायों के आचार्य हैं—श्रीसम्प्रदाय के दक्षिण भारत में श्रीरामानुचार्य एवं उत्तर भारत में श्रीरामानन्दाचार्य, रुद्रसम्प्रदाय के श्रीविष्णुस्वामीजी, ब्रह्मसम्प्रदाय के श्रीमध्वाचार्यजी और सनकादिकसम्प्रदाय के श्रीनिम्बार्काचार्यजी।

भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से चक्रराज सुदर्शन का पृथ्वी पर अवतार धारण करना

सर्वेश्वर भगवान श्रीकृष्ण के गोलोकगमन के पश्चात् कलिकाल तेजी से बढ़ने लगा। भागवतधर्म और सनातन वैदिक परम्पराओं के ह्रास से चारों ओर अशान्ति छा गयी। तब भगवान श्रीहरि ने अपने करारविन्द में सुशोभित प्रिय आयुध एवं पार्षद चक्रराज श्रीसुदर्शन को आज्ञा दी—

सुदर्शन महाबाहो कोटिसूर्यसमप्रभ।
अज्ञानतिमिरान्धानां विष्णो मार्गं प्रदर्शय।।

अर्थात्—करोड़ों सूर्य के समान दिव्य प्रभा वाले महाबाहो सुदर्शन! आप आचार्यरूप से इस पृथ्वी पर अवतरित होकर अज्ञानरूपी अंधकार से अंधे हुए (अपने कर्तव्य को भूले हुए) मानवों को विष्णुमार्ग से (वैष्णव पद्धति से) गोलोक, वैकुण्ठ आदि धाम जाने का सरल मार्ग दिखाइए।

सनकादि सम्प्रदाय के सूर्य श्रीनिम्बार्काचार्यजी

वे ही चक्रराज सुदर्शन भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से द्वापर के अंत में तेजराशि के रूप में पृथ्वी पर वैष्ष्णव परम्परा को कमजोर होने से बचाने के लिए दक्षिण भारत के गोदावरीतट पर वैदूर्यपत्तन (मूंगी-पैठण, दक्षिणकाशी) ग्राम में कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा को महर्षि अरुण के आश्रम में माता जयन्ती के गर्भ से अवतरित हुए। बालक का नाम नियमानन्द रखा गया। इनके उपनयन संस्कार के समय स्वयं देवर्षि नारद ने इन्हें गोपाल-मन्त्र की दीक्षा दी एवं सनकादि द्वारा पूजित श्रीसर्वेश्वर प्रभु की सेवा प्रदान की।

 

सनकादि सम्प्रदाय

नियमानन्दजी के गुरु नारद और नारद के गुरु सनकादि होने से इनका सम्प्रदाय ‘सनकादि सम्प्रदाय या द्वैताद्वैत मत’ के नाम से प्रसिद्ध है। भगवान नारायण ने हंसस्वरूप से ब्रह्माजी के पुत्र सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार को इसका उपदेश किया। सनकादि कुमारों ने इसे नारदजी को दिया और नारदजी ने इसका उपदेश श्रीनिम्बार्काचार्यजी को किया। अत: यह मत बहुत प्राचीनकाल से चला आ रहा है। श्रीनिम्बार्काचार्यजी ने इस मत को लोक में प्रचलित किया।

भगवान श्रीकृष्ण स्वयं सूर्य रूप में प्रकट हुए

एक बार व्रज के कुछ संत अरुणाश्रम पहुंचे और व्रज-वृन्दावन की महिमा सुनाने लगे, जिसे सुनकर श्रीनियमानन्दजी को भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा का स्मरण हो आया। उन्हें अपने प्रभु की जन्मभूमि और लीलाभूमि के दर्शनों की तीव्र इच्छा जाग्रत हुई। वे अपने माता-पिता सहित व्रज में पधारे और श्रीगिरिगोवर्धन के समीप ध्रुवक्षेत्र को अपनी तपस्थली बनाया। यहां निम्बवृक्षों (नीम के पेड़) की अधिकता होने से इस स्थान को निम्बग्राम के रूप में जाना जाता है।

जो स्वयं अगाध भगवत्प्रेम में डूबा होगा वही सांसारिक प्राणियों को भगवत्प्रेम प्रदान कर सकता है। सुदर्शनचक्रावतार श्रीनियमानन्दजी के व्रज पहुंचने पर व्रजवासियों के हृदय में असीम प्रेमभाव उमड़ पड़ा।

एक दिन पास ही के स्थान से एक दण्डी महात्मा (श्रीब्रह्माजी ही साधु रूप में) इनके आश्रम पर आए। दोनों महापुरुषों में शास्त्रचर्चा चली तो समय का किसी को भी ध्यान नहीं रहा। सूर्यास्त होने पर जब आचार्यजी ने दण्डी साधु को भोजन करने के लिए कहा तो उन्होंने सूर्यास्त होने के कारण भोजन ग्रहण करने से मना कर दिया। आचार्यजी नहीं चाहते थे कि उनके यहां से कोई अतिथि भूखा लौट जाए इसलिए उनके मन में बड़ी पीड़ा हुई।

भक्तों के भयहारी भगवान ने रची लीला

आश्रम के पास ही एक नीम का वृक्ष था। अचानक उस वृक्ष के चारों ओर प्रकाश फैल गया, जैसे सूर्यनारायण प्रकट हो गए हों। आचार्य नियमानन्द ने अपने दिव्य प्रभाव से निम्बवृक्ष में दण्डी साधु को अर्कबिम्ब (सूर्यमण्डल) का दर्शन कराया। अतिथि साधु और वहां उपस्थित सभी लोग भगवान की इस अपार करुणा का दर्शन करके गद्गद हो गये। कोई नहीं जानता था कि उनके सामने उनके आराध्य भगवान श्रीकृष्ण ही सूर्यदेव के रूप में साक्षात प्रकट हो गये थे या भगवान का करोड़ों सूर्यों की प्रभा के समान सुदर्शनचक्र ही साक्षात प्रकट हो गया था। लोगों को लगा कि आचार्य के योगबल से भगवान सूर्य वहां प्रकट हो गए हैं।

सूर्यावतार भगवान श्रीनिम्बार्काचार्यजी

चारों ओर सूर्य का प्रकाश देखकर आचार्य ने पुलकित हृदय से दण्डी साधु को भगवत्प्रसाद अर्पित किया और इसके बाद सूर्यभगवान अस्त हो गए। यह देखकर दण्डी साधु को विश्वास हो गया कि ये ही सुदर्शनचक्रावतार हैं। दण्डी साधु भी अपने वास्तविक स्वरूप ब्रह्मा के रूप में प्रकट हो गए। इसी से ब्रह्मदेव ने इन्हें ‘निम्बादित्य’ (निम्ब + आदित्य) या ‘निम्बार्क’ (निम्ब + अर्क) नाम से सम्बोधित किया। निम्ब नीम को और आदित्य व अर्क सूर्य को कहते हैं। तभी से इनका ‘श्रीनिम्बार्काचार्य’ नाम प्रसिद्ध हो गया। इन्हें सूर्यावतार भी कहते हैं।

वैष्णवों के चार प्रमुख सम्प्रदायों में से एक है द्वैताद्वैत या निम्बार्क सम्प्रदाय

इनके सम्प्रदाय को ‘निम्बार्क सम्प्रदाय’ कहते हैं। ‘निम्बार्क सम्प्रदाय’ में परब्रह्म वृन्दावनबिहारी युगलकिशोर श्रीराधाकृष्ण की पूजा होती है। यही पूजा पद्धति सनकादि मुनियों ने श्रीनारदजी को बताई थी।

स्वभावतोऽपास्त समस्तदोषमशेषकल्याण गुणैकराशिम्।
व्यूहांगिनं ब्रह्म परं वरेण्यं ध्यायेम कृष्णं कमलेक्षणं हरिम्।।
अंगे तु वामे वृषभानुजां मुदा विराजमाना मनुरूप सौभगाम्।
सखी सहस्त्रै: परिसेवितां सदा स्मरेम देवीं सकलेष्टकामदाम्।। (वेदान्तकामधेनु, श्लोक ४-५)

अर्थात्—जो स्वभाव से ही समस्त दोषों से निर्लिप्त हैं, समस्त दिव्य गुणों के समुद्र हैं, व्यूहों के अंगी हैं, जिनके नेत्र कमल के समान हैं, उन सभी पापों को हरने वाले परब्रह्म श्रीकृष्ण का हम ध्यान करते हैं। साथ ही उन भगवान श्रीकृष्ण के समान ही गुण और रूप वाली, उनके वामभाग में विराजमान, सहस्त्रों सखियों द्वारा सदा सेवित, भक्तों के अभीष्टों को पूर्ण करने वाली वृषभानुनंदिनी श्रीराधाजी का हम निरन्तर स्मरण करते हैं।

निम्बार्क सम्प्रदाय में भक्त गोपीचन्दन का तिलक लगाते हैं। श्रीमद्भागवत इस सम्प्रदाय का प्रधान ग्रन्थ है।

श्रीनिम्बार्काचार्यजी ने कई ग्रन्थ लिखे जैसे—गीताभाष्य, कृष्णस्तवराज, गुरुपरम्परा, वेदान्त-तत्त्वबोध, वेदान्तसिद्धान्तप्रदीप, श्रीराधाष्टकस्तोत्र, मन्त्ररहस्यषोडशी आदि। इनके दो ग्रन्थ ‘वेदान्तसौरभ’ और ‘वेदान्तकामधेनुदशश्लोकी’ ही वर्तमान में उपलब्ध हैं।

इनका मत द्वैताद्वैतवाद के नाम से प्रसिद्ध है। इनके मत में ब्रह्म से जीव और जगत अलग भी है और एक भी है। जैसे जल और उसकी तरंगें दोनों अलग-अलग दिखायी देते हुए भी एक जलस्वरूप हैं, उसी प्रकार श्रीराधाकृष्ण दीखने में दो होते हुए भी तन, मन और इच्छा आदि से एकरूप ही हैं।

एक स्वरूप सदा द्वै नाम।
आनंद की आह्लादिनी स्यामा,
आह्लादिनी के आनंद स्याम।। (महावाणी, सिद्धान्तसुख, २६)

श्यामसुन्दर आनन्दस्वरूप हैं और श्रीराधा उस आनंद का आह्लाद हैं। उसी आह्लाद का आनन्दरूप श्यामसुन्दर हैं।
भगवान निम्बार्काचार्य रचित श्रीराधाष्टकम् का एक श्लोक इस प्रकार हैं—

(ॐ) नमस्ते श्रियै राधिकायै परायै नमस्ते नमस्ते मुकुन्दप्रियायै।
सदानन्दरूपे प्रसीद त्वमन्त:प्रकाशे स्फुरन्ती मुकुन्देन सार्धम्।।

अर्थात्—(ॐ) श्रीराधिके! तुम्हीं श्री (लक्ष्मी) हो, तुम्हें नमस्कार है, तुम्हीं पराशक्ति राधिका हो, तुम्हें नमस्कार है। तुम मुकुन्द की प्रियतमा हो, तुम्हें नमस्कार है। सदानन्दरूपे देवि! तुम मेरे अंत:करण के प्रकाश में श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण के साथ सुशोभित होती हुई मुझ पर प्रसन्न होओ।

सभी जीवों में भगवद्बुद्धि करके द्वेष, हिंसा, झूठ, कलह और अंहकार को त्यागकर निर्मल मन और बुद्धि से, हृदय में प्रेम के साथ साधक भगवत्स्वरूप रूपी सागर में नदी की भांति प्रवेश करे और अपने को भगवान के प्रेम के योग्य बना सके—यही निम्बार्क भगवान द्वारा बताया गया भक्तिमार्ग है।

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